उलूक टाइम्स: शर्म
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बुधवार, 26 अगस्त 2020

सोच तो थी बहुत कुछ लिखने की लेकिन लगता नहीं है उसमें से थोड़ा सा कुछ भी लिख पाउँगा कहीं

 


सारी जिन्दगी निकल गयी
लेकिन लगने लगा है
थोड़ी सी भी आँख तो अभी खुली ही नहीं 

अन्धा नहीं था लेकिन अब लग रहा है
थोड़ा सा भी पूरे का
अभी तो कहीं से भी दिखा ही नहीं 

नंगा और नंगई सोचने में
शर्म दिखाने के बाद भी बहुत आसान सा लगता रहा
बस कपड़े ही तो उतारने हैं कुछ शब्द के
सोच लिया

अरे क्या कम है
बस ये किया और कुछ किया ही नहीं 

परदे बहुत से
बहुत जगह लगे दिखे लहराते हुऐ हवा में
कई कई वर्षॉं से टिके
खिड़कियाँ भी नहीं थी ना ही दरवाजे थे
कहीं दिखा ही नहीं 

क्या क्या कर रहे हैं
सारे शरीफ़
अखबार की सुबह की खबर और पेज में दिखाई देने वाले

जब बताने पै आ जाता है एक गरीब
तब शर्म आती है आनी भी चाहिये
बहुत लिख लिये गुलाब भी और शराब भी

लिख देने वाला सच
बेशर्मी से जरा सा भी तो
‘उलूक’
कहीं भी
आज तक लिखा ही नहीं।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

ulooktimes.blogspot.com २६/०८/२०२० के दिन 

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शनिवार, 9 सितंबर 2017

किस बात की शर्म जमावड़े में शरीफों के शरीफों के नजर आने में



किस लिये चौंकना मक्खियों के मधुमक्खी हो जाने में
सीखना जरूरी है बहुत कलाकारी कलाकारों से उन्हीं के पैमानों में

किताबें ही किसलिये दिखें हाथ में पढ़ने वालों के
जरूरी नहीं है नशा बिकना बस केवल मयखाने में

शहर में हो रही गुफ्तगू पर कान देने से क्या फायदा
बैठ कर देखा किया कर घर पर ही हो रहे मुजरे जमाने में

दुश्मनों की दुआयें साथ लेना जरूरी है बहुत
दोस्त मशगूल हों जिस समय हवा बदलवाने की निविदा खुलवाने में

‘उलूक’ सिरफिरों को बात बुरी लगती है
शरीफों की भीड़ लगी होती है जिस बात को शरीफों को शराफत से समझाने में ।

चित्र साभार: Prayer A to Z

शनिवार, 11 जुलाई 2015

जो है वो कौन कहता है जो नहीं है कहते सभी हैं

शर्म लिख
रहा हो कोई
जरूरत पड़
जाती है
सोचने की
बेशर्मी लिखना
शुरु कर ही
जाये कोई
कहाँ कमी है
आज क्या लिखें
क्या ना लिखें
लिखें भी कि
कुछ नहीं
ही लिखें
उन्हें सोचना है
जिन्हें कहना
कुछ नहीं है
कहने वाले
को पता है
जानता है वो
बिना कुछ कहे
रहना ही नहीं है
कविता कहानी
लेख आलेख
दस्तावेज और
भी बहुत
कुछ है
हथियार है
शौक है
आदत है
लत है
सहने की
सीमा से
बाहर बहना
कुछ नहीं है
लिखने लिखाने
की बातें
हाथों से कागज
तक का सफर
सबके बस का
भी नहीं है
उतार लेना
दिल और
दिमाग लाकर
दिखे दूसरे को
सामने से
कटा हुआ
जैसे एक सर
बहते हुऐ
कुछ खून
के साथ कुछ
कहीं सोच में
आने तक ही
होना ऐसा
कुछ भी
कभी भी
कहीं भी
नहीं है ।

चित्र साभार:
www.cliparthut.com

सोमवार, 29 जून 2015

चोर की देश भक्ति से भाई कौन परेशान होता है

चोर हो तो 
होने से भी
क्या होता है
देश भक्ति
की पाँत में

तो सबसे आगे 

ही खड़ा होता है 

देश भक्ति अलग
एक बात होती है
चोरी करने के
साथ और नहीं
करने के भी
साथ होती है
एक देश भक्त
पूरा ही पर खाली
भगत होता है
एक देश भक्त
होने के साथ साथ
चोर भी छोटा सा
या बहुत बड़ा
भी कोई होता है
समझना देश को
फिर भक्ति को
चोरी चकारी के
साथ होना गजब
और बहुत ही
गजब होता है
संविधान उदार
देश का बहुत ही
उदार होता है
चोर जेल में रहे
या ना रहे
देश का भगत
होने से कुछ भी
कहीं भी कुछ
कम नहीं होता है
क्यों नहीं समझता
है कोई कितना ढेर
सारा काम होता है
सुबह से लेकर
शाम तक कहाँ
आराम होता है
देशभक्ति के
साथ साथ चोरी
चकारी भी कर
ले जाना बस में
सबके नहीं होता है
‘उलूक’ शर्म होनी
चाहिये उसे जो
ना भगत होता है
ना चोर होता है
खाली रोज जिस
नक्कारे के हाथ में
दूसरों को चाटने
के वास्ते काला
रंग भरा हुआ बस
एक कलम होता है
ऐसे ही कुछ देश
भक्तों की खाली
भक्ति के कारण
ही सारा देश
बदनाम होता है ।

चित्र साभार: anmolvachan.in

रविवार, 21 जून 2015

नाटक कर पर्दे में उछाल खुद ही बजा अपने ही गाल

कुछ भी
संभव
हो सकता  है

ऐसा
कभी कभी
महसूस होता है

जब दिखता है

नाटक
करने वालों
और दर्शकों
के बीच में

कोई भी

पर्दा
ना उठाने
के लिये होता है
ना ही गिराने
के लिये होता है

नाटक
करने वाले
के पास बहुत सी
शर्म होती है

दर्शक
सामने वाला
पूरा बेशर्म होता है

नाटक
करने भी
नहीं जाता है

बस दूर से
खड़ा खड़ा
देख रहा होता है

वैसे तो
पूरी दुनियाँ ही
एक नौटंकी होती है

नाटक
करने कराने
के लिये ही
बनी होती है

लिखने लिखाने
करने कराने वाला
ऊपर कहीं
बैठा होता है

नाटक
कम्पनी का
लेकिन अपना ही
ठेका होता है

ठेकेदार
के नीचे
किटकिनदार होते हैं

किटकिनदार
करने कराने
के लिये पूरा ही
जिम्मेदार होते हैं

‘उलूक’
कानी आँखों से
रात के अंधेरे
से पहले के
धुंधलके में
रोशनी समेट
रहा होता है

दर्शकों
में से कुछ
बेवकूफों को
नाटक के
बीच में कूदते हुऐ
देख रहा होता है

कम्पनी के
नाटककार
खिलखिला
रहे होते हैं

अपने लिये
खुद ही तालियाँ
बजा रहे होते हैं

बाकी फालतू
के दर्शकों
के बीच से
पहुँच गये
नाटक में
भाग लेने
गये हुऐ
नाटक कर
रहे होते हैं

साथ में
मुफ्त में
गालियाँ खा
रहे होते हैं
गाल
बजाने वाले
अपने गाल
खुद ही
बजा रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.india-forums.com

रविवार, 29 मार्च 2015

बेशर्म शर्म

 


आसान नहीं लिख लेना चंद लफ्जों में
उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को

उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज 
उनकी बेशर्मी
बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद

और खुद की बेशर्मी देखिये
कितनी बेशर्म
पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद
अपने में अपनी ही शर्म

पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है
पर्दानशीं के लिये 
उसे भी मालूम है
और इसका पता बेशर्मों को भी है

बहुत दिन हो गये
कलम भी कब तक      
बेशर्मी को छान कर शर्माती हुई
बस शर्म ही लिखे

अच्छा है उनकी बेशर्मी बनी रहे
जवान रहे पर्दे में रहे जहाँ रहे
जो सामने दिखे उस शर्म को महसूस कर

‘उलूक’बेशर्मी से अपनी खींसे निपोरता हुआ
रात के अंधेरे में
कुछ इधर से उधर उड़े कुछ उधर से इधर उड़े ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 26 नवंबर 2014

हैवानियत है कि इंसानियत का दीमक हुई जा रही है

शर्म आती है

कहने में भी
शर्म आ रही है

सात साल की
मासूम ‘कशिश’

जिस दरिंदगी
का हुई है शिकार

किसकी
रही गलती
कहाँ हो गई कमी


इंसानियत
क्यों हैवानियत
होती जा रही है

दानवों की सी
नोच खसोट जारी है

कितनी द्रोपदी

पता नहीं
कहाँ कहाँ

दुशासन की
पकड़ में
बस कसमसा रही हैं

भगवान
कृष्ण भी
कहाँ कहाँ पहुँचें

सारी घटनायें
सामने कहाँ
आ रही हैं

देवताओ
कुछ तो कहो

देव भूमि
पीड़ा से
छ्टपटा रही है

माँ की ममता
कितनी
हो चुकी है बेबस

गिद्धों की
नोची हुई
लाश को
देख देख कर
बेहोश हुई
जा रही है

इंसान
कलियुग़ में
इंसानियत का
कितना करेगा
और कत्ल

सजा
पता नहीं
कब और किसे
दी जा रही है

आँखें हैं नमी है
सिले हुऐ मुँह हैं

मोमबत्तियाँ
हाथों में ही
पिघलती
जा रही हैं

शर्म आ रही है

कहने में भी
शर्म आ रही है ।

चित्र साभार: imgarcade.com

बुधवार, 21 अगस्त 2013

हत्या हुई है एक चिन्तक की चिन्ता किसे है


चिन्तक 
डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या पर आना शुरु हो गये हैं वक्तव्य 

नृशंश हुई है हत्या अब कह रहे हैं लोग
समाज की भलाई की सोच लेकर चल रहे होते हैं लोग
ऎसे लोगों की ही हत्या सरेआम कर रहे होते हैं लोग

कोशिश रोज ही की जाती है हत्याऎं होती रहें 
ऎसे लोगों के विचारों की विचार ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं 
काबू में आने से इन्कार कर जाते हैं ऎसे में बौखला जाते हैं लोग 

पहले बहुत कम होता था संचार माध्यम ऎसा नहीं था 
पता भी कहाँ चलता था 
अब तुरंत बात फैला देते हैं लोग 

अब तो रोज ही बेखौफ हत्या करने लगे हैं लोग 
बने हुऎ हैं इसपर भी मूकदर्शक लोग 
बस वक्तव्य देने में नहीं कतराते हैं लोग 

विचार जब तक जिंदा रहते हैं 
विचार को अनदेखा कर जाते हैं लोग 
निर्विकार भाव दिखा कर विचार से कतराते हैं लोग 

इसी श्रृंखला में आज
एक सामाजिक विचारक का मुंह बंद करा गये हैं लोग 
पता चलते ही श्रद्धांजलि देना शुरु कर
इतिश्री करने की तरफ जाने लगे हैं लोग

शर्म आ रही हो उन्हे बहुत ही जैसे शरमाने लगे हैं लोग
कहीं दूसरी ओर विचारों को कत्ल करने की
नई योजना बनाने शुरु हो गयें है लोग । 

चित्र साभार: : https://economictimes.indiatimes.com/

रविवार, 18 दिसंबर 2011

शर्म

शर्म होती है
या
कहते हैं शरम
फर्क पड़ता है
क्या
कर लेते हैं
शरम का ही
चलो भरम
शरम नहीं
आती है तो
बन जाते हैं
सभी होने ना
होने वाले काम
शरमाने वाले को
तो लगता है
हो गया हो
जैसे
खतरनाक जुखाम
वो जुखाम को देखे
या करवाले
अपने कोई काम
आपको आती है क्या
आती है तो अभी
भी सम्भल जाइये
कुछ तो सीख लीजिये
शरमाना तो
कम से कम
भूल ही जाइये
जिसने की शरम
उसके फूटे करम
आपसे कोई कभी
नहीं कह पायेगा
आपकी हो
जायेगी चाँदी
पांचों अंगुलियां
होंगी घी में                
और
सर कढ़ाई
में डूब जायेगा
जनज्वार वाले
लगे हैं एक
खबर पढ़वाने में
जोर लगा रहे हैं
डाक्टरों के शर्माने में
अरे छोड़ भी
दीजिये जनाब
किस किस
को शरमाना
इस जमाने
में सिखायेंगे
ज्याद किया
तो खुद ही
शरमाना
भूल जायेंगे
मास्टरों ने
छोड़ दिया
कब से
शरमाना
डाक्टर भी
अब नहीं
शरमा रहा
मिल गया ना
आप को
एक बहाना
चलिये बताइये
या
कुछ गिनवाइये
कितनो को
आ रही है
इस देश में
इस समय शरम
नहीं गिनवा
पा रहे तो
करवा ही लिजिये
चलिये चुनाव
शरम आती है
या नहीं आती है
अब तो पता ही
नहीं लग पाता
लोकतंत्र है
शरमाता या
अन्ना को ही
आनी चाहिये
कुछ तो शरम
ये शरम भी ना
अब बड़ी
अजीब ही
होने लगी है
जिसको आती है
उसको हर जगह
मार खिलवाती है
जिसको नहीं आती
उसके पीछे पता नहीं
क्यूं खामखां पब्लिक
झाडू़ ले के पड़ जाती है ।

चित्र साभार: www.clipartpanda.com