उलूक टाइम्स: बेशर्म
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शनिवार, 11 जुलाई 2015

जो है वो कौन कहता है जो नहीं है कहते सभी हैं

शर्म लिख
रहा हो कोई
जरूरत पड़
जाती है
सोचने की
बेशर्मी लिखना
शुरु कर ही
जाये कोई
कहाँ कमी है
आज क्या लिखें
क्या ना लिखें
लिखें भी कि
कुछ नहीं
ही लिखें
उन्हें सोचना है
जिन्हें कहना
कुछ नहीं है
कहने वाले
को पता है
जानता है वो
बिना कुछ कहे
रहना ही नहीं है
कविता कहानी
लेख आलेख
दस्तावेज और
भी बहुत
कुछ है
हथियार है
शौक है
आदत है
लत है
सहने की
सीमा से
बाहर बहना
कुछ नहीं है
लिखने लिखाने
की बातें
हाथों से कागज
तक का सफर
सबके बस का
भी नहीं है
उतार लेना
दिल और
दिमाग लाकर
दिखे दूसरे को
सामने से
कटा हुआ
जैसे एक सर
बहते हुऐ
कुछ खून
के साथ कुछ
कहीं सोच में
आने तक ही
होना ऐसा
कुछ भी
कभी भी
कहीं भी
नहीं है ।

चित्र साभार:
www.cliparthut.com

रविवार, 21 जून 2015

नाटक कर पर्दे में उछाल खुद ही बजा अपने ही गाल

कुछ भी
संभव
हो सकता  है

ऐसा
कभी कभी
महसूस होता है

जब दिखता है

नाटक
करने वालों
और दर्शकों
के बीच में

कोई भी

पर्दा
ना उठाने
के लिये होता है
ना ही गिराने
के लिये होता है

नाटक
करने वाले
के पास बहुत सी
शर्म होती है

दर्शक
सामने वाला
पूरा बेशर्म होता है

नाटक
करने भी
नहीं जाता है

बस दूर से
खड़ा खड़ा
देख रहा होता है

वैसे तो
पूरी दुनियाँ ही
एक नौटंकी होती है

नाटक
करने कराने
के लिये ही
बनी होती है

लिखने लिखाने
करने कराने वाला
ऊपर कहीं
बैठा होता है

नाटक
कम्पनी का
लेकिन अपना ही
ठेका होता है

ठेकेदार
के नीचे
किटकिनदार होते हैं

किटकिनदार
करने कराने
के लिये पूरा ही
जिम्मेदार होते हैं

‘उलूक’
कानी आँखों से
रात के अंधेरे
से पहले के
धुंधलके में
रोशनी समेट
रहा होता है

दर्शकों
में से कुछ
बेवकूफों को
नाटक के
बीच में कूदते हुऐ
देख रहा होता है

कम्पनी के
नाटककार
खिलखिला
रहे होते हैं

अपने लिये
खुद ही तालियाँ
बजा रहे होते हैं

बाकी फालतू
के दर्शकों
के बीच से
पहुँच गये
नाटक में
भाग लेने
गये हुऐ
नाटक कर
रहे होते हैं

साथ में
मुफ्त में
गालियाँ खा
रहे होते हैं
गाल
बजाने वाले
अपने गाल
खुद ही
बजा रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.india-forums.com

रविवार, 29 मार्च 2015

बेशर्म शर्म

 


आसान नहीं लिख लेना चंद लफ्जों में
उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को

उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज 
उनकी बेशर्मी
बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद

और खुद की बेशर्मी देखिये
कितनी बेशर्म
पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद
अपने में अपनी ही शर्म

पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है
पर्दानशीं के लिये 
उसे भी मालूम है
और इसका पता बेशर्मों को भी है

बहुत दिन हो गये
कलम भी कब तक      
बेशर्मी को छान कर शर्माती हुई
बस शर्म ही लिखे

अच्छा है उनकी बेशर्मी बनी रहे
जवान रहे पर्दे में रहे जहाँ रहे
जो सामने दिखे उस शर्म को महसूस कर

‘उलूक’बेशर्मी से अपनी खींसे निपोरता हुआ
रात के अंधेरे में
कुछ इधर से उधर उड़े कुछ उधर से इधर उड़े ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com