देखा
नहीं था
बस
कुछ सुना था
कुछ
किताबों के
सफेद पन्नों
पर
काले से
किसी ने कुछ
आढ़ा तिरछा सा
गड़ा था
उसमें से थोड़ा
मतलब का कुछ कुछ
पढ़ा था
बहुत कुछ
यूँ ही
पन्नों के साथ चिपका कर
बस
पलट चला था
नहीं था
बस
कुछ सुना था
कुछ
किताबों के
सफेद पन्नों
पर
काले से
किसी ने कुछ
आढ़ा तिरछा सा
गड़ा था
उसमें से थोड़ा
मतलब का कुछ कुछ
पढ़ा था
बहुत कुछ
यूँ ही
पन्नों के साथ चिपका कर
बस
पलट चला था
पल्ले ही नहीं
पड़ा था
ना गुलाम
देखे थे
ना गुलामी
महसूस की थी
कहीं कोई
बंदिश नहीं थी
सब कुछ
आकाश था
चाँद तारों
और
चमकदार सूरज से
लबालब
भरा था
ऐसा
भी नहीं था
कहीं कूड़ा नहीं था
जैविक था
अजैविक भी था
सोच में भी
अलग से रखा
कूड़ादान
भी वहीं था
वैसा ही जैसे
आज का
अभी का हो
रखा चमका हुआ
नया था
खुल भी रहा था
बन्द
ढक्कन के साथ
हो
रहा था
एक था गाँधी
कर गया था
गुड़ का गोबर
तब कभी
अभी अभी
कहीं कोई कह
रहा था
गाय बकरी भैंस
के दिन
फिर रहे थे
अब
कहीं जाकर
गोबर का
बस और बस
सब गुड़
हो रहा था
लड़का लिये छाता
एक छत से कूदता
दूसरी छत
चाकलेट फेंकता
धूप से बचाता नीचे कहीं
राह चलती
एक लड़की
सामाजिक
दूरी बना
खुश
हो रहा था
समय
घड़ी की टिक टिक
के साथ
अन्दर
कहीं घर के
तालाबन्द हो कर
जार जार
खुशी के आँसू
दो चार बस रोज
दिखाने का
कुछ रो
रहा था
महामारी
दौड़ा रही थी
मीलों
आदमी नंगे पाँव
सड़क पर
नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था
‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की
महसूस कर
बेवकूफ
स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।
चित्र साभार: www.123rf.com
दूसरी छत
चाकलेट फेंकता
धूप से बचाता नीचे कहीं
राह चलती
एक लड़की
सामाजिक
दूरी बना
खुश
हो रहा था
समय
घड़ी की टिक टिक
के साथ
अन्दर
कहीं घर के
तालाबन्द हो कर
जार जार
खुशी के आँसू
दो चार बस रोज
दिखाने का
कुछ रो
रहा था
महामारी
दौड़ा रही थी
मीलों
आदमी नंगे पाँव
सड़क पर
नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था
‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की
महसूस कर
बेवकूफ
स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।
चित्र साभार: www.123rf.com