वैसे तो
सालों हो गये अब
कुछ नहीं लिखते लिखते
और ये कुछ नहीं अब
शामिल हो लिया है
आदतों में सुबह की
एक प्याली जरूरी चाय की तरह
फिर भी इधर कुछ दिनों
कागजों में बह रही
इधर उधर फैली हुई
बहुत कुछ की आई हुई बाढ़ से
बचने बचाने के चक्कर में
कुछ नहीं भी
पता नहीं चला कहाँ खो गया है
होते हुऐ पर कुछ लिखना
कहाँ आसान होता है
हमेशा
नहीं हुआ कहीं भी
ही आगे कहीं दिख रहा होता है
अब
दौड़ में शुरु होते समय पानी की
हौले हौले से कुछ बूँदें
नजर आ ही जाती हैँ
सालों हो गये अब
कुछ नहीं लिखते लिखते
और ये कुछ नहीं अब
शामिल हो लिया है
आदतों में सुबह की
एक प्याली जरूरी चाय की तरह
फिर भी इधर कुछ दिनों
कागजों में बह रही
इधर उधर फैली हुई
बहुत कुछ की आई हुई बाढ़ से
बचने बचाने के चक्कर में
कुछ नहीं भी
पता नहीं चला कहाँ खो गया है
होते हुऐ पर कुछ लिखना
कहाँ आसान होता है
हमेशा
नहीं हुआ कहीं भी
ही आगे कहीं दिख रहा होता है
अब
दौड़ में शुरु होते समय पानी की
हौले हौले से कुछ बूँदें
नजर आ ही जाती हैँ
देख लिया जाता है
इंद्रधनुष भी बनता हुआ कहीं
किसी कोने में छा सा जाता है
कुछ के होते होते बहुत कुछ
शुरु होता है ताँडव
बूंदों का जैसे ही
पानी ही
पता नहीं चलता है
कि है कहीं
सारा बहुत कुछ खो सा जाता है
जैसे नियाग्रा
जल प्रपात से गिरता हुआ जल
धुआँ धुआँ
होना शुरु हो जाता है
‘उलूक’ भी
गहरी साँस खींचता सा कहीं से
अपनी
देखी दिखाई सुनी सुनाई पर
बक बकाई ले कर
फिर से हाजिर होना
शुरु हो जाता है।
चित्र साभार: https://www.gettyimages.co.uk/
वाह! सुंदर हाज़िरी, उलूक की बकबकाई की!
जवाब देंहटाएंवाह..।
जवाब देंहटाएंआपकी पारखी दृष्टि से कुछ बच नहीं सकता। आपके कलम की कुछ बूँदें सब कह जाती है, बिना कुछ ज्यादा कहे।
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात व साधुवाद।
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी ऐसे ही गतिमान रहे।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 12 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-10-2020 ) को "अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर एक मां की हुंकार..."(चर्चा अंक 3853) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंपानी
जवाब देंहटाएंही
पता नहीं चलता है
कि है कहीं
सारा बहुत
कुछ खो सा जाता है - - अंदाज़ ए बयान क्या कहिए - - कुछ शब्द ही काफी हैं ज़िन्दगी की तस्वीर के लिए, नमन सह।
पानी
जवाब देंहटाएंही
पता नहीं चलता है
कि है कहीं
सारा बहुत
कुछ खो सा जाता है
जैसे
नियाग्रा
जल प्रपात से गिरता हुआ जल
धुआँ धुआँ
होना शुरु हो जाता है..वाह !बहुत ही सुंदर सर।
सादर
जैसे
जवाब देंहटाएंनियाग्रा
जल प्रपात से गिरता हुआ जल
धुआँ धुआँ
होना शुरु हो जाता है
‘उलूक’ भी
गहरी साँस खींचता सा
कहीं से
अपनी
देखी दिखाई सुनी सुनाई पर
बक बकाई ले कर
फिर से
हाजिर होना
शुरु हो जाता है।
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअपनी
देखी दिखाई सुनी सुनाई पर
बक बकाई ले कर
फिर से
हाजिर होना
शुरु हो जाता है। ,,,,,,, बहुत लाजवाब है
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंहोते हुए पर लिखना मुश्किल तो है ही ,खतरों से भरा भी है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंकोरोना से हुई रंग विहीन फिजा पर ये रंग कौन सा छा गया,
जवाब देंहटाएंबाढ़ थमने की आहट हुई नहीं बकवास करने का मौसम आ गया।
बेहतरीन !!
जवाब देंहटाएंयह जो दुनिया का मौसम है, बिना बक-बकाई के काम ही नहीं चलता. बहुत सही लिखा.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखा
जवाब देंहटाएंवाह... अप्रतिम!
जवाब देंहटाएंकुछ नहीं मतलब केवल 'कुछ' नहीं बहुत कुछ.
जवाब देंहटाएं