उलूक टाइम्स: मौसम
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रविवार, 11 अक्तूबर 2020

बाढ़ थमने की आहट हुई नहीं बकवास करने का मौसम आ जाता है

 

वैसे तो
सालों हो गये अब

कुछ नहीं लिखते लिखते

और ये कुछ नहीं अब

शामिल हो लिया है
आदतों में सुबह की
एक प्याली जरूरी चाय की तरह

फिर भी इधर कुछ दिनों
कागजों में बह रही
इधर उधर फैली हुई
बहुत कुछ की आई हुई बाढ़ से
बचने बचाने के चक्कर में

कुछ नहीं भी
पता नहीं चला कहाँ खो गया 
है

होते हुऐ पर कुछ लिखना
कहाँ आसान होता है

हमेशा
नहीं हुआ कहीं भी
ही आगे कहीं दिख रहा होता है

अब
दौड़ में शुरु होते समय पानी की

हौले हौले से कुछ बूँदें
नजर आ ही जाती हैँ 

देख लिया जाता है
इंद्रधनुष भी बनता हुआ कहीं
किसी कोने में छा सा जाता है 

कुछ के होते होते बहुत कुछ

शुरु होता है ताँडव
बूंदों का जैसे ही

पानी ही
पता नहीं चलता है
कि है कहीं
सारा बहुत कुछ खो सा जाता है

जैसे नियाग्रा 
जल प्रपात से गिरता हुआ जल
धुआँ धुआँ
होना शुरु हो जाता है

‘उलूक’ भी
गहरी साँस खींचता सा कहीं से

अपनी
देखी दिखाई सुनी सुनाई पर
बक बकाई ले कर
फिर से हाजिर होना
शुरु हो जाता है। 

चित्र साभार: https://www.gettyimages.co.uk/

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

होने होने तक ऐसा हुआ जैसा होता नहीं मौसम आम आदमी जैसा हो गया

मौसम का मिजाज था
कोई आदमी का नहीं
मनाये जाने तक
ये गया और वो गया
कहने कहने तक
थोड़ा कुछ नहीं
बहुत कुछ हो गया
उजाला हुआ फिर
अंधेरा अंधेरा
सा हो गया
कोहरा उठा
अपने पीछे छिपा
ले गया सारे दृश्य
खुद को ही खोज लेना
जैसे बहुत दूभर हो गया
कुछ देर के लिये
थम सा गया समय
जैसे घड़ी को एक
घड़ी में कोई चाभी देने
से हो रह गया
बूँदा बाँदी होना
शुरु होना था
पानी जैसे इतने में
ही बहुत हल्का होकर
रूई जैसा हो गया
धुँधला धुँधला हुआ
कुछ कुछ होते होते
सब जैसे सुर्ख सफेद
चादर जैसा हो गया
शांत हुआ इतना हुआ
जैसे बिना साज के
सँगीतमय वातावरण
सारा हो गया
कहीं गीत लिखा गया
मन ही मन में
किसी के मन से एक
काल जैसे कालजयी
किसी और के
लिये कहीं हो गया
कहीं उकेरा गया
किसी की नर्म
अंगुलियों से एक चित्र
सफेद बर्फ की चादर पर
जिसे देख देख कर
चित्रकार ही दीवाना
दीवाना सा हो गया
एक शाम से लेकर
बस एक ही रात में
जैसे एक छोटा सा
सफर बहुत ही
लम्बा हो गया
समाधिस्त होता हुआ
भी लगा कहीं
कोई पेड़ या पहाड़
सब कुछ कुछ पल
के लिये जैसे
साधू साधू हो गया
एक लम्बी रात के
गुजर जाने के बाद
का सूरज भी होते होते
जैसे कुछ पागल
पागल सा हो गया
नहाया हुआ सा दिखा
हर कण आस पास का
जैसा कुछ कुछ गुलाबी
गुलाबी हो गया
प्रकृति के एक खेल को
खेलता हुआ जैसे
एक मुसाफिर
देर से चल रही एक
गाड़ी पर फिर से
सवार होकर
रोज के आदी सफर पर
कुछ मीठी खुश्बुओं को
मन में बसाकर
रवाना हो गया
मौसम का मिजाज
जैसे फिर से
आम आदमी के
रोज के मिजाज
का जैसा हो गया ।

सोमवार, 1 जुलाई 2013

रुक के आता दो एक दिन और जब यहाँ कुछ भी नहीं हो रहा था

ऎसा भयानक अनघट
चारों ओर धट रहा था
लिखने की किस को
पडी़ थी देखने में ही
अंदर तक जलता हुआ
लावा सा कुछ इधर
से उधर जैसे हो रहा था
नदी में ही था पानी
पानी की जगह पर
ही तो बह रहा था
वैसे भी किसको क्या
पडी़ थी कोई लिखे
या ना लिखे यहाँ
माथे पर लिखे हुऎ
को समय जब बहुत
बेरहमी से धो रहा था
पानी के शोर की
परवाह कौन करता
जब मौका तरह तरह
के शोर करने का बडी़
मुश्किल से हो रहा था
कुत्ता मालिक के गिरते
मकान का पहरा करते
करते कहीं रो रहा था
ग्लोबल पोजिशनिंग
सिस्टम रिमोट सेंसिंग
की शादी में जैसे
नशे में चूर हो रहा था
मौसम अंतरिक्ष पर्यावरण
सब व्यस्त हो रहे थे
हर बात पर शांतिपूर्वक
बहुत शोध हो रहा था
हर कोई निकल निकल
के जोर जोर से इसी
बात को लेकर रो रहा था
प्रयोगशाला में हो रही
परियोजनाओं का झंडा
पत्रिकाओं में फोटो सहित
ना जाने किस जमाने
से स्टोर हो रहा था
ऎसे मेले में जब हर
अनुभवी एक छोटा
सा पौंधा नहीं बहुत ही
बड़ा पेड़ हो रहा था
'उलूक' अच्छा ही किया
कुछ नहीं लिखा दीवार
पर यहाँ आ कर कुछ दिन
हर कोई चैन से था खुश था
और मजे से सो रहा था ।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

फिर आया घोडे़ गिराने का मौसम



किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
लिखने वाले 
ने जो लिखा होता है
उसमें उसकी तस्वीर और उसका पता होता है

किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
बोलने वाले ने 
जो बोला होता है
उससे उसकी सोच और उसके कर्मो का लेखा जोखा होता है

बहुत बडे़ बडे़ लोगों 
के
आसपास मडराने 
वालों के
भरमाने 
पर मत आया कर

थोड़ा गणित ना 
सही
सामाजिक 
साँख्यिकी को ध्यान में ले आया कर

इस जमाने में
चाँद में पहुँचने की तमन्ना रखने वाले लोग ही
सबको घोडे़ दिलवाते हैं
जल्दी पहुँच जायेगा मंजिल किस तरह से
ये भी साथ में समझाते हैं

घोडे़ के आगे 
निकलते ही
घोडे़ की पूँछ में पलीता लगाते हैं
चाँद में पहुँचाने वाले दलाल को
ये सब घोडे़ की दौड़ है कह कर भटकाते हैं
घोडे़ ऎसे पता नहीं कितने
एक के बाद एक गिरते चले जाते हैं

समय मिटा देता है
जल्दी ही लोगों की यादाश्त को
घोडे़ गिराने वाले फिर कहीं और
लोगों को घोड़ों में बिठाते हुऎ नजर फिर से आते है

बैठने वाले ये भी 
नहीं समझ पाते हैं
बैठाने वाले खुद कभी भी कहीं भी
घोडे़ पर बैठे हुऎ नजर क्यों नहीं आते हैं ?

चित्र साभार: https://www.freepik.com/

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शैतान बदरिया

ओ बदरिया कारी
है गरमी का मौसम
और तू रोज रोज
क्यों आ जा रही
बेटाईम आ आ के
भिगा रही
बरस जा रही
सबको ठंड लगा रही
जाडो़ भर तूने नहीं
बताया कि तू क्यों
नही बरसने
को आ रही
लगता है तू आदमी
को अपना
मूड दिखा रही
आदमी के
कर्मों का
फल उसको
दिला रही
पर तू ये भूल
क्यों जा रही
कि तेरे बदलने
से ही तो
आदमी की पौ
बारा हो जा रही
क्लाईमेट चेंज और
ग्लोबल वार्मिंग
के नाम पर
जगह जगह दुकानें
खुलते जा रही
जैसे ही नदी सूख
जाने की खबर
दी जा रही
तू शैतान बरस
के पानी से लबालब
करने क्यों आ रही
बदरिया जरा कुछ
तो बता जा री।

गुरुवार, 22 मार्च 2012

चेहरे


चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं
गीले
धूप में हो 
जाते हैं
पीले

चेहरे चेहरे 
देखते हैं

छिपते हुवे
चेहरे
पिटते हुवे
चेहरे

चेहरों
को कोई 
फर्क पढ़ना 
मुझे नजर 
नहीं आता है

मेरा चेहरा 
वैसे भी 
चेहरों को 
नहीं भाता है

चेहरा शीशा 
हो जाता है 

चेहरा
चेहरे को 
देखता तो है
चेहरे में चेहरा 
दिखाई दे जाता है

चेहरे
को चेहरा 
नजर नहीं आता है
चेहरा अपना 
चेहरा देख कर
ही
मुस्कुराता है 
खुश हो जाता है

सबके 
अपने अपने 
चेहरे हो जाते हैं

चेहरे
किसी के
चेहरे को 
देखना कहाँ 
चाहते हैं

चेहरे बदल 
रहे हैं रंग 
किसी 
को दिखाई 
नहीं देते हैं

चेहरे
चेहरे को 
देखते जा रहे हैं
चेहरे अपनी 
घुटन मिटा रहे हैं

चेहरे
चेहरे को 
नहीं देख पा रहे हैं
चेहरे पकड़े 
नहीं जा रहे हैं
चेहरे चेहरे 
को
भुना रहे हैं

चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं गीले
धूप में हो 
जाते हैं पीले।