उलूक टाइम्स: बाढ़
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रविवार, 11 अक्तूबर 2020

बाढ़ थमने की आहट हुई नहीं बकवास करने का मौसम आ जाता है

 

वैसे तो
सालों हो गये अब

कुछ नहीं लिखते लिखते

और ये कुछ नहीं अब

शामिल हो लिया है
आदतों में सुबह की
एक प्याली जरूरी चाय की तरह

फिर भी इधर कुछ दिनों
कागजों में बह रही
इधर उधर फैली हुई
बहुत कुछ की आई हुई बाढ़ से
बचने बचाने के चक्कर में

कुछ नहीं भी
पता नहीं चला कहाँ खो गया 
है

होते हुऐ पर कुछ लिखना
कहाँ आसान होता है

हमेशा
नहीं हुआ कहीं भी
ही आगे कहीं दिख रहा होता है

अब
दौड़ में शुरु होते समय पानी की

हौले हौले से कुछ बूँदें
नजर आ ही जाती हैँ 

देख लिया जाता है
इंद्रधनुष भी बनता हुआ कहीं
किसी कोने में छा सा जाता है 

कुछ के होते होते बहुत कुछ

शुरु होता है ताँडव
बूंदों का जैसे ही

पानी ही
पता नहीं चलता है
कि है कहीं
सारा बहुत कुछ खो सा जाता है

जैसे नियाग्रा 
जल प्रपात से गिरता हुआ जल
धुआँ धुआँ
होना शुरु हो जाता है

‘उलूक’ भी
गहरी साँस खींचता सा कहीं से

अपनी
देखी दिखाई सुनी सुनाई पर
बक बकाई ले कर
फिर से हाजिर होना
शुरु हो जाता है। 

चित्र साभार: https://www.gettyimages.co.uk/

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

बातें बनाने तक की बात है चल ही जाती हैं नहीं चलती है तो फौज लगा कर चला दी जाती हैं

बातें
कितनी भी
बना ली जायें

लगता है
अभी कुछ ही
कहा गया है

बहुत कुछ है
जो बचा हुआ
रह गया है

जल की
इतनी बूँदें
होती और
जमा हो
गई होती

जलजला
ला देती
बहा देती

बहुत कुछ
छोड़ दिया
जाता

समय
के साथ
बहने के
लिये अगर

फिर
लगता है
बातें भी बूँद बूँद
ही जमा होती हैं

जैसी
जगह मिले
उसी की जैसी
हो लेती हैं

सामंजस्य
हो बात का
बात के साथ
जरूरी
नहीं होता है

कुछ बातें
खुद ही
तरतीब से
लग जाती हैं

कुछ
अपने ही आप
एक दूसरे पर
चढ़ जाती हैं

निकलना
चाहती हैं 
अंदर से बाहर


बेतरतीबी से
ऊँची नीची
सोच के साथ

उसी सोच
पर चढ़ कर
या उतर कर

आसान भी
नहीं होता है
बाँधें रखना

या फिर यूँ ही
छोड़ देना
बातों की
नकेल को

बातें एक साथ
अगर कह भी
दी जाती हैं

बाढ़ फिर भी
नहीं कभी
आ पाती है

बातें
पानी की तरह
बह तो जाती हैं

पर
दूर तक कहीं भी
नजर नहीं आती हैं

उनके
निशान भी
समय की रेत
पर खो जाते हैं

सबके बस में
नहीं होता है
जमा किये
रहना बातों को

कुछ
बहा देते हैं
यूँ ही कहीं भी
बातों को
बातों ही
बातों में

बातों
के बादल
भी नहीं बनते हैं

बात बात में
फटते भी नहीं हैं

बातें
निचोड़नी
पड़ती हैं

कुछ पीनी
पड़ती हैं
कुछ जीनी
पड़ती हैं

बात तो
तब बनती है

जब
कोई बात
बहुत ही
धीरे धीरे
हौले हौले से

बात
की बात में
बातों के बीच
छोड़ दी जाती है

कब काट
जाती है
कब फाड़
जाती है

कब कहाँ
किस को
चीर जाती है

उसके बाद
मटकती
उछलती
चल देती है

हर जगह
जा जा कर
नाच दिखाती है

देखते
रह जाते हैं
बातें बनाने वाले

उनकी
खुद की
कही बात
उन्हीं को
लपेट ले जाती है

‘उलूक’
जानता है
बहुत अच्छी तरह

सबसे
अच्छी बात

ऐसी ही
एक बात
होती है

जो
किसी
के भी
समझ में
कभी भी
नहीं
आ पाती है

बातें
बनाना
वैसे भी
किसी को भी

कहीं भी
नहीं सिखाया
जाता है

बातें तो
बात ही बात में

यूँ ही
चुटकी में
बना दी जाती हैं

मुश्किल
तब होती है

जब बातों
में से ही
एक बात

च्यूइंगम
हो जाती है ।

चित्र साभार:
www.shutterstock.com