उलूक टाइम्स: हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है

बुधवार, 23 जुलाई 2025

हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है

वो कहते हैं
तुम्हारी खींची लकीरों के
ना तो सिरे होते हैं ना होती है पूंछ
कोई क्या मतलब निकाले
कुछ निकलता ही नहीं
शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ

शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ
आंखों के परदों पर जमने लगती है हरी बूंद
हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है
दिखने भर की हरी दिखती है
सावन के हरे को खा जाती है

वो भी हरा दिखाता है
हरे भरे से सबको भरमाता है 
कौन देखता है उसको कौन सोचता है उसको
उसके हरे के भरे से मन भरता है भरता  जाता है

मन भरता जाता है
इतना भरता  है कि बहने लगता है हरा हरा 
भरे की बाढ़ आ जाती है 
हरे की पांचों अगुलियां घी में होती हैं 
कढ़ाई लबालब लेती है सारा हरा तुम्हारा चूस

लेती है हरा तुम्हारा चूस मजा तुमको भी आता है
सारी दुनियां एक तरफ हो जाती है
हरा फेंकने वाला हर हरे में छा जाता है
हरा लीलता है भरे को पता जब तक चलता है
हरा खुद नौ दो ग्यारह हो जाता है दबा कर पूँछ 

समझ में नहीं आ रही है लकीर कहता हुआ
लकीर कोई पीट ले जाता है
लकीर को पीट ले जाता है फकीर बहुत याद आता है 
हरा फेंकने वाला  दिमागों दर शरीर छा जाता है

‘उलूक’ छोड़ता नहीं है लकीरें खींचना खीचता जाता है
फकीर लगा रहता है पीटने में लकीरें
उस तरफ देखना किसने है
देश सामने से आ आंखों में छा जाता है |

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

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