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पानी सारे जहां का सुथरा और साफ हो गया है
घिसा गया है इतना शरीर दर शरीर
उसे आदमी आदमी याद हो गया है
कुछ धुला है कुछ घुला है कुछ तैरा है कुछ बह गया है
कुछ चक्कर लगाकर लगाकर भंवर में उस्ताद हो गया है
गिन लिए गए हैं तारे आसमान के एक एक करके सारे सभी
बारह का पहाड़ा ही लेकिन बस एक इतिहास हो गया है
आस्था के सैलाब जर्रे जर्रे पर लिए खड़े हैं विशाल बेमिसाल झंडे
विज्ञान को अपने अज्ञान का होना ही था आभास विश्वास हो गया है
रेत पर खींच दी गई लकीरें ज़ियादा समझ ले रहे हैं अब लोग
शब्द ढूंढ रहे हैं रोजगार बाजार भी कुछ बेज़ार हो गया है
‘उलूक’ ताकता रह आसमान की ओर लगातार टकटकी लगा कर
कारवां किसलिए सोचना हुआ अब यहाँ शेख ही जब गुबार हो गया है |
चित्र साभार:
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बारह का पहाड़ा ... क्या तुक बंदी है ... वाह ...
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