तेरे लिखे हुए में अपना अक्स नहीं
मिलता
और अपने लिखे हुए में आईना नहीं मिलता
ख्वाहिश देखने की खुद को अपने हिसाब से अपनी
कहीं भी देखो खुद का चेहरा खुद से नहीं मिलता
क्या क्या लिखे और कितना लिखे लिखने वाला
मौजूँ के ढेर हैं और गिनतियां अंगुलियों के पोरों पर
जोड़ने घटाने में लिखे को लिखे लिखाए के पैमाने में
कलम को कागज पे चलाने का बहाना नहीं मिलता
रोज आते हैं अपने अपने रास्ते से यहां आदतन सभी
अपने रास्ते पर आने जाने का नाम और निशाना नहीं मिलता
वो खुदा में मसरूफ़ हैं इन्हें अल्लाह नहीं मिलता
ये राम को लिखते हैं खत बस एक डाकखाना नहीं मिलता
पुरानी आदत है तेरी बक बकाने की उलफ़त में ‘उलूक’
तू भी गा जन्मदिन मना केक खाएगा तेरे साथ में जमाना
नहीं लिखेगा अपने लिखे लिखाए में आबोदाना नहीं मिलता
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी है....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
वाह वाह वाह, बहुत बेहतरीन रचना 🙏
जवाब देंहटाएंवाह !! अति सुन्दर !!
जवाब देंहटाएंवाह! सोचने को मजबूर करती बहुत गहरी बातें,
जवाब देंहटाएंआईना तो सच को बनाना होगा, अपना अक्स फिर उसमें झलकाना होगा, राम और रहीम दोनों को सलाम कर, ख़ुद को पूरी तरह आज़माना होगा
आपकी एक-एक लाइन जैसे खुद से लड़ाई करती है, और सच कहूँ तो पढ़ते वक्त अपना चेहरा भी कहीं धुंधला सा दिखता है। लिखते-लिखते इंसान खुद को ढूँढता रहता है और जवाब हमेशा अधूरा निकलता है। मज़ेदार बात ये है कि आपने तंज भी मारा और दर्द भी दिखा दिया।
जवाब देंहटाएं