अपने कुछ भी सोचे हुऐ पर
कुछ नहीं कह रहा हूँ
मेरे सोचे गये कुछ पर
कुछ उसके अपने नजरिये से
सोच दिये गये पर
कुछ सोच कर कहने की कोशिश कर ले रहा हूँ
बड़ी अजीब सी पहेली है
एक
एक का अपना खुद का सोचना है
और दूसरा
एक के कुछ सोचे हुऐ पर
किसी दूसरे का कुछ भी सोच लेना है
अब कुछ सोच कर ही कुछ लिखा जाता है
बिना सोचे कुछ लिख लेने वाला होता भी है
ऐसा सोचा भी कहाँ जाता है
कहने को तो
अपनी सोच के हिसाब से
किसी पर भी कोई भी कुछ भी कह जाता है
दूसरा
उस हिसाब पर सोचने लायक भी हो
ये भी जरूरी नहीं हो जाता है
इसलिये
सोचने पर किसी के
रोक कहीं लगाई भी नहीं जाती है
सोच सोच होती है समझाई भी नहीं जाती है
अपनी अपनी सोच में
सब अपने हिसाब से सोच ही ले जाते हैं
दूसरे की सोच से
सोचने वाले भी होते हैंं थोड़े कुछ
अजूबे होते भी हैं
और इसी दुनियाँ में पाये भी जाते हैं
‘उलूक’
तेरे सोच दिये गये कुछ पर
अगर कोई अपने हिसाब से कुछ सोच लेना चाहता है
तो वो जाने उसकी सोच जाने
उसके सोचने पर
तू क्यों अपनी सोच की टाँग
घुसाना चाहता है
बिना सोचे ही कह ले जो कुछ कहना चाहता है
होना कुछ भी नहीं है कहीं भी
किसी की सोच में कुछ आता है या नहीं आता है ।
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