उलूक टाइम्स: टाँग
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रविवार, 2 नवंबर 2014

रात में अपना अखबार छाप सुबह उठ और खुद ही ले बाँच

बहुत अच्छा है
तुझे भी पता है
तू कितना सच्चा है
अपने घर पर कर
जो कुछ भी
करना चाहता है
कर सकता है
अखबार छाप
रात को निकाल
सुबह सवेरे पढ़ डाल
रेडियो स्टेशन बना
खबर नौ बजे सुबह
और नौ बजे
रात को भी सुना
टी वी भी दिखा
सकता है
अपनी खबर को
अपने हिसाब से
काली सफेद या
ईस्टमैन कलर
में दिखा सकता है
बाहर तो सब
सरकार का है
उसके काम हैं
बाकी बचा
सब कुछ
उसके रेडियो
उसके टी वी
उसके और उसी का
अखबार उसी के
हिसाब से ही
बता सकता है
सरकार के आदमी
जगह जगह पर
लगे हुऐ हैं
सब के पास
छोटे बड़े कई तरह
के बिल्ले इफरात
में पड़े हुऐ हैं
किसी की पैंट
किसी की कमीज
पर सिले हुऐं है
थोड़े बहुत
बहुत ज्यादा बड़े
की कैटेगरी में आते हैं
उनके माथे पर
लिखा होता है
उनकी ही तरह के
बाकी लोग बहुत
दूर से भी बिना
दूरबीन के भी
पढ़ ले जाते हैं
ताली बजाने वालों
को ताली बजानी
आती है
ऊपर की मंजिल
खाली होने के
बावजूद छोटी सी
बात कहीं से भी
अंदर नहीं घुस पाती है
ताली बजाने से
काम निकल जाता है
सुबह की खबर में
क्या आता है और
क्या बताया जाता है
ताली बजाने के बाद
की बातों से किसी
को भी इस सब से
मतलब नहीं रह जाता है
‘उलूक’ अभी भी
सीख ले अपनी खबर
अपना अखबार
अपना समाचार
ही अपना हो पाता है
बाकी सब माया मोह है
फालतू में क्यों
हर खबर में तू
अपनी टाँग अढ़ाता है ।

चित्र साभार: clipartcana.com

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सोच तो सोच है सोचने में क्या जाता है और क्या होता है अगर कोई सोच कर बौखलाता है


अपने कुछ भी सोचे हुऐ पर
कुछ नहीं कह रहा हूँ

मेरे सोचे गये कुछ पर 

कुछ उसके अपने नजरिये से
सोच दिये गये पर 
कुछ सोच कर कहने की कोशिश कर ले रहा हूँ

बड़ी अजीब सी पहेली है

एक 
एक का अपना खुद का सोचना है

और दूसरा 
एक के कुछ सोचे हुऐ पर 
किसी दूसरे का कुछ भी सोच लेना है

अब कुछ सोच कर ही कुछ लिखा जाता है

बिना सोचे कुछ लिख लेने वाला होता भी है 
ऐसा सोचा भी कहाँ जाता है

कहने को तो 
अपनी सोच के हिसाब से
किसी पर भी कोई भी कुछ भी कह जाता है

दूसरा
उस हिसाब पर सोचने लायक भी हो
ये भी जरूरी नहीं हो जाता है

इसलिये
सोचने पर किसी के 
रोक कहीं लगाई भी नहीं जाती है 
सोच सोच होती है समझाई भी नहीं जाती है

अपनी अपनी सोच में 
सब अपने हिसाब से सोच ही ले जाते हैं

दूसरे की सोच से
सोचने वाले भी होते हैंं थोड़े कुछ
अजूबे होते भी हैं
और इसी दुनियाँ में पाये भी जाते हैं

‘उलूक’
तेरे सोच दिये गये कुछ पर
अगर कोई अपने हिसाब से कुछ सोच लेना चाहता है

तो वो जाने उसकी सोच जाने 
उसके सोचने पर
तू क्यों अपनी सोच की टाँग
घुसाना चाहता है

बिना सोचे ही कह ले जो कुछ कहना चाहता है

होना कुछ भी नहीं है कहीं भी
किसी की सोच में कुछ आता है या नहीं आता है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

कलियुगी गांंधियों का कारनामा बापू तू ना घबराना


टाँग अढ़ाना 
अब छोड़ दे पूरा का पूरा आदमी अढ़ा
खुद नहीं कर सकता है अगर किसी एक को मोहरा तू बना

मोहरा
हाथी 
घोड़ा या ऊँट में से कोई भी हो सकता है
प्यादों को एक आवाज में सजा या गजबजा सकता है 

प्यादे
नये 
जमाने की हवा खाये खिलखिलाये होते हैं
समझदारी से अपनी टाँगों का बीमा भी कराये होते हैं
टाँग अढ़ाने वाले को मुँह बिल्कुल नहीं लगाते हैं
पूरा फसाने वाले पर दिलो जान से कुर्बान बातों बातों में हो जाते हैं
मौज में आते हैं
तो कम्बल 
डाल कर फोटो भी खिंचवाने में जरा भी नहींं शर्माते हैं

टाँग अढा‌ने 
वाला तो 
बेचारा सतयुग से मार खाता ही आ रहा है
राम के जमाने में तो रावण मारा गया था
कलियुग में आकर राम ही खुद अपनी टाँग अढ़ा रहा है

सबको प्यार 
से समझाया जा रहा है
अभी भी वक्त है
थोड़ी 
समझदारी खरीद या लूट कर जा ले आ
जवान बंदरों की सेना ही बस अब बना
पुराने बंदरों को घर पर ही रहना है का नुस्खा जा थमा

हनुमान जी 
की 
फोटो बंटवा छपवा बिकवा राम को पेड़ पर चढ़ा
रावण के हाथ में एक आरी दे के आ

टाँग अढ़ाना 
बन्द कर पूरा अढ़ना सीख जा
नये जमाने का गांंधी तू ही कहलायेगा सब्र कर थोड़ा रुक जा

ताली बजवाना 
जारी रख हाथों को काम में ला
टाँग का भरोसा छोड़ दे मान भी जा मत अढ़ा।

 चित्र साभार: https://xioenglish.wordpress.com/