उलूक टाइम्स: कूड़ा
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सोमवार, 2 सितंबर 2013

कभी कुछ अच्छा सुनाई दे तो अच्छा कहा जाये

सुन 
कब तक शरम का लबादा ओढे़ तू रहेगा
बाप दादा के जमाने की सोच
कब जाकर के तू कहीं छोडे़गा

हमाम में भी कपडे़
पहन कर चला आता है
तरस आता है
तेरे जैसों की अक्ल पर कभी
ऊपर वाला भी
तेरे जैसों के लिये कहाँ तक करेगा
और क्या क्या कर के छोडे़गा

भूखों की भूख मान भी लेते हैं
तू रोटी दे कर मिटा ले जायेगा
नंगों को कपडे़ कुछ उड़ा कर भी आ जायेगा

पर बहुत कुछ होते हुऎ भी
अगर कोई भूखा और नंगा हो जायेगा
तो तू क्या कोई भी कहीं भी
ऎसों के लिये कुछ भी नहीं कर पायेगा

ऎसे में कैसे सोच लेता है तू
कभी एक अच्छा सा गीत
या गजल लिख ले जायेगा

किसी भी चोर से
पूछ के आजा आज भी जाकर
हर कोई अन्ना का रिश्तेदार
अपने को ही बतायेगा

तेरी तो उससे भी नहीं है कोई रिश्तेदारी
अंत में तू खुद ही
एक चोर साबित हो जायेगा

सबको नजर आती रहेंगी
तितलियाँ और फूल भी
बस एक तू ही 
अपना जैसा मौजू उठा के ले आयेगा

मान भी लेते हैं लिख लेगा
दो चार बेकार की बातों के कुछ पुलिंदे
पढ़ने को कौन आयेगा क्यों आयेगा
और आखिर कब तक आ पायेगा

लिखना पढ़ना तो 
बौद्धिक भूख मिटाने के लिये किया जाता है
ये किसने कह दिया
दिमाग में भरा गोबर भी
इसी में दिखा दिया जाता है

कभी किसी के लिये लडे़गा
कभी खुद से लडे़गा
कभी अपनों से लडे़गा
तू अपनी तलवार हवा में ही
इस तरह चलाता चला जायेगा

जिसके लिये लडे़गा
उसकी भी गालियाँ खायेगा
मौका मिलते ही
उसे भी रोटी में झपटता हुआ पायेगा

कुछ नहीं कह पायेगा 
यूँ ही बस झल्लायेगा

बहुत तेजी से बदल रही है भाई सभ्यता
इस बात को पता नहीं
कब तू समझ पायेगा

सिद्धांत किसी के नहीं होते हैं
आज के जमाने में
मौका मिलते ही हर कोई
समझौता कर ले जायेगा

मुझे पता है
तू कभी भी नहीं सुधर पायेगा
इन सब में से भी तुझे कूडे़दान में
कुछ कूड़ा भरने का मौका मिल जायेगा

सोच में रख लेना फिर भी अपनी
एक गीत और एक गजल को
क्या पता किसी दिन कुछ नहीं होगा कहीं
और शायद तुझसे
उस दिन कुछ नहीं कहा जायेगा ।

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

250 वीं पोस्ट

बात बात
पर 
कूड़ा 
फैलाने की
फिर उसको
कहीं पर

ला कर
सजाने की

आदत

बचपन से थी


बचपन में
समझ में

जितना
आता था


उससे ज्यादा
का कूड़ा
 
इक्कट्ठा
हो जाता था


आसपास
परिवार
अपना
होता था


वही
रोज का रोज

उसे उठा
ले जाता था


दूसरे दिन
कूड़ा फैलाने

के लिये
फिर वही

मैदान
दे जाता था


कूड़ा
 था
कहाँ कभी

बच पाता था
जमा ही नहीं
कभी हो
पाता था


जवानी आई
कूड़े का

स्वरूप
बदल गया


सपनों के
तारों में

जाकर
टंकने लगा


एक तारा
उसे
आसमान

में ले कर
जाता था


एक तारा
टूटते हुऎ

फिर से उसे
जमीन पर

ले कर
आता था


सब उसी
तरह से

फिर से
बिखरा बिखरा

कूड़ा
हो जाता था


कितना भी
सवाँरने की

कोशिश करो

कहीं ना कहीं

कुछ ना कुछ
कूड़ा 
हो ही
जाता था


कूड़ा लेकिन
फिर भी

जमा नहीं
हो पाता था


अब याद भी
नहीं आता

कहाँ कहाँ
मैं जाता था


कहाँ का
कूड़ा लाता था

कहाँ जा कर उसे
फेंक कर आता था

बचपन से
शुरु होकर

अब जब
पचपन की

तरफ भागने लगा

हर चीज
जमा करने

का मोह
जागने लगा


कूड़ा
जमा होना
शुरू हो गया


रोज का रोज

अपने घर का 
उसके
आसपास का

बाजार का
अपने शहर का

सारे समाज का
कूड़ा देख देख
कर आने लगा

अपने अंदर
के कूडे़ को

उसमें
थोड़ा थोड़ा

दूध में पानी
की तरह

मिलाने लगा

गुलदस्ते
बना बना के

यहाँ पर
सजाने लगा


होते होते
बहुत हो गया


एक दो
करते करते

आज कूड़ा
दो सौ पार कर

दो सौ पचासवाँ
भी हो गया ।