दिग्विजय जी के 'उलूक' की पिछली बकबक पर पूछे गये प्रश्न का ‘उलूकोत्तर’ |
रहता है
हमेशा
‘उलूक’
आप का
आप
आ ही
जाते हैं
बकवास है
मानते भी हैं
फिर भी
उकसाने को
कवि का
तमगा
टिप्पणी में
चिपका ही जाते हैं
खुद ही
प्रश्नों में
उलझे हुऐ
एक प्रश्न
के सर पर
एक फूल
प्रश्न का
आकर
आप भी
चढ़ा जाते हैं
सोचते
भी नहीं
जरा सा भी
राजाओं
की छोटी
रियासतों में
आज भी लोग
आसरा पाते हैं
चरण वन्दना
पूजन करने पर
उनके हालात
सुधारे जाते हैं
राजा
तब भी
राजा होते थे
आज भी
राजा ही होते हैं
बस राजा
कहलाने में
कुछ जतन
कुछ परहेज
कर जाते हैं
रियासतें
तब भी होती थी
किले आज भी
बनाये जाते हैं
पहले
दिखता था
सब कुछ
अपनी
आँखों से
आज
किसी के
आभासी चश्में
प्रसाद मान
आँखों में
चढ़ाये जाते हैं
राजा का
देखा ही
सबको
दिखता है
काज
अपनी आँखों
से दिखा कर
करने वाले ही
राजा
कहलाये जाते हैं
आप भी
सोचिये
कुछ
राज काज की
काहे
खाजा की
चिन्ता में
अपनी नींद
अपना चैन
उड़ाये जाते हैं
घनतेरस
मनाइये मौज से
मंगल कामनाएं
हम ले के आते हैं
खाजा को
खाजा क्यों
कहते हैं पर
काहे ध्यान
भटकाते हैं
राजा का
बाजा सुनिये
गली मोहल्ले
शहर रास्ते
पौं पौं पौं
चिल्लाते हैं
राजा राजा
राग अलापते
राष्ट्रभक्त
होये जाते हैं
काहे
ग़ंगा में
नहाने का
ऐसा शुभ
मौका गवातें है
खाजा
को खाजा
क्यों कहते हैं
सोच सोच कर
सोये जाते हैं ।
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