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बुधवार, 10 मार्च 2021

और खड़ा हो लेता है प्रतियोगिता में विद्वानों के साथ

 

किसलिये समझा रहे हो

मुझे 
पता है मुझे भी मरना ही है

लेकिन मैं आपके कहने पर
मौत को गले नहीं लगा सकता हूं

मैं मरूँगा 
तो गुरु जी के कहने पर ही 
मरूँगा

गुरु जी
मरने के रास्ते समझाने के लिये प्रसिद्ध हैं

फिर किसलिये
आप जैसे नये नवेले से सीखना मरना
 
मुझे भी तो
वैसे भी मरना ही है कभी ना कभी 

और मुझे ये भी पता है
कि मैं एक मेमना हूँ
और वो एक भेड़िया है

तुम्हें क्या परेशानी है
एक मेमने के 
भेड़िये के साथ प्रेमालाप करने से

जमाना बदल रहा है और भेड़िया भी
जमाने के हिसाब से

भेड़िया
अब कार में नहीं दिखता 
है कभी
उसकी कार घर में खड़ी रहती है

भेड़िया
अब पैदल चलता है देखते क्यों नहीं हो 

तुम्हें भी
जमाने के हिसाब से
बदलना जरूरी है

मेमने के बारे में किसलिये सोचते हो
भेड़िये को देखो ध्यान मत भटकाओ

लिखना लिखाना ठीक है
लिखा हुआ अगर कविता हो गया
तो उस से ब‌ड़ा शाप नहीं हो सकता है

बकवास करने के कुछ नुकसान
कविता हो जाना भी है
दीवार में खींची हुई  कुछ लकीरों के

और इसी तरह के
कुछ लिखे लिखाये से प्रश्न उठना शुरु होते हैं

कोई कुछ भी लिख देता है
और खड़ा हो लेता है
प्रतियोगिता में विद्वानों के साथ।

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

शनिवार, 18 जुलाई 2020

जमाने को पागल बनाओ


दूर कहीं आसमान में
 उड़ती चील दिखाओ 

कुछ हवा की बातें करो
कुछ बादलों की चाल बताओ

कुछ पुराने सिक्के घर के
मिट्टी के तेल से साफ कर चमकाओ

कुछ फूल कुछ पौंधे
कुछ पेंड़ के संग खींची गयी फोटो
जंगल  हैंं बतलाओ

तुम तब तक ही लोगों के
समझ में आओगे
जब तक तुम्हारी बातें
तुम्हें खुद ही समझ में नहीं आयेंगी
ये अब तो समझ जाओ 

जिस दिन करोगे बातें
किताब में लिखी
और
सामने दिख रहे पहाड़ की

समझ लो कोई कहने लगेगा
आप के ही घर का

क्या फालतू में लगे हो
जरा पन्ने तो पलटाओ

कुछ रंगीन सा दिखाओ
कुछ संगीत तो सुनाओ

नहीं कर पा रहे हो अगर

एक कनिस्तर खींच कर
पत्थर से ही बजा कर टनटनाओ

जरूरी नहीं है
बात समझ में ही आये समझने वाली भी
पढ़ने सुनने वाले को
जन गण मन साथ में जरूर गुनगुनाओ

जरूरी नहीं है
उत्तर मिलेंं नक्कारखाने की दीवारों से
जरूरी प्रश्नों के
कुछ उत्तर कभी
अपने भी बना कर भीड़ में फैलाओ

लिखना कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
नजर रखा करो लिखे पर

कुछ नोट खर्च करो
किताब के कुछ पन्ने ही हो जाओ

‘उलूक’
चैन की बंसी बजानी है
अगर इस जमाने में

पागल हो गया है की खबर बनाओ
जमाने को पागल बनाओ।

चित्र साभार:
http://www.caipublishing.net/yeknod/introduction.html

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

प्रश्न अच्छे हों लिखते चले जायें सौ हो जायें किताब एक छपायें



रात की
एक बात

और
सुबह के
दो
जज्बात 


पता नहीं
कौन

कहाँ से

कौन सी
कौड़ी
ढूँढ कर
कब
ले आये 


बस
पन्ने पर
चिपका हुआ

कुछ
नजर आये 

नजर
छ: बटा छ:
हो

जरूरी नहीं

कौड़ी 

कौआ
या
कबूतर
हो जाये 

असम्भव
भी नहीं

उड़ ही जाये 

जो भी है

कुछ देर
ठहर लें 

गीले
जज्बातों को
 सुखाने
के लिये

और
सूखों के

कुछ
नमीं
पी जाने के लिये

बात का
क्या है
निकलती है 

दूर तलक
जाये या ना जाये

या

फिर
लौट कर

अपनी जगह
पर
आ जाये

नियम
की किताब

पर
बने सौ आने

कोई
भी बनाये

खुद भी पढ़े
ढेर सारी बटें

बरगद की
लटों की तरह
फैलती
चली जायें

सबके पास
अपनी अपनी
कम से कम
एक
हो जायें

फिर
चाहे
नाक की
सीध पर

बिना
इधर उधर देखे

सामने
की ओर
कहीं
निकल जाये

बीच बीच
में
जाँच लिया जाये

किताब
रखी है पास
में

या
घर तो
नहीं भूल आये 

बात
का क्या है
लिख लिया जाये

अपनी
किताब में
अपना
हिसाब हो जाये

जज्बात
अपने आप
निकलेंं

कलम
से
निकल
कागज
पर
फैल जायेंं

प्रश्न
सूझने जरूरी हैं
बूझने भी

कभी

मन करे

पूछ्ने

निकल कर
खुले मैदान में
आ जायें

‘उलूक’
के
लिखे लिखाये
में

बात कोई
जज्बात
जैसी
नजर आ जाये

और
उसपर
अगर

समझ
में भी
आ जाये

गलती
हो गयी होगी

मान कर
भूल जायें

प्रश्न चिन्ह
ना लगायें।

चित्र साभार: https://airjordanenligen2015.com

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

कहाँ आँखें मूँदनी होती हैं कहाँ मुखौटा ओढ़ना होता है तीस मार खान हो जाने के बाद सारा सब पता होता है

फर्जी
सकारात्मकता
ओढ़ना सीखना

जरूरी होता है

जो
नहीं सीखता है

उसके
सामने से

खड़ा
हर बेवकूफ

उसका
गुरु होता है

सड़क
खराब है
गड्ढे पड़े हैं

कहना
नहीं होता है

थोड़ी देर
के लिये
मिट्टी भर के

बस
घास से
घेर देना
होता है

काफिले
निकलने
जरूरी होते हैं

उसके बाद

तमगे
बटोरने
के लिये

किसी
नुमाईश में

सामने से
खड़ा होना
होता है

हर जगह
कुर्सी
पर बैठा

एक मकड़ा

जाले
बुन
रहा होता है

मक्खियों
के लिये काम

थोड़ा थोड़ा

उसी के
हिसाब से

बंटा हुआ
होता है

पूछने वाले

पूछ
रहे होते हैं

अन्दाज
खून चूसे 
गये का 

किसलिये

मक्खियों को
जरा सा भी

नहीं
हो रहा
होता है

प्रश्न
खुद के
अपने

जब
झेलना

मुश्किल
हो रहा
होता है

प्रश्न दागने
की मशीन

आदमी
खुद ही
हो ले रहा
होता है

कुछ
नहीं कहना

सबसे अच्छा

और बेहतर
रास्ता होता है

बेवकूफों के

मगर
ये ही तो

 बस में
नहीं होता है

हर
होशियार

निशाने पर

तीर मारने
के लिये

धनुष

खेत में
बो रहा
होता है

किसको
जरूरत
होती है

तीरों की

अर्जुन
के नाम के

जाप करने
से ही वीर
हो रहा होता है

काम
कुछ भी करो

मिल जुल कर
दल भावना
के साथ
करना होता है

नाम
के आगे
अनुलग्न
लगा कर

साफ साफ
नंगा नहीं
होना होता है

‘उलूक’

जमाना
बदलते हुऐ

देखना
भी होता है

समझना
ही होता है

पता करना
भी होता है

कहाँ

आँखें
मूँदनी
होती हैं

कहाँ

मुखौटा
ओढ़ना
होता है ।

चित्र साभार: www.exoticindiaart.com

सोमवार, 5 नवंबर 2018

खाजा को खाजा क्यों कहते हैं पूछ कर राजा से ध्यान भटकाते हैं

दिग्विजय जी के 'उलूक' की
पिछली बकबक 
पर पूछे गये प्रश्न का ‘उलूकोत्तर’

आभारी 
रहता है
     हमेशा

‘उलूक’
आप का

आप
आ ही
जाते हैं

बकवास है
मानते भी हैं

फिर भी
उकसाने को

कवि का
तमगा
टिप्पणी में
चिपका ही जाते हैं

खुद ही
प्रश्नों में
उलझे हुऐ
एक प्रश्न
के सर पर

एक फूल
प्रश्न का
आकर
आप भी
चढ़ा जाते हैं

सोचते
भी नहीं
जरा सा भी

राजाओं
की छोटी
रियासतों में
आज भी लोग
आसरा पाते हैं

चरण वन्दना
पूजन करने पर
उनके हालात
सुधारे जाते हैं

राजा
तब भी
राजा होते थे

आज भी
राजा ही होते हैं

बस राजा
कहलाने में
कुछ जतन
कुछ परहेज
कर जाते हैं

रियासतें
तब भी होती थी
किले आज भी
बनाये जाते हैं

पहले
दिखता था
सब कुछ
अपनी
आँखों से

आज
किसी के
आभासी चश्में

प्रसाद मान
आँखों में
चढ़ाये जाते हैं

राजा का
देखा ही
सबको
दिखता है

काज
अपनी आँखों
से दिखा कर
करने वाले ही

राजा
कहलाये जाते हैं

आप भी
सोचिये
कुछ
राज काज की

काहे
खाजा की
चिन्ता में
अपनी नींद
अपना चैन
उड़ाये जाते हैं

घनतेरस
मनाइये मौज से
मंगल कामनाएं
हम ले के आते हैं

खाजा को
खाजा क्यों
कहते हैं पर
काहे ध्यान
भटकाते हैं

राजा का
बाजा सुनिये
गली मोहल्ले
शहर रास्ते
पौं पौं पौं
चिल्लाते हैं

राजा राजा
राग अलापते
राष्ट्रभक्त
होये जाते हैं

काहे
ग़ंगा में
नहाने का
ऐसा शुभ
मौका गवातें है

खाजा
को खाजा
क्यों कहते हैं
सोच सोच कर
सोये जाते हैं ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

रविवार, 3 दिसंबर 2017

कभी कुछ भैंस पर लिख कभी कुछ लाठी पर भी

कभी सम्भाल
भी लिया कर
फुरसतें

जरूरी नहीं है
लिखना ही
शुरु हो जाना

खाली पन्नों को
खुरच कर इतना
भी कुरेदना
ठीक नहीं

महसूस नहीं
होता क्या
बहुत हो गया
लिखना छोड़
कभी कुछ कर
भी लिया जाये

पन्ने के
ऊपर पन्ना
पन्ने के
नीचे पन्ना
आगे पन्ना
पीछे पन्ना
कोई नहीं
पूछने वाला
कितने
कितने पन्ने

गन्ने के खेत में
कभी गिने हैं
खड़े होकर गन्ने

नहीं गिने
हैं ना
कोई नहीं
गिनता है

गन्ने की
ढेरियाँ होती हैं
उसमें से गुड़
निकलता है

पन्ने गिन
या ना गिन
ढेरियाँ पन्नों की
लग कर गन्ने
नहीं हो
जाने वाले हैं

कुछ भी
नहीं निकलने
वाला पन्नों से
निचोड़ कर भी

किताब जरूर
बना ले जाते हैं
किताबी लोग

किताबों से
दुकान बनती है

इस दुकान से
उस दुकान
किताबों के
ऊपर किताब
किताबों के
नीचे किताब
इधर किताब
उधर किताब
हो जाती हैं

किताबों की
खरीद फरोख्त
की हिसाब
की किताब
कई जगह
पायी जाती है

रोज की
कूड़ेदान से
निकाल धो
पोंछ कर
परोसी गयी
खबरों से
इतिहास नहीं
बनता है बेवकूफ

समझता
क्यों नहीं है
इतिहास
भैंस हो
चुका है
लाठी लिये
हाँकने भी
लगे हैं लोग

अभी भी वक्त है
सुधर जा ‘उलूक’

कुछ भैंस
पर लिख
कुछ लाठी पर
और कुछ
हाकने वालों
पर भी

आने वाले
समय के
इतिहास के
प्रश्न पत्र
उत्तर लिखे हुऐ
सामने से आयेंगे

परीक्षा देने वाले
से कहा जायेगा
दिये गये उत्तरों
के प्रश्न बनाइये
और अपने
घर को जाइये।

चित्र साभार: www.spectator.co.uk

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

डाकिया डाकखाना छोड़ कर चिट्ठियाँ खुले आम खुले में खोल कर दिखा रहा है

शेरो शायरी
बहुत हो गयी
मजा उतना
नहीं आ रहा है

सुना है फिर से
चिट्ठियाँ लिखने
का चलन लौट
कर वापस
आ रहा है

कागज
कलम दवात
टिकट लिफाफे
के बारे में
पूछ रहा है कोई

कई दिनों से
इधर और उधर
के डाकखानों के
चक्कर लगा रहा है

चिट्ठियाँ
लिखना भेजना
डाकिये का पता
देख कर किसी
का घर ढूँढना
कितना होम वर्क
किया जा रहा है

बहुत जरूरी था
चिट्ठी लिखना
लिखवाना
समझ में भी
आ रहा है

फेस बुक
व्हाट्स अप
में अच्छी
तरह से
नहीं पीटा
जा रहा है

चिट्ठियाँ लिखी
जा रही हैं
उसके लिये
मुहूरत भी
निकाला
जा रहा है

बहस
नहीं होनी
चाहिये किसी मुद्दे पर
किसी विशेष दिन
समझ में आ रहा है

ध्यान भटकाना है
मुद्दे और दिन से
चिट्ठी लिखने की
सुपारी को

चिट्ठी
लिखवाने वाला
लिखने वाले
को उसी दिन
भिजवा रहा है

प्रेम पत्र नहीं
सरकारी
पत्र नहीं
कुशल क्षेम
पूछने में
शरमा रहा है

चिट्ठी प्यार का
संदेश नहीं
प्रश्नों का पुलिंदा
बनाया जा रहा है

चिट्ठी
लिख रहा है
लिखने वाला
लिफाफे में
बन्द कर
टिकट नहीं
लगा रहा है

डाकखाना
डाकिया की
बात कौन
किस से पूछे
‘उलूक’

लिखवाने वाला
गली मोहल्ले
सड़क की
दीवार पर
चिपका रहा है ।

चित्र साभार: Pinterest

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

बेवकूफ हैं तो प्रश्न हैं उसी तरह जैसे गरीब है तो गरीबी है



जब भी कहीं कोई प्रश्न उठता है 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कहता है 

प्रश्न तभी उठता है 
जब उत्तर नहीं मिलता है 

एक ही विषय होता है 
सब के प्रश्न
अलग अलग होते हैंं 

होशियार के प्रश्न 
होशियार प्रश्न होते हैंं 
और 
बेवकूफ के प्रश्न 
बेवकूफ प्रश्न होते हैं 

होशियार 
वैसे प्रश्न नहीं करते हैं 
बस प्रश्नों के उत्तर देते हैं 

बेवकूफ 
प्रश्न करते हैं 
फिर उत्तर भी पूछते हैं 
मिले हुऐ उत्तर को 
जरा सा भी नहीं समझते है 

समझ गये हैं 
जैसे कुछ का 
अभिनय करते हैं 
बहस नहीं करते हैं 

मिले हुए उत्तर के चारों ओर 
बस सर पर हाथ रखे 
परिक्रमा करते हैं 

समय भी प्रश्न करता है समय से 
समय ही उत्तर देता है समय को 

समय होशियार और बेवकूफ नहीं होता है 
समय प्रश्नों को रेत पर बिखेर देता है 

बहुत सारे 
रेत पर बिखरे हुऐ प्रश्न 
इतिहास बना देते हैं 

रेत पानी में बह जाती है 
रेत हवा में उड़ जाती है 
रेत में बने महल ढह जाते हैं 
रेत में बिखरे रेतीले प्रश्न 
प्रश्नों से ही उलझ जाते हैं 

कुछ लोग 
प्रश्न करना पसन्द करते हैं 
कुछ लोग उत्तर के डिब्बे 
बन्द करा करते हैं 

बेवकूफ 
‘उलूक’ 
की आदत है जुगाली करना 
बैठ कर कहीं ठूंठ पर 
उजड़े चमन की 
जहाँ हर तरफ उत्तर देने वाले 
होशियार 
होशियारों की टीम बना कर 
होशियारों के लिये 
खेतों में हरे हरे 
उत्तर उगाते हैं 

दिमाग लगाने की ज्यादा जरूरत नहीं है 
देखते रहिये तमाशे 
होशियार बाजीगरों के
घर में बैठे बैठे 

बेवकूफों के खाली दिमाग में उठे प्रश्न 
होशियारों के उत्तरों का कभी भी 
मुकाबला नहीं करते हैं । 

चित्र साभार: Fools Rush In

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ प्रश्नों की जवाब हो जाये कोई कुछ पूछ भी ना पाये

छोटे छोटे
अपने आस
पास के
उलझे प्रश्नों
से उलझते
उलझते
हमेशा
उलझ जाने
वाले को
सुलझने
सुलझाने
के सपने
देख लेने
की आदत
डाल लेनी
ही चाहिये

बड़े देश
के बड़े
प्रश्नों को
उठाने
वालों को
थोड़ी सी
ही सही
शरम तो
आनी ही
चाहिये

अच्छा होता है
प्रेस काँफ्रेंस
के उत्तरों को
सुन कर
मनन कर
कंठस्थ
कर लेना
या
उठा लेना
जवाब
कहीं किसी
किताब
अखबार
या रद्दी की
टोकरी से
और
फिर शुरु
कर देना
खोलना
दुकान पर
दुकान
जवाबों की
इस गली
से लेकर
उस गली तक

प्रश्न उठे
कहीं से भी
उसके उठने
से पहले
दाग देना
ढेर सारे
जवाब

इतने जवाब
की दब दबा
कर मर ही
जायेंं सारे
प्रश्न घुट
घुट कर

मर जाने
के बाद भी
सुनिश्चित
कर लिया
जाये
ठोक कर
दो चार
और
जवाब
ऊपर से
ताकि
एन्काउंटर
पूरा हो जाये

फिर भी
बच जाये
जो बेशरम
प्रश्न इतना
सब होने
के बाद भी

उसे जवाबों
से घेर कर
इतना बेइज्जत
कर दिया जाये
कि कर ले जाये
कहीं भी जा
कर आत्महत्या
इस तरह कि
मरते मरते
खुद ही एक
जवाब हो जाये

प्रश्न की मौत
का मातम ही
जवाबों का
जश्न हो जाये

‘उलूक’
भूल से
भी ना
कह पाये
नहीं आया
समझ में
जवाब

जो सुने
जैसा सुने
जिधर से
सुने बस
ऊपर से
नीचे और
नीचे से
ऊपर की
तरफ हाँ
हाँ की
गरदन
हिलाये
बिना
पलकें
झपकाये ।

चित्र साभार: CartoonStock

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

प्रश्न हैं बने बनाये हैं बहुत हैं फिर किसलिये नये ढूँढने जाता है

प्रश्न उठना और
उठते प्रश्न को
तुरंत पूछ लेना
बहुत अच्छी बात है
लेकिन
किसी के लिये
समझना जरूरी है
किसी के लिये
बस एक मजबूरी है
प्रश्न कब पूछा जाये
किस से पूछा जाये
क्यों पूछा जाये
सबसे बड़ी बात
यह देखना
पूछने के लिये
उठे प्रश्न की
क्या औकात है
वैसे जैसा
साफ नजर आता है
पूछे गये प्रश्न से
पता चल जाता है
प्रश्न नियत होते हैं
उत्तर नियत होते हैं
प्रश्न पूछने वाले
नियत होते हैं
उत्तर देने वाले
नियत होते है
बस थोड़े से कुछ
दो चार बेवकूफ
सब कुछ समझते
बूझते हुऐ एक दूसरे
के साथ प्रश्नों की
अंताक्षरी फिर भी
खेल रहे होते हैं
रोज ही दूरदर्शन
में दूर से दर्शन होते है
बहस के लिये
हर तरफ की तरफ से
अपने अपने मुर्गे
खड़े किये होते हैं
किसी की कलगी
रंगीन होती है
किसी किसी ने
रामनामी दुपट्टे
ओढ़े हुऐ होते हैं
मुरगे लढ़ाने वाला
परदे के पीछे से
कहीं किसी अदृष्य
धागे से बंधा होता है
सामने से मगर
कठपुतलियों को
घो रहा है का जैसा
आभास दे रहा होता है
उसे पता होता है
वो खुद भी एक
कठपुतले के
हाथों खेल रहा
कठपुतला होता है
प्रश्न उठाये कोई
अपने आस पास से
एक नहीं अनेक
पड़े होते है
लेकिन प्रश्न पूछने
वाले हजार मील
दूर के पत्थर को
देख रहे होते हैं
अपना कुछ अपनी
सोच से बने वो
जमाने लद रहे होते हैं
 समय की बलिहारी है
ऐसे समय में गधे सारे
अपने अपने गधों की
लीद कुरेद रहे होते हैं
अपने गधे की लीद
की खुश्बू के नशे में
इतना झूम रहे होते हैं
सावन के सारे अंधे
जैसे हरी घास के
ढेर पर कूद रहे होते हैं
‘उलूक’
नोच सकता है
तू भी जितना
नोच ले प्रश्नों को
प्रश्नों के कपड़े
वैसे भी नहीं होते हैं
अपने आस पास से
उठे प्रश्नों पर आँख मूँद
और पूछ कहीं
आसमान के
नीले रंग पर
या सुबह की
सुर्ख धूप पर
या कुछ और
वो सब
जो भी तुझे
प्रश्न पूछना
सीखे  हुऐ
लोगो द्वारा
तुझसे पूछने
के लिये
सुझाया जाता है
आसपास के
ज्वलंत प्रश्नों से
जल जाने से अच्छा
किसी का सुझाया
किसी का बताया
प्रश्न पूछने से
साँप को मारना
और लाठी को टूटने
से बचाना भी सीखा
सिखाया जाता है
सबक भी मिलता है
बहुत दूर का
पूछा गया एक
छोटा सा प्रश्न
हमेशा अपने घर के
बड़े बड़े निरुत्तर
कर देने वाले प्रश्नो से
बचाना भी सिखाता है ।

 चित्र साभार: worldartsme.com

शनिवार, 7 नवंबर 2015

किसी के पढ़ने या समझने के लिये नहीं होता है लक्ष्मण के प्रश्न का जवाब होता है बस राम ही कहीं नहीं होता है

क्या जवाब दूँ
मैं तुझे लक्ष्मण
मैं राम होना भी
नहीं चाहता हूँ
आज मेरे अंदर
का रावण बहुत
विकराल भी
हो  गया है
और मुझे राम से
डर लगने लगा है
राम आज मुझे
पल पल हर पल
नोच रहा है
किस से कहूँ
नहीं कह सकता
राम राम है
जय श्री राम है
मेरा ही राम है
लक्ष्मण तुम को
शक्ति लगी थी
और तुम्हारे पास
प्रश्न तब नहीं थे
अब हैं बहुत हैं
लक्ष्मण तुम और
तुम्हारे जैसे और
कई अनगिनत
अभिमन्यू हैं
जो तीर नहीं हैं
पर चढ़ाया गया है
जिन्हे कई बार
गाँडीव पर अर्जुन ने
तुम्हें समझा बुझा कर
तुम बने भी हो तीर
चले भी हो तीर
की तरह कई बार
इतना बहुत है कि
आज के जमाने में
कोई ना मरता है
ना घायल होता है
तुम्हारे जैसे तीरों से
कायरों के टायरों पर
सड़क के निशान
नहीं पड़ते हैं लक्ष्मण
रोज बहुत लोगों के
अंदर कई राम मरते हैं
कोई नहीं बताता है
किसी से कुछ नहीं
कह पाता है
बहुत बैचेनी होती है 

और तुम भी पूछ बैठे
ऐसे में ऐसा ही कुछ
और पता चला
आजकल राम
तुम्हारे साथ भी
वही करता है जो
सभी के साथ
उसने हमेशा से किया है
सभी को राम से प्रेम है
सभी को जय श्री राम
कहना अच्छा लगता है
कोई खेद नहीं होता है
राम राम होता है लक्ष्मण
प्रश्न करना हमेशा
दर्दमय होता है
उत्तर देना उस से भी
ज्यादा दर्द देता है
जब प्रश्न अलग होता है
राम अलग होता है
और पूछने वाला
लक्ष्मण होता है ।

 चित्र साभार: forefugees.com

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com

रविवार, 5 जुलाई 2015

कागज कलम और दवात हर जगह नहीं पाया जाता है

लिखा जाये
फिर
कुछ
खुशबू
डाल कर
महकाया
जाये

किसलिये
और क्यों
लिखा जाये
उसके जैसा
जिसके लिखे
में से 
खुशबू 
भी आती है

लिखे में
से
खुशबू  ?

अब आप
को भी
लग
रहा होगा

लिखने वाला
ही है
रोज का

आज शायद
ज्यादा ही
कुछ सनक
गया होगा

सनक तो
होती ही है
किसी को
कम होती है
किसी को
ज्यादा
होती है

कोई
आसानी से
मान लेता है
पूछते ही
क्या
सनकी हो
तुरंत ही
अपने दोनो
हाथ खड़े
कर लेता है

कोई ज्यादा
सनक जाता है
सनक ही
सनक में
ये भी
भूल जाता है
कि है
कि नहीं है

किसी के
पूछते ही
सनकी हो
कि नहीं हो
भड़भड़ा कर
भड़क जाता है

असली
लेखक
और
लेखक
हो रहे
लेखक का
थोड़ा सा
अंतर इसी
जगह पर
नहीं लिखने
पढ़ने वाला
बस
एक प्रश्न
बिना बंदूक
के दाग कर
पता कर
ले जाता है

होता
वैसे कुछ
नुकसान
जैसा
किसी को
कहीं देखा
नहीं जाता है

पूछने वाला
मुस्कुरा कर
पीछे लौट
जाता है

सनकी
अपनी
सनक
के साथ
व्यवस्था
में पुरानी
अपनी ही
बनी बनाई
में लगने
लगाने में
फिर से
लग
जाता है

यही
कारण है
कागज
कलम
और
दवात
हर जगह
नहीं पाया
जाता है ।

चित्र साभार: www.unwinnable.com

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं

मत पूछ लेना
कि क्या हुआ है
अरे कुछ भी
नहीं हुआ है
जो होना है वो तो
अभी बचा हुआ है
हो रहा है बस
थोड़ा धीरे धीरे
हो रहा है
इस सब के
बावजूद भी कहीं
एक बेवकूफी
भरा सवाल
मालूम है
तेरे सिर में
कहीं उठ रहा है
अब प्रश्न उठते ही हैं
साँप के फन की तरह
पर सभी प्रश्न
 जहरीले नहीं होते हैं
हाँ कुछ प्रश्नों के
सिर और पैर
नहीं होते हैं
और कुछ के नाखून
नहीं होते हैं
खून निकला नहीं
करता है जब
प्रश्न ही प्रश्न को
खरोंच रहे होते हैं
वैसे ज्यादातर प्रश्नों
के उत्तर पहले से ही
कहीं ना कहीं
किताबों में लिखे होते हैं
और बहुत ज्यादा
पढ़ाकू टाईप के लोग
एक ना एक किताब
कहीं अपनी किसी
चोर जेब में लिये
घूम रहे होते हैं
बहुत भरोसे से
कह रहे होते हैं
प्रश्न और उत्तर
उनके भरोसे से ही
किताबों के किसी
पन्ने में रह रहे होते हैं
हँसी आ ही जाती है
कभी हल्की सी
बेवकूफी भरी
किसी किनारे से मुँह के
जब कभी किसी समय
हड़बड़ी में पढ़ाकू लोग
अपनी अपनी किताब
निकालने से परहेज
कर रहे होते हैं
प्रश्न कुछ आवारा से
इधर से उधर और
उधर से इधर
उनके सामने से ही
जब गुजर रहे होते हैं
समझने वाले
समझ रहे होते हैं
नासमझ कुछ
इस सब के बाद भी
प्रश्न कुछ नये तैयार
करने के लिये
अपनी अपनी किताब के
पन्ने पलट रहे होते हैं ।

चित्र साभार:
backreaction.blogspot.com  

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

गुलामी से आजादी तक का सवाल आजादी से आजादी तक हर तरफ उत्तर प्रश्नो का अकाल

कुछ अलग
ही अहसास
आज का
विशेष दिन

कुछ आजाद
आजाद से
हो रहे हों जैसे
सुबह सुबह से ही कुछ खयाल

उत्पाती बंदरों
का पता नहीं
कहीं दूर दूर तक

रोज की तरह
आज नहीं पहुँचे
घर पर करने

हमेशा की
तरह के
आम आदमी
की आदत में
शामिल हो चुके धमाल

शहर के स्कूल
के बच्चों की
जनहित याचिका
बँदरो के खिलाफ

असर दो दिन में
न्यायाधीश भी
बिना सोचे
बिना समझे
कर गया हो जैसे ये एक कमाल

दिन आजाद
गणों के तंत्र की
आजादी के
जश्न का

जानवर भी
हो गया
समझदार

दे गया
उदाहरण
इस बात का
करके गाँधीगिरी
और नहीं करके
एक दिन के लिये कोई बबाल

साँप सपेरों
जादूगरों
तंत्र मंत्र के
देश के गुलाम

आजादी के
दीवानों को ही
होगा सच में पता

बंद रेखा के
उस पार से
खुली हवा में
आना इस पार

जानवर से
हो जाना ग़ण
और मंत्र का
बदलना तंत्र में
और आजाद देश
मे आजाद ‘उलूक’ एक बेखयाल

उसके लिये
आजादी का
मतलब

बेगानी शादी और
दीवाना अब्दुल्ला हर एक नये साल

एक ही दाल
धनिये के
पीले पत्तों
को सूँघ कर
देख लेना होते हुऐ
हर तरफ माल और हर कोई मालामाल

बंदों का वंदे मातरम
तब से अब और
बंदरों का सवाल
तब के और अब के

समझदार को
इशारा काफी
बेवकूफों के लिये
कुर्सियाँ सँभाल

वंदे मातरम से
शुरु कर
घर की माँ को
धक्के मार कर घर से बाहर निकाल ।

चित्र साभार: nwabihan.blogspot.com

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

“जीवन कैसा होता है” अभी कुछ भी नहीं पता है सोचते ही ऐसा कुछ आभास हो जाता है

बिना
सोचे समझे
कुछ पर
कुछ भी
लिख देने
की आदत

लिख भी
दिया जाता है
कुछ भी

बात अलग है

कुछ दिनों बाद

फिर से
बार बार
कई बार
पढ़ने पर
उस कुछ को

खुद को भी
कुछ भी
समझ में
नहीं आता है

किसी को
लगने लगता है
शायद

सरल नहीं
कुछ गूढ़
कहा जाता है

कौऐ पर
मोर पंख
लगा दिया जाये
तो ऐसा ही
कुछ हो जाता है

और ऐसे में
अनजाने में
उससे पूछ
लिया जाता है
ऐसा प्रश्न
जिसे समझने
समझने तक
अलविदा कहने का
वक्त हो जाता है

और प्रश्न
प्रश्न वाचक चिन्ह
का पहरा
करते हुऐ जैसे
कहीं खड़ा रह जाता है

“जीवन कैसा होता है ?”
कुछ कहीं सुना हुआ
जैसा कुछ ऐसा
नजर आता है

जिसपर सोचना
शुरु करते ही
सब कुछ
उल्टा पुल्टा
होने लग जाता है

कुछ दिमाग में
जरूर आता है
थोड़ी सी रोशनी
भी कर जाता है

फिर सब वही
धुँधला सा
धूल भरा
नीला आसमान
भूरा भूरा हो जाता है

बताया भी
नहीं जाता है
कि सामने से कभी
एक परत दर परत
खुलता हुआ प्याज
आ जाता है

कभी
एक साबुन
का हवा में
फूटता हुआ
बुलबुला हो जाता है

कभी
भरे हुऐ पेटों
के द्वारा
जमा किया हुआ
अनाज की बोरियों का
जखीरा हो जाता है

क्या क्या नहीं
दिखने लगता है
सामने सामने

एक मरे शेर का
माँस नोचते कुत्तों
पर लगा सियारों का
पहरा हो जाता है

अरे
नहीं पता चल
पाया होता है
कुछ भी
‘उलूक’ को
एक चौथाई
जिंदगी गुजारने
के बाद भी

एक तेरे प्रश्न से
जूझते जूझते
रात पूरी की पूरी

अंधेरा ही
अंधेरे पर
सवार होकर
जैसे सवेरा
हो जाता है

फिर कभी
देखेंगे पूछ कर
किसी ज्ञानी से
“जीवन कैसा होता है”

सभी प्रश्नों का
उत्तर देना
किस ने कह दिया
हर बार बहुत ही
जरूरी हो जाता है

पास होना ठीक है
पर कभी कभी
फेल हो जाना भी
किसी की एक बड़ी
मजबूरी हो जाता है ।

चित्र साभार: http://ado4ever.overblog.com/page/2

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

जिज्ञासाओं को शांत करने के लिये कुछ भी कर लिया जाता है

अब
सब की
अपनी अपनी
सोच

अपनी
तरह की होती है

एक
की आदत
एक तरह की

तो
दूसरे की
दूसरे तरह
की होती है

क्या
किया जाये
अगर
कोई तुमसे
रोज ही
रास्ते में
टकराता है

अपना होता है
दुआ सलाम
करता है
और
मुस्कुराता है

बस एक
छोटी सी
बात को
समझना

जरा
मुश्किल सा
हो जाता है

जब
तुम्हारे ही
बारे में

कुछ
प्रश्नों का
एक प्रश्नपत्र
बना कर

तुम्हारे
ही पड़ोसी से

सड़क पर
कहीं
पूछ्ना शुरू
हो जाता है

पड़ोसी
बेचारा
जब हल नहीं
ढूँढ पाता है

गूगल
करके भी
हार जाता है

तुम्हारे
अपनों के
प्रश्नो के

प्रश्न पत्र
को लेकर

तुमसे ही
हल
करवाने
के लिये

कुछ फूल
मिठाई लेकर
सुबह सुबह

तुम्हारे ही
घर पहुँच
जाता है ।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सार्वभौमिक है प्रश्न वाचक चिन्ह भाषा कुछ और होने से क्या हो जाता है

बहुत सारे प्रश्न 
ऐसे ही रोज
बेकार के समय
में उठते हैं
साबुन के
बुलबुलों की तरह
और फूट जाते हैं
काले सफेद
रंग बिरंगे
सुंदर कुरूप
लुभावने डरावने
और पता नहीं
कैसे कैसे
हर बुलबुला
छोड़ जाता है
एक प्रश्न चिन्ह
और वही
प्रश्न चिन्ह कहीं
किसी और प्रश्न के
बुलबुले में जा कर
लटक जाता है
ऐसे प्रश्नों के
उत्तर भी
होते हैं या नहीं
पता नहीं चल पाता है
आज तक किसी को
लिखते हुऐ नहीं देखा
कहीं भी अपने
ऐसे ही प्रश्नो को
सब के पास
सबके अपने अपने
प्रश्न होते हैं
पूछ्ना तो बहुत
दूर की बात
कोई दिखाना तक
नहीं चाहता है
शायद छपे कभी
कोई ऐसे ही प्रश्नों
की कोई किताब कहीं
और पता चले
अलग अलग तरह के
लोगों के अपने अपने
अलग अलग प्रश्न
क्योंकि आपस में
मिलजुल कर किये
काम से बहुत कुछ
बहुत बार निकल
कर आता है
‘उलूक’ के लिये तो
प्रश्न हमेशा ही
ब्रह्म हो जाता है
बस दूसरों में से
प्रश्न खोदने वाले
लोगों के लिये
एक प्रश्न जैसे
किसी का आखेट
करना हो जाता है
प्रश्न ही बुझाता है
उनकी रक्त पिपासा
प्रश्न पूछते ही
ऐसे लोगों के चेहरे पर
रक्त दौड़ जाता है
ऐसा रक्तिम चेहरा
और संतोष भाव ही
उनको ईश्वर
तुल्य बनाता है
वो बात अलग है
उनके ईश्वर बनते ही
सामने वाला डरना
शुरु हो जाता है
पर किसी का
विद्वान होना भी
यहीं पर उसके
प्रश्नो के कुदाल
से ही नजर आता है
क्योंकि उनके पास
तो बस उत्तर
ही होते हैं
किसी को इस
बात से क्या करना
अगर वो खुद को
प्रश्न वाचक चिन्ह
के साथ लटका
हुआ हमेशा पाता है ।

मंगलवार, 27 मई 2014

बस थोड़ी सी मुट्ठी भर स्पेस अपने लिये


बचने के लिये
इधर उधर रोज देख लेना
और कुछ कह देना कुछ पर
आसान है

अचानक सामने टपक पड़े
खुद पर उठे सवाल का
जवाब देना आसान नहीं है

जरूरी भी नहीं है प्रश्न कहीं हो 
उसका उत्तर कहीं ना कहीं होना ही हो

एक नहीं ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न
जिनका सामना नहीं किया जाता है

नहीं झेला जाता है
किनारे को कर दिया जाता है
कूड़ा कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है

कूड़ेदान के ढक्कन को फिर
कौन उठा कर उसमें झाँकना दुबारा चाहता है

जितनी जल्दी हो सके
कहीं किसी खाली जगह में फेंक देना ही
बेहतर विकल्प 
समझा जाता है

सड़ांध से बचने का एकमात्र तरीका
कहाँ फेंका जाये

निर्भर करता है
किस खाली जगह का उपयोग
ऐसे में 
कर लिया जाये

बस यही खाली जगह या स्पेस
ही होता है एक बहुत मुश्किल प्रश्न

खुद के लिये जानबूझ कर अनदेखा किया हुआ

पर हमेशा नहीं होता है
उधड़ ही जाती है जिंदगी रास्ते में कभी यूँ ही
और खड़ा हो जाता है यही प्रश्न बन कर

एक बहुत बड़ी मुश्किल बहुत बड़ी मुसीबत
कहीं कुछ खाली जगह अपने आप के लिये

सोच लेना शुरु किया नहीं कि
दिखना शुरु हो जाती हैं कंटीली झाड़ियाँ

कूढ़े के ढेरों पर लटके हुऐ बेतरतीब
कंकरीट के जंगल जैसे
मकानों की फोटो प्रतिलिपियों से भरी हुई जगहें
हर तरफ चारों ओर
मकानों से झाँकती हुई कई जोड़ी आँखे

नंगा करने पर तुली हुई
जैसे खोज रही हों सब कुछ
कुछ संतुष्टी कुछ तृप्ति पाने के लिये

पता नहीं पर शायद होती होगी
किसी के पास कुछ
उसकी अपनी खाली जगह
उसके ही लिये

बस बिना सवालों के
काँटो की तार बाड़ से घिरी बंधन रहित

जहाँ से बिना किसी बहस के
उठा सके कोई
अपने लिये अपने ही समय को
मुट्टी में
जी भर के देखने के लिये
अपना प्रतिबिम्ब

पर मन को भी नंगा कर
उसके 
आरपार देख कर मजा लेने वाले
लोगों से भरी इस दुनियाँ में
नहीं है 
सँभव होना
ऐसी कोई जगह जहाँ अतिक्रमण ना हो

यहाँ तक
जहाँ अपनी ही खाली जगह को
खुद ही घेर कर हमारी सोच
घुसी रहती है

दूसरों की खाली जगहों के पर्दे
उतार फेंकने के पूर जुगाड़ में
जोर शोर से ।

चित्र सभार: https://nl.pinterest.com/

शनिवार, 25 जनवरी 2014

किसी की दुखती रग पर क्या इसी तरह हाथ रखा जाता है

सुबह सुबह उठते
ही कोई पूछ बैठे
कल के बारे में
तो वही बता पाता है
जिसको आज के
बारे में बहुत कुछ
विस्तार से समझ
में आता जाता है
उस के लिये कोई
कुछ नहीं कर सकता है
जिसकी सोच में
मोच आने से बहुत
लोच आ जाता है
अब ये भी कोई
प्रश्न हुआ पूछना
क्या आपके वहाँ भी
गणतंत्र दिवस
मनाया जाता है
प्रश्न कठिन भी
नहीं होता है
पर घूमा हुआ
दिमाग ऐसे में
कलाबाजी खा
ही जाता है
एक एक अर्जुन
अपने हाथ में
अपनी मछली की
आँख को लिया हुआ
तीर से कुरेदता हुआ
सामने सामने ही
दिखने लग जाता है
ऐसे में जवाब
दिया ही जाता है
जी हाँ बिल्कुल
मनाया जाता है
गणों के द्वारा
हमारे तंत्र में भी
गणतंत्र दिवस
हमेशा हर वर्ष
जैसा हर जगह
मनाया जाता है
झंडा भी होता है
तिरंगा भी होता है
जय हिंद का नारा
भी जोर शोर से
लगाया जाता है
सारे देश भक्त
जरूर दिखते हैं
उस दिन दिन में
अखबार में समाचार
भी फोटो शोटो
के साथ आता है
सारे अर्जुनोँ की
मछलियों की आँख
और तीर में ही
मगर हमेशा की तरह
हर गणतंत्र दिवस में
'उलूक' का ध्यान
भटक जाता है
देश भक्ति का
सबूत देने का मौका
आते आते हमेशा ही
उसके हाथ से
इसी तरह फिर
एक बार छूट जाता है ।