‘कभी तो
खुल के बरस
अब्र इ मेहरबान
की तरह’
जगजीत सिंह
की गजल
से जुबाँ पर
थिरकन सी
हो रही थी
कैसे
बरसना
करे शुरु
कोई
उस जगह
जहाँ
बादलों को भी
बैचेनी हो रही थी
खुद की
आवाज
गुनगुनाने
तक ही
रहे अच्छा है
आवाज
जरा सा
उँची करने की
सोच
कर भी
सिहरन
हो रही थी
कहाँ
बरसें खुल के
और
किसलिये बरसें
थोड़ी
सी बारिश
की जरूरत भी
किसे हो रही थी
टपकना
बूँद का
देख कर
बादल से
पूछ लिया
है उसने
पहले भी
कई बार
क्या
छोटी सी चीज
खुद की
सँभालनी
इतनी ही भारी
खुद को हो रही थी
किसे
समझाये कोई
अपने खेत की
फसल का मिजाज
उसकी
तबीयत तो
किसी को
देख सुन कर ही
हरी हो रही थी
उसकी
सोच में
किसी की
सफेदपोशी
का कब्जा
हो चुका है
कुछ
नहीं किया
जा सकता है
‘उलूक’
‘मेरा
बजूद है
जलते हुऐ
मकाँ की तरह’
से यहाँ
मगर
गजल
फिर भी
पूरी हो रही थी ।
चित्र साभार: www.clipartpanda.com
खुल के बरस
अब्र इ मेहरबान
की तरह’
जगजीत सिंह
की गजल
से जुबाँ पर
थिरकन सी
हो रही थी
कैसे
बरसना
करे शुरु
कोई
उस जगह
जहाँ
बादलों को भी
बैचेनी हो रही थी
खुद की
आवाज
गुनगुनाने
तक ही
रहे अच्छा है
आवाज
जरा सा
उँची करने की
सोच
कर भी
सिहरन
हो रही थी
कहाँ
बरसें खुल के
और
किसलिये बरसें
थोड़ी
सी बारिश
की जरूरत भी
किसे हो रही थी
टपकना
बूँद का
देख कर
बादल से
पूछ लिया
है उसने
पहले भी
कई बार
क्या
छोटी सी चीज
खुद की
सँभालनी
इतनी ही भारी
खुद को हो रही थी
किसे
समझाये कोई
अपने खेत की
फसल का मिजाज
उसकी
तबीयत तो
किसी को
देख सुन कर ही
हरी हो रही थी
उसकी
सोच में
किसी की
सफेदपोशी
का कब्जा
हो चुका है
कुछ
नहीं किया
जा सकता है
‘उलूक’
‘मेरा
बजूद है
जलते हुऐ
मकाँ की तरह’
से यहाँ
मगर
गजल
फिर भी
पूरी हो रही थी ।
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