उलूक टाइम्स: बादल
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बुधवार, 31 जुलाई 2024

जब भी कभी याद आ जाये लिखने की कुछ लिखें कहीं

 

कुछ लिखें
कहीं दीवार पर
कुछ कहीं आंगन में लिखें
कुछ कहीं पेड़ पर भी लिखें
पत्ते सा हरा लिखें  
लिखें तो सही
गहरा नहीं भी हो कहीं
हो पानी सा कांच के ऊपर पतला सा फ़ैला
दूध सा सफ़ेद या थोड़ा सा पीला पीला
सूखी हुई पथरा गयी आंखों के आसपास नहीं भी हो कहीं
बहुत दूर आसमान में फ़ैले
छितराये से बादलों से मिलते आश्वासनों सा गीला
लिखें बहुत पुरानी ही कहानी
मां की कही हो या कही हो कोई मोहल्ले की बूढ़ी नानी
आज की लिखें
झूठ ही सही
मरे हुऐ किसी सच को ओढ़ाती सफ़ेद कफ़न पुरानी 
लिखें दूर की एक कौढ़ी
आने वाले कल की झक्क सफ़ेद झूठी भविष्यवाणी
लिखें धीमी चलती लेखनियों का सीखना
पकड़ना रफ़्तार
और हो जाना दिखना लिखे का
सामने सामने ये जाना  और वो जाना
सारे काले लिखे का हो जाना सफ़ेद लिखें
लिखें सफ़ेद लिखे का काला हो जाना
पर लिखें कहीं दीवार पर कुछ
कहीं आंगन में लिखें कुछ
कहीं पेड़ पर भी लिखें पत्ते सा हरा
लिखें जब भी कभी याद आ जाये लिखने की

कुछ लिखें कहीं

चित्र साभार:
https://www.tansyleemoir.co.uk/the-writing-on-the-tree/

रविवार, 8 अक्टूबर 2023

मैं ही बस बिजूरवा रहूँगा कुछ और हो नहीं रहा हूँ

 

सितम्बर २०२३ तक  "उलूक टाइम्स" के साठ लाख पृष्ठ दृश्य के लिए पाठकों का आभार
चूहों की दौड़ के बीच में कहीं है
वो ही एक चूहा नहीं है
बस मैं ही कुछ हो नहीं रहा हूँ

नकाब चूहे का है मान लिया है उसने
किसी को छूआ नहीं है
मैं ही बस कुछ उनींदा हूँ सो नहीं रहा हूँ

सबकी दुआओं में रहता है
अहसास कभी हुआ नहीं है
बस एक  मैं ही हूँ जो खो नहीं रहा हूँ

घेर कर रखना चाह रहे हैं बंधुआ नहीं है
मैं ही हूँ बस बाहर हूँ और रो नहीं रहा हूँ

सही गलत कुछ भी लिखना जुआ नहीं है
बस एक मैं ही
ताश के पत्तों का जोकर हो नहीं रहा हूँ

नहीं भी है तब भी
ना लिखिए कहीं भी एक कुंआ नहीं है
बौछार लिख दीजिये
मैं ही बस बादल हो नहीं  रहा हूँ
 
सब जिम्मेदार हैं सब ईमानदार है
बस पूछिए वही जो हुआ नहीं है
मैं अभी हूँ यहीं कहीं हूँ
खो नहीं रहा हूँ

सब इज्जतदार हैं डरिये नहीं
मामा है कहीं बुआ नहीं
 है कहीं
ताऊ बन गया है यहीं
मैं ही बस इंसान हो नहीं रहा हूँ

खोज रहा हूँ
शायद कोई जाग रहा हो
 
मैं एक ही हूँ बस जो ढो नहीं रहा हूँ

किताब में
दो और दो चार बताया गया है
  
बस मैं ही नहीं और भी हैं
जो कहें
आठ होने की बाट जोह नहीं रहा हूँ

खबर अखबार में है एक मैं ही  सो रहा हूँ
सारे सोये हुओं ने दस्तखत किये हैं
मैं ही बस कह रहा हूँ रो नहीं रहा हूँ

अखबार छापता है खबर
जो दुधारू खबरी उसे देता है
खबरी ने सबूत दिए हैं
बस एक मैं ही कोई खबर बो नहीं रहा हूँ

ईमानदार शब्दकोष का  एक शब्द है
 सारे चोर
 ईमानदार है मुझे भी होना है कुछ
बस मैं ही यूं ही हो नहीं रहा हूँ

सभी
  कौए
पंख फैला कर मोर हो गए हैं
नाचना मुझे भी है आँगन टेढ़े हैं
मैं ही बस बिजूरवा रहूँगा
कुछ और हो नहीं रहा हूँ

हर कोई
लटका कर घूम रहा है 
गले में ताबीज किस्मत का अपनी
किसी एक रंग का
मैं ही बस काला रहूँ
अच्छा है खुश
 हो नहीं रहा हूँ

गेरुआ है सफ़ेद है हरा है तिरंगे में
खून का रंग लाल है सींचना है बागवां
  है
‘उलूक’ बकबकी कहे
अभी तो चुप हो नहीं रहा हूँ


चित्र साभार:  https://www.freepik.com/

शनिवार, 18 जुलाई 2020

जमाने को पागल बनाओ


दूर कहीं आसमान में
 उड़ती चील दिखाओ 

कुछ हवा की बातें करो
कुछ बादलों की चाल बताओ

कुछ पुराने सिक्के घर के
मिट्टी के तेल से साफ कर चमकाओ

कुछ फूल कुछ पौंधे
कुछ पेंड़ के संग खींची गयी फोटो
जंगल  हैंं बतलाओ

तुम तब तक ही लोगों के
समझ में आओगे
जब तक तुम्हारी बातें
तुम्हें खुद ही समझ में नहीं आयेंगी
ये अब तो समझ जाओ 

जिस दिन करोगे बातें
किताब में लिखी
और
सामने दिख रहे पहाड़ की

समझ लो कोई कहने लगेगा
आप के ही घर का

क्या फालतू में लगे हो
जरा पन्ने तो पलटाओ

कुछ रंगीन सा दिखाओ
कुछ संगीत तो सुनाओ

नहीं कर पा रहे हो अगर

एक कनिस्तर खींच कर
पत्थर से ही बजा कर टनटनाओ

जरूरी नहीं है
बात समझ में ही आये समझने वाली भी
पढ़ने सुनने वाले को
जन गण मन साथ में जरूर गुनगुनाओ

जरूरी नहीं है
उत्तर मिलेंं नक्कारखाने की दीवारों से
जरूरी प्रश्नों के
कुछ उत्तर कभी
अपने भी बना कर भीड़ में फैलाओ

लिखना कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
नजर रखा करो लिखे पर

कुछ नोट खर्च करो
किताब के कुछ पन्ने ही हो जाओ

‘उलूक’
चैन की बंसी बजानी है
अगर इस जमाने में

पागल हो गया है की खबर बनाओ
जमाने को पागल बनाओ।

चित्र साभार:
http://www.caipublishing.net/yeknod/introduction.html

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

उसपर या उसके काम पर कोई कुछ कहने की सोचने की सोचे उससे पहले ही किसी को खुजली हो रही थी

‘कभी तो
खुल के बरस
अब्र इ मेहरबान
की तरह’

जगजीत सिंह
की गजल
से जुबाँ पर
थिरकन सी
हो रही थी

कैसे
बरसना
करे शुरु

कोई
उस जगह

जहाँ
बादलों को भी
बैचेनी हो रही थी

खुद की
आवाज

गुनगुनाने
तक ही
रहे अच्छा है

आवाज
जरा सा
उँची करने की

सोच
कर भी
सिहरन
हो रही थी

कहाँ
बरसें खुल के
और
किसलिये बरसें

थोड़ी
सी बारिश
की जरूरत भी
किसे हो रही थी

टपकना
बूँद का
देख कर

बादल से
पूछ लिया
है उसने
पहले भी
कई बार

क्या
छोटी सी चीज
खुद की
सँभालनी

इतनी ही भारी
खुद को हो रही थी

किसे
समझाये कोई
अपने खेत की
फसल का मिजाज

उसकी
तबीयत तो

किसी को
देख सुन कर ही
हरी हो रही थी

उसकी
सोच में
किसी की
सफेदपोशी
का कब्जा
हो चुका है

कुछ
नहीं किया
जा सकता है
‘उलूक’

‘मेरा
बजूद है
जलते हुऐ
मकाँ की तरह’

से यहाँ

मगर
गजल
फिर भी
पूरी हो रही थी ।

चित्र साभार: www.clipartpanda.com

शनिवार, 1 मार्च 2014

बादल भी कुछ नहीं लिखते बादलों को नहीं होती है घुटन

शायद
ज्यादा अच्छे होते हैं वे लोग
जो कुछ नहीं लिखते है

वैसे
किसी के लिखने से ही
लिखने वाले के बारे में कुछ पता चलता हो
ऐसा भी जरूरी नहीं होता है

पर
कुछ नहीं कहना कुछ नहीं लिखना
नहीं लिखने वाले की मजबूती का
पता जरूर देता है

लिखने से ज्यादा
अच्छा होता है कुछ करना

कहा भी गया है
गरजते हैं जो बादल बरसते नहीं हैं

बादल भी तो बहुत चालाकी करते हैं

जहाँ बनते हैं वहाँ से चल देते हैं

और बरसते हैं
बहुत दूर कहीं ऐसी जगह पर
जहाँ कोई नहीं जानता है
बादल कहाँ कैसे और क्यों बनते हैं

एक बहुत बड़े देश के कोने कोने के
लोग भी तो पहुँचते हैं हमेशा
एक नई जगह
और वहाँ बरसते हुऐ दिखते हैं

कहीं भी कोई जमीन नम नहीं होती हैं
ना उठती है थोड़ी सी भी
सोंधी गंध कहीं से गीली मिट्टी की

बरसना बादलों का बादलों पर और
बरसात का नहीं होना

किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ना

बहुत कुछ यूँ ही सिखा देता है
और
बादलों के देश की
पानी की छोटी बूँदें भी
सीख लेती हैं नमीं सोख लेना

क्योंकि जमीन की
हर बूँद को खुद के लिये बस
बनना होता है एक बड़ा बादल

बरसने के लिये नहीं
बस सोखने के लिये कुछ नमीं

जो सब लिखने से नहीं आता है

बस सीखा जाता है उन बादलों से
जो बरसते नहीं बस गरजते हैं

बहुत दूर जाकर
जहाँ किसी को फर्क नहीं पड़ता है

बिजली की चमक से
या
घड़धड़ाहट से

बादल भी कहाँ लिखते हैं कुछ
कभी भी कहीं भी ।

रविवार, 8 जुलाई 2012

सावन / बादल / बरसात

बादलों
में भी

हिस्सा
दिखाता है

अपना सावन
अपनी रिमझिम
अपनी बरसात

अपनी
तरह से
चाहता है

खाली पेट
हो तो

दिलाता है
सूखे खेत
की याद

रोटी
पेट में
जाते ही
जरूर
आती है याद

फिर से बरसात

कोई बस
देखना भर
चाहता है
कुछ बूँदे

छाता खोल
ले जाता है

किसी को
भीगना होता है

खुले
आसमान
के नीचे
चला आता है

वो
उसकी
बारिश में

अपनी
बारिश
कहाँ
मिलाता है

सब को
अपनी अपनी
बारिश करना
आता है

कोई
अपने चेहरे
में ही बारिश
दिखाता है

किसी
का बादल

उसके
नयनों में ही
छा जाता है

किसी को
आ जाता है

कलम से
बरसात को
लिख ले जाना

कोई
अपने अंदर
ही बरसात
कर ले जाता है

पानी
कहीं पर
भी नजर
नहीं आता है

और
किसी का पेट

इतना
भर जाता है

कितना
खा गया
पता ही नहीं
चल पाता है

बादल
ऎसे में
गोल घूमना
शुरु हो जाता है

बारिश
का नाम भी
तब अच्छा
नहीं लगता

लेकिन
रोकते रोकते
भी बादल
फट जाता है

पानी
ही पानी
चारों तरफ
हो जाता है

कितने मन
और
कितने सावन

किसके
हिस्से में
कितने बादल

तब
जाके थोड़ा
समझ में
आता है ।

चित्र साभार: 
https://www.gettyimages.in

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

आपदा

बहते
पानी का 
यूं ठहर जाना

ठंडी
बयार की 
रफ्तार
कम हो जाना

नीले
आसमान का 
भूरा हो जाना

चाँद
का निकलना

लेकिन
उस 
तरह से नहीं

सूरज
की गर्मी में 
पौंधों
का
मुरझाना

ग्लेशियर
का 
शरमा के 
पीछे हट जाना

रिम झिम
बारिश 
का
रूठ जाना

बादल
का फटना

एक गाँव
का 
बह जाना

आपदा
के नाम 
पर
पैसा आना

अखबार
के लिये 
एक
खबर बन जाना

हमारा तुम्हारा 
गोष्ठी
सम्मेलन 
करवाना

नेता जी
का 
कुर्सी मेंं आकर के 
बैठ जाना

हताहतों
के लिये 
मुआवजे
की 
घोषणांं कर जाना

पूरे गांव
मे 
कोइ नहीं बचा 

ये
भूल जाना

आपदा प्रबंधन 
पर गुर्राना

ग्लोबल वार्मिंग
पर 
भाषण दे जाना

हेलीकोप्टर 
से आना
हेलीकोप्टर 
से जाना

राजधानी
वापस 
चले जाना

आँख मूंद कर 
सो जाना

अगले साल 
फिर आना ।