सत्य
अहिंसा
का
दूसरा नाम
कभी
किसी
जमाने में
कहते थे
होता
था
गाँधी
झूठ
की
की
चल रही है
इस
जमाने में
जर्रे जर्रे
में
हवा नहीं है
है एक
आँधी
सत्य
छिपा
फिर
रहा है
रहा है
खुद
अपना
मुँह छुपाये
गलियों
गलियों में
झूठ की
बढ़ गयी है
हर
तरफ
आबादी
अहिंसा
को
डर है
डर है
खुद के
कत्ल
हो
जाने का
लिंचिंग
हो जाने
की
हुई है
हुई है
जब से
उसके
लिये
लिये
घर घर में
मुनादी
चाचा
होते होते
नहीं
हो पाने
के बाद
जब
हो रही है
बापू
हो जाने
की
तीव्र
इच्छा
छाती
फुला रहा है
विदेश
जा कर
फौलादी
एक
सौ
पचासवीं
जयन्ती
मजबूरी
है
है
झंडे के
रंगों को
कर
अलग अलग
हवा
खुद नहीं
चल पाती है
जब तक
नहीं
हो जाती है
पूरी
उन्मादी
आसमान
की ओर
मुँह कर
खड़े
हो गये
हो गये
हैं
तीनों बंदर
तीनों बंदर
खुला
छोड़ कर
अपने
आँख नाक
और
मुँह
‘उलूक’
डरकर
शरमाकर
सहमकर
झेंप रहे हैं
गाँधीवादी।
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