उलूक टाइम्स: गाँधी
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रविवार, 24 अक्टूबर 2021

ग़ाँधी को लगी गोली को आज सलाम मिल रहा है

 


सब कुछ ठीक है बस कुछ बुलबुले हैं कुछ भी कहीं नहीं उबल रहा है
सूरज सुबह और चाँद शाम को ही हमेशा की तरह निकल रहा है

सब खुश हैं सब ही मौज में हैं दिल भी सुना यूँ ही बहुत बहल रहा है
चेहरों की चमक देखिये गालों का रंग भी जरा सा नहीं बदल रहा है

चारों तरफ चैन है बैचेन एक भी कहीं ढूँढे नहीं मिल रहा है
संत हो गये हैं सारे इतना संतोष है सम्भाले नहीं सम्भल रहा है

लिखा हुआ बोरों के हिसाब से गोदामों में लाईन लगा तुल रहा है
कुछ पढ़ दिया जा रहा है कुछ इंतजार में है करवट बदल रहा है

कुछ लिखने को कहीं कुछ बकने को कहीं कुछ ईनाम मिल रहा है
‘उलूक’ अच्छा है कम कर दिया बकना तूने
ग़ाँधी को लगी गोली को आज सलाम मिल रहा है ।


चित्र साभार: https://indianexpress.com/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

सत्य अहिंसा सत्याग्रह नाटक के अभ्यास के लिये रोज एक मंचन का अभिनव प्रयोग हो रहा है


जब
गाँधी
मारा गया था

तब
वो
पैदा भी
नहीं हुआ था

उसकी
किताबों से
उसे
बताया गया था

गाँधी
जिस दिन
पैदा हुआ था

असल में
उस दिन
शास्त्री
पैदा
हुआ था

जो
असली 
था
सच था

उसने
ना
गाँधी को
पढ़ा था

ना ही
उसे

शास्त्री
का
ही
पता था

उसे
समझाया
गया था

गाँधी
मरते
नहीं है

शास्त्री
मरते हैं

 इसलिये
गाँधी की
मुक्ति के लिये

शास्त्री
जरुरी है

कभी
कोई
गाँधी की
बात करे

उसे
तुरन्त
शास्त्री
की बात
शुरु
कर देनी
चाहिये

गाँधी
अभी तक
जिन्दा है

और
इसी बात की
शर्मिंदगी है

उसकी
मुक्ति
नहीं
हो पा रही है

देख लो

अभी भी
याद किया
जा रहा है

आज
उसकी
एक सौ
पचासवीं
जयन्ती है

गाँधी को
तब
गोली लगी थी

वो
मरा
नहीं था

मर तो
वो
आज रहा है

रोज
उसे
तिल तिल
मरता
हर कोई
देख रहा है

‘उलूक’
समझाकर

कोई
कुछ
इसलिये
नहीं कह रहा है

क्योंकि
कहीं
गाँधी
होने की

अतृप्त
इच्छा के साथ

पर्दे
के पीछे से
धीरे धीरे
गाँधी
होने के लिये

सत्य अहिंसा सत्याग्रह
नाटक
के
अभ्यास के लिये

रोज
एक मंचन
का

अभिनव प्रयोग
हो रहा है ।

चित्र साभार: https://www.facebook.com/pg/basavagurukul/posts/

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019

डरकर शरमाकर सहमकर झेंप रहे हैं गाँधीवादी

सत्य 
अहिंसा 
का 
दूसरा नाम 

कभी 
किसी 
जमाने में 
कहते थे 

होता
था 
गाँधी

झूठ
की 
चल रही है 

इस 
जमाने में 

जर्रे जर्रे 
में 

हवा नहीं है 

है एक 
आँधी

सत्य 
छिपा 
फिर
रहा है 

खुद 
अपना 
मुँह छुपाये 

गलियों 
गलियों में 

झूठ की 
बढ़ गयी है 

हर
तरफ 
आबादी

अहिंसा 
को
डर है 

खुद के 
कत्ल 
हो 
जाने का 

लिंचिंग 
हो जाने 
की
हुई है 

जब से 
उसके
लिये 
घर घर में 
मुनादी

चाचा 
होते होते

नहीं 
हो पाने 
के बाद 

जब 
हो रही है 

बापू 
हो जाने 

की
तीव्र 
इच्छा 

छाती 
फुला रहा है 

विदेश 
जा कर 

फौलादी

एक 
सौ 
पचासवीं 
जयन्ती 

मजबूरी
है 

झंडे के 
रंगों को 
कर 
अलग अलग 

हवा 
खुद नहीं 
चल पाती है 

जब तक 
नहीं 
हो जाती है 

पूरी 
उन्मादी 

आसमान 
की ओर 

मुँह कर 
खड़े
हो गये 
हैं
तीनों बंदर 

खुला 
छोड़ कर 

अपने 
आँख नाक 
और 
मुँह 
‘उलूक’ 

डरकर 
शरमाकर 
सहमकर 

झेंप रहे हैं 
गाँधीवादी।
चित्र साभार: https://depositphotos.com

सोमवार, 20 अगस्त 2018

खुदा भगवान के साथ बैठा गले मिल कर कहीं किसी गली के कोने में रो रहा होता दिन आज का खुदा ना खास्ता अगर गुजरा कल हो रहा होता

एक आदमी
भूगोल हो रहा होता
आदमी ही एक
इतिहास हो रहा होता

पढ़ने की
जरूरत
नहीं हो
रही होती


सब को
रटा रटाया
अभिमन्यु की तरह

एक आदमी
पेट से ही
पूरा याद हो रहा होता


एक आदमी
हनुमान हो रहा होता
एक आदमी
राम हो रहा होता

बाकि
होना ना होना सारा
आम और
बेनाम हो रहा होता


चश्मा
कहीं उधड़ी हुई
धोती में सिमट रहा होता


ग़ाँधी
अपनी खुद की
लाठी से
पिट रहा होता


कहीं हिन्दू
तो कहीं उसे
मुसलमान
पकड़ रहा होता
कबीर
अपने दोहों को
धो धो कर
कपड़े से
रगड़ रहा होता


ना तुलसी
राम का हो रहा होता
ना रामचरित मानस
पर काम हो रहा होता

मन्दिर में
एक आदमी के
बैठने के लिये
कुर्सियों का
इन्तजाम
हो रहा होता


लिखा हुआ
जितना भी
जहाँ भी
हो रहा होता
हर पन्ने का एक
आदमी हो रहा होता

आदमी आदमी
लिख रहा होता
आदमी ही
एक किताब
हो रहा होता


इस से ज्यादा
गुलशन कब
आबाद
हो रहा होता


 शाख
सो रही होती
‘उलूक’
खो रहा होता

गुलिस्ताँ
खुद में गंगा
खुद में संगम
और खुद ही
दौलताबाद
हो रहा होता।


चित्र साभार: http://clipartstockphotos.com