उलूक टाइम्स: गालियां
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शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

अपेक्षाऐं कैसी भी किसी से रखने में क्या जाता है

दो टांगों पर
चलता 
चला जाऊं अपनी ही 
जिंदगी भर
ऐसा 
सोचना तो
समझ में 
थोड़ा थोड़ा आता है 

सर के बल चल कर 
किसी के पास पहुंचने की
किसी की अपेक्षा 
को
कैसे पूरा 
किया जाता है 

पता कहां 
चल पाती हैं 
किसी की अपेक्षाऐं 
जब अपेक्षाऐं रखना अपेक्षाऐं बताना
कभी 
नहीं हो पाता है 

अपने से जो होना 
संभव कभी नहीं हो पाता है
वही 
सब कुछ
किसी से 
करवाने की अपेक्षा रखते हुऐ
आदमी 
दुनियां से विदा भी हो जाता है 

पर अपेक्षा भी 
कितनी कितनी 
अजीब से अजीब कर सकता है सामने वाला 
ऐसा किसी 
किताब में लिखा हुआ भी नहीं बताया जाता है 

इधर आदमी 
तैयार कर रहा होता है अपने आप को
किसी 
का गधा बनाने की 

उधर अगला 
सोच रहा होता है 
आदमी के शरीर में बाल उगा कर
उसे 
भालू बनाने की 

क्या करे कोई बेचारा 
किसी को किसी की अपेक्षाओं का सपना 
जब नहीं आता है

अपेक्षाऐं
किसी से रखने 
का मोह
कभी कोई 
त्याग ही नहीं पाता है 

अपेक्षाऐं होती 
हैं अपेक्षाऐं रह जाती हैं 

हमेशा अपेक्षाऐं 
रखने वाला 
बस खीजता है खुद अपने पर झल्लाता है 

ज्यादा से ज्यादा 
क्या कर सकता है कर पाता है
दो घूंट के बाद 
दीवारों पर अपने ही घर की कुछ 
कुछ गालियां लिख ले जाता है

सुबह होते 
होते उसे भी मगर भूल जाता है

और अपेक्षाओं के पेड़ को 
अपने ही 
फिर से सींचना
अपेक्षाओं से शुरु हो जाता है ।