दो टांगों पर
चलता चला जाऊं अपनी ही
जिंदगी भर
ऐसा सोचना तो
समझ में थोड़ा थोड़ा आता है
सर के बल चल कर
किसी के पास पहुंचने की
किसी की अपेक्षा को
कैसे पूरा किया जाता है
पता कहां चल पाती हैं
किसी की अपेक्षाऐं
जब अपेक्षाऐं रखना अपेक्षाऐं बताना
कभी नहीं हो पाता है
अपने से जो होना संभव कभी नहीं हो पाता है
वही सब कुछ
किसी से करवाने की अपेक्षा रखते हुऐ
आदमी दुनियां से विदा भी हो जाता है
पर अपेक्षा भी कितनी कितनी
अजीब से अजीब कर सकता है सामने वाला
ऐसा किसी
किताब में लिखा हुआ भी नहीं बताया जाता है
इधर आदमी
तैयार कर रहा होता है अपने आप को
किसी का गधा बनाने की
उधर अगला सोच रहा होता है
आदमी के शरीर में बाल उगा कर
उसे भालू बनाने की
क्या करे कोई बेचारा
किसी को किसी की अपेक्षाओं का सपना
जब नहीं आता है
अपेक्षाऐं
किसी से रखने का मोह
कभी कोई त्याग ही नहीं पाता है
अपेक्षाऐं होती हैं अपेक्षाऐं रह जाती हैं
हमेशा अपेक्षाऐं रखने वाला
बस खीजता है खुद अपने पर झल्लाता है
ज्यादा से ज्यादा
क्या कर सकता है कर पाता है
दो घूंट के बाद
दीवारों पर अपने ही घर की कुछ
कुछ गालियां लिख ले जाता है
सुबह होते होते उसे भी मगर भूल जाता है
और अपेक्षाओं के पेड़ को अपने ही
फिर से सींचना
अपेक्षाओं से शुरु हो जाता है ।