उलूक टाइम्स: दीपासन
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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

अपनी समझ से जो जैसा समझ ले जाये पर दीपावली जरूर मनाये

रोशनी
ही रोशनी

इतनी
रोशनी
आँखें
चुधिया जायें

शोर ही शोर
इतना शोर

सुनना सुनाना
कौन किस से कहे

कान के पर्दे
फटने से कैसे
बचाये जायें

घुआँ धुआँ
आसमान

रात के तारे
और चाँद
की बात
करना बेकार

जब लगे
सुबह का
सूरज
धीमा धीमा
शरमाता सा

जाड़ों
में जैसे
खुद ही
ठिठुरता
कंंपकपाता

शाम
होने से
पहले ही
निढाल हो
ढल जाये

बूढ़ा
साँस
लेने के
लिये तड़पे
निढाल हो जाये

चिड़िया
कबूतर
डर कर
प्राण ही
छोड़ जायें

घर के
निरीह
जानवर
भयभीत से

दबाये हुऐ
पूँछें अपनी

इस
चारपाई
के नीचे से
निकल कर
दूसरी
चारपाई

किसी
कोठरी के
अंधेरे कोने में
शरण लेते
हुऐ नजर आयें

लक्ष्मी
घर की
करे इंतजार

बाहर की
लक्ष्मी के
आने का

नारायण
और
आदमी
दोनो
एक दिन
के आम
आदमी हो जायें

खुशी
होनी ही
चाहिये
बाँटने के
लिये पास में

किसी को
जरूरत है
या नहीं

एक अलग
ही मुद्दा
हो जाये

दो रास्तों
के बीच के
पेड़ की सूखी
टहनी पर
बैठा ‘उलूक’

दूर शहर
में कहीं

लगी
हुई आग
और रोशनी
के फर्क
को समझने
के लिये

दीपासन
लगाया हुआ
नजर आये

जैसा भी है
मनाना है
आईये दीप
जलायें
दीप पर्व
धूम धड़ाके
धूऐं से ही
सही मनायें ।

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