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शनिवार, 30 नवंबर 2024

इतना कुरेद कब्र लिखी जाए

 


इतना कुरेद
कब्र लिखी जाए
दफन करने के लिए कुछ
कुछ किया जाए

मिट्टी नहीं सही
राख ली जाए  
कफन ढकने के लिए कुछ
कुछ दिया जाए

आग से खेल नियम हैं
जल और जला  धरम है  
किताबों में नहीं लिखा है
दीवारों पर लिख
नया कानून लिखा जाए

 फूँक ले घर को
फूँक ले शहर को
रोशनी से कह कर
थोड़ा सब्र करने की बात  
आंच और धुएं को
गुमराह किया जाए

 राख ही राख हो
राख की इफ़रात हो
कब्र ना भी लिख सके अगर
दफन हो सभी कुछ
कफन ना बरबाद हो

 इतना कुरेद
कब्र लिखी जाए
दफन करने के लिए कुछ
कुछ किया जाए


चित्र साभार:
https://www.shutterstock.com/



मंगलवार, 9 नवंबर 2021

माचिस की तीली कुछ सीली कुछ गीली रगड़ उलूक रगड़ कभी लगेगी वो आग कहीं जिसकी किसी को जरूरत होती है



बहुत जोर शोर से ही हमेशा
बकवास शुरु होती है

किसे बताया जाये क्या समझाया जाये
गीली मिट्टी में
सोच लिया जाता है दिखती नहीं है
लेकिन आग लगी होती है

दियासलाई भी कोई नई नहीं होती है
रोज के वही पिचके टूटे डब्बे होते हैं
रोज की गीली सीली तीलियाँ होती हैं

घिसना जरूरी होता है
चिनगारियाँ मीलों तक कहीं दिखाई नहीं देती हैं

मान लेना होता है गँधक है
मान लेना होता है ज्वलनशील होता है
मान लेना होता है घर्षण से आग पैदा होती है
मान लेना होता है आग सब कुछ भस्म कर देती है
और बची हुई बस कुछ होती है तो वो राख होती है

इसी तरह से रोज का रोज खिसक लेता है समय
सुबह भी होती है और फिर रात उसी तरह से होती है

कुछ हो नहीं पाता है चिढ़ का
उसे उसी तरह लगना होता है
जिस तरह से रोज ही
किसी की शक्ल सोच सोच कर लग रही होती है

खिसियानी बिल्ली के लिये
हर शख्स खम्बा होना कब शुरु हो लेता है
खुद की सोच ही को नोच लेने की सोच
रोज का रोज पैदा हो रही होती है

रोज का रोज मर रही होती है
तेरे जैसे पाले हुऐ कबूतर बस एक तू ही नहीं
पालने वाले को
हर किसी में तेरे जैसे एक कबूतर की जरूरत हो रही होती है

‘उलूक’ खुजलाना मत छोड़ा कर कविता को
इस तरह रोज का रोज
फिर रोयेगा
नहीं तो किसी एक दिन कभी आकर
कह कर
खुजली किसी और की खुजलाना किसी और का
बिल्ली किसी और की खम्बा किसी और का
तेरी और तेरे लिखने लिखाने की
किसे जरूरत हो रही होती है ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 6 नवंबर 2021

रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

 


सब कुछ समेटने के चक्कर में बहुत कुछ बिखर जाता है
जमीन पर बिखरी धूल थोड़ी सी उड़ाता है खुश हो जाता है

आईने पर चढ़ी धूल हटती है कुछ चेहरा साफ नजर आता है
खुशफहमियाँ बनी रहती हैं समय आता है और चला जाता है

दिये की लौ और पतंगे का प्रेम पराकाष्ठाओं में गिना जाता है
दीये जलते हैं पतंगा मरता है बस मातम नजर नहीं आता है

झूठ एक बड़ा सा हसीन सच में गिन लिया जाता है
लबारों की भीड़ के खिलखिलाने से भ्रम हो जाता है

पर्दे में रखकर खुराफातें अपनी एक होशियार खुद कभी आग नहीं लगवाता है
रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

कोई कुछ कर ले जाता है
कोई कुछ नहीं कर पाता है तो कुछ लिखने को चला आता है
कुछ समझ ले कुछ समझा ले खुद को ही ‘उलूक’
हर बात को किसलिये यहां रोने चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

शनिवार, 9 जनवरी 2021

नंगा सच है नंगई ईश्वरीय है

मत लिखा कर
हर समय गीला सा
सुखा लिया कर
लिखा अपना सीला सा

आग नहीं लगती है
लिखा गीला होता है
सीलन सुलगती नहीं है

रोज लिखना
हर समय दिखना
इसलिये ठीक नहीं होता है
लिखाई भी हर समय बहकती नहीं है

लिखा कर
कोई नहीं कहता है नहीं लिख
बस फूँक लिया कर लिखते लिखते लिखे को
स्याही सूखे बिना चमकती नहीं है

आग लिख या राख लिख
किसे मतलब है
लगी आग से बनती राख तक
जरूरी है खबर बनना
अखबार बिकता है
पकी पकाई से
कच्ची खबर बिकती नहीं है

किसलिये लिखना
हो रहे को यूँ ही
बिना मिर्च बिना मसाले के

शाम के गिलास में
शराब
बिना बात के
यूँ ही कहीं
जा गिरती नहीं है

सबको
पता होता है
सब जानते हैं लिखावट
हर लिखे की
चिट्ठियाँ आती है
किसी और के नाम से
लिखने वाले के
शहर में नहीं होने की खबर
कहीं छपती नहीं है

‘उलूक’
नोच
अपने गंजे सर के बचे बालों को
नगों की मौज रहेगी हमेशा

नंगा सच है
नंगई करना ईश्वरीय है

मंदिर बना कहीं भी 
नंगे का किसी 
कोई रोक है कहीं
कहीं दिखती नहीं है।

चित्र साभार: ttps://www.gograph.com
/

शनिवार, 14 मार्च 2020

लगी आग लगाई आग कुछ राख कुछ बकवास कुछ चिट्ठाकारी




समझ में
जब

खुद के
ही
नहीं आती है

लगाई गयी आग
और
लगी आग
से
बनी राख

तो
किस लिये
भटकता है
औघड़

ढूँढने
के लिये
लकड़ियाँ
माचिस का डब्बा
और
गंधक लगी
छोटी छोटी
तीलियाँ

हुँकार कर
आँखें
लाल रक्त
से भर
और
फूँक दे
शँख

रक्तबीज
अंकुरित हैं
हर समय
हर दिशा में

विषाणु
को
कोई भी
नाम दे दो
अच्छा है

कत्ल
करने का
शरीर के साथ
आत्मा
का

के 
विश्वास
के
दंभ के आगे
कुछ नहीं
दंभ के पीछे
कुछ नहीं

दंभ
बनेगा राम
बना
करता होगा
रावण
कहानियों का

कई किस्म के
 बीमार हैं
बीमारियाँ भी
कम नहीं हैं

शरीर
कई मिटते हैं
मिटते रहेंगे

आत्मा
सड़ी
सबसे
खतरनाक है

तैर लेती है
समय के साथ
फाँद लेती है
मीनारें

बहुत
कठिन समय है
विषाणु
बैठ चुका है
कई साल पहले
सिंहासन पर

सम्मोहित
करता है
लोग
होते भी हैं
सम्मोहित

मर भी जाते हैं
बस
जलाये
या
दफनाये
नहीं जाते हैं

तैरते हैं
अभी भी
समय के साथ

आदमी
भ्रम से पार
नहीं पायेगा
जरूरत भी नहीं है

संपेरों
के
देश के साँप
और
बीन लिये
सपेरे
काफी हैं
संभालने के लिये
देश

साँप फुफकारे

जय हिन्द
वन्दे मातरम
भारत माता की जय
इस से बड़ा
 आठवाँ आश्चर्य
बताइये कोई

‘उलूक’
तेरी तरह का
कोई
पढ़ेगा जरूर

अच्छा होता है
लिख कर
कुछ बकवास

फिर
सो जाना
सूखे पेड़ की ठूँठ पर

आँख
खोल कर
हमेशा की तरह ।

 चित्र साभार: https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/badaun/story-snake-punished-snake-charmer-called-snake-2769083.html

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

एक साल बेमिसाल और फिर बिना जले बिना सुलगे धुआँ हो गया



मुँह 
में दबी 
सिगरेट से 

जैसे 

झड़ती 
रही राख 

पूरे 
पूरे दिन 
पूरी रात 

फिर एक बार 

और 

सारा 
सब कुछ 
हवा हो गया 

एक 
साल और 

सामने सामने से 

मुँह 
छिपाकर 
गुजरता हुआ 

जैसे 
धुआँ हो गया 

थोड़ी कुछ 
चिन्गारियाँ
उठी 

कुछ
लगी आग 

दीवाली हुयी 

आँखों
की 
पुतलियों में 

तैरती 
बिजलियाँ 
सी
दिखी 

खेला गया 
चटक गाढ़ा 
लाल रंग 

बहता दिखा 
गली सड़कों में 

गोलियों 
पत्थरों से भरे 
गुलाल से 

उमड़ता
जैसे फाग 

आदमी को 

आदमी से 

तोड़ता हुआ 
आदमी 

आदमी 
के 
बीच का 

एक 

आदमी 
उस्ताद 

पता
भी 
नहीं चला 

आदमी 
आदमी 
के
सर 
पर चढ़ता 

दबाता 
आदमी 
को
जमीन में 

एक 
आदमी 

आदमी
का 
खुदा हो गया 

देखते 
देखते 

सामने 
सामने 
से
ही 

ये गया 
और 
वो गया 

सोचते सोचते 

धीमे धीमे 

दिखाता 
अपनी
चालें 

कितनी 
तेजी के साथ 

देखो 
कैसे 

धुआँ
हो गया 

‘उलूक’ 
मौके ताड़ता 
बहकने के 

कुछ 
रंगीन सपने 
देखते देखते 

रात के 
अंधेरे अंधेरे 
ना
जाने कब 

खुद ही 
काला 
सफेद हो गया 

पता 
भी नहीं चला 

कैसे
फिर से एक 

पुराना 
साल 

नये 
साल के 
आते ना आते 

बिना 
लगे आग 

बिना सुलगे ही 

बस 
धुआँ
और 

धुआँ हो गया । 

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

सोमवार, 16 सितंबर 2019

अपनी गाय अपना गोबर अपने कंडे खुद ही ढोकर जला कुछ आग बना कुछ राख




कुछ
हंसते हंसते 

कुछ
रो धो कर 

अपना घर 
अपनी दीवार 

रहने दे
सर मत मार 

अपनी गाय 

अपनी गाय
का 
अपना गोबर

गोबर के कंडे 
खुद ही बनाये गये 
अपने ही हाथों से 
हाथ साफ धोकर

अपना 

ही घर 
अपने ही 
घर की दीवार

कंडे ही कंडे

अपना सूरज 
अपनी ही धूप 
अपने कंडे
कुरकुरे
खुद रहे सूख 

अपने कंडे

अपनी आग 
अपना जलना
अपनी फाग 
अपने राग
अपने साग 

आग पर लिख ना
साग पर लिख ना 
राग बे राग पर लिख ना 

जल से दूर
कहीं 
पर जाकर
कुछ कुछ जल जाने 
पर लिख ना 

अपना अपना 
होना खाक 
थोड़ा पानी
थोड़ी राख 

अपनी किताब
अपने पन्ने
अपनी अपनी
कुछ बकवास 

अपना उल्लू
अपनी सीध

बेवकूफ 
‘उलूक’

थोड़ा सा 
कुछ 
अब 
तो सीख 

अपनी गाय 
अपना गोबर 
अपने कंडे
अपनी दीवार
अपनी आग 
अपनी राख 
अपने अपने
राग बे राग 
अपने कंडे
खुद ही थाप 
रोज सुखा
जला कुछ आग। 

वैधानिक चेतावनी: 
कृपया इस बकवास को ब्लॉगिंग यानि चिट्ठाकारी से ना जोड़ें

चित्र साभार: https://timesofindia.indiatimes.com

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

नींद खराब करने को गहरी जागते रहो जागते रहो का जाग लिखता है




कहने में 
क्या है 

कहता है 

कि 
लिखता है 

बस
आग 
और आग 
लिखता है 

दिखने में 
दिखता है 

थोड़ा 
कुछ धुआँ 
लिखता है 

थोड़ी कुछ 
राख लिखता है

आग 
लिखने से 
उठता है धुआँ 

बच 
जाती है 
कुछ राख 

फिर भी 
नहीं 
कहते हैं 
लोग 

कि 
खाक 
लिखता है 

सोच 
नापाक 
होती है 

पता ही 
नहीं
चलता है 

लिखता है 

तो सब 

पाक
और 
पाक लिखता है 

शेरो शायरी 
गीत और गजल 

सब कुछ 
एक साथ 

एक पन्ने
पर 
लिख देने के 

ख्वाब 
लिखता है 

जब 
मन में 
आता है 

लिखने 
बैठ
जाता है 

कोई 
नहीं
कहता है 

दाल भात

और 
साग
लिखता है 

‘उलूक’
को 
पता होता है

अंधेरी 
रात में 

खुद
के डर 
मिटाने को 

जागते रहो 
जागते रहो 

का
जाग 
लिखता है ।

चित्र साभार: 


शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

जी डी पी और पी पी पी में कितने पी बस गिने कितने हैं मगर किसी को ना बतायें



कुछ
चुटकुले

अगर
समझ में
ना भी आयें

खुल के
खिलखिला के

अगर
हँस
ना भी पायें

कोशिश
कर लें
थोड़ा सा

बिना
बात भी
कभी यूँ ही
मुस्कुरा
जायें 

किस लिये
समझनी
हर बात
अपने
आस पास की

कुछ
हट के
माहौल
भी

जरा जरा
मरा मरा
छोड़ कर

बनाने
को
कहीं चले जायें

कविता कहानी
गजल शेर के
मज़मून
भरे पड़े हैं

जब
फिजाँ में हर तरफ

किसलिये
बेकार में

उलझे हुऐ से
विषय
कबाड़ से
उठा उठा कर
ले आयें

मजबूत हैं
खम्बें
पुलों के
मान कर

उफनती
नदी में
उछलती
नावों में
अफीम ले के
थोड़ी सी

हो सके
तो
सो जायें

खबर
मान लें
बेकार सी
फिसली हुई
‘उलूक’
के
झोले के छेदों से

जी डी पी
पी पी पी
जैसी
अफवाहों को

सपने देखें
खूबसूरत
से
दिन के
चाँद और तारों के

 बॉक्स आफिस
में
हिट होगी
फिर से
फिलम
पड़ोसी के
घर में लगी आग
की
अगले पाँच सालों
में एक बार

जल जला
कर
हो गया होगा
राख

मान लें 

शोर कर
ढोल
और
नगाड़ों का
इतना

कि
पूछने का
रोग लगे
रोगी

किसी से

क्या हुआ
कैसे हुआ
और
कब हुआ

पूछ ही
ना पायें।
चित्र साभार: https://www.cleanpng.com

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

स्टेज बहुत बड़ा है आग देखने वालों की भीड़ है ‘उलूक’ तमाशा देख मदारी का


किस लिये
ध्यान देना

कई
दिशाओं में

कई कई
कोसों तक
बिखरे हुऐ

सुलगते
छोटे छोटे
कोयलों
की तरफ

ना
आग ही
नजर आती है

ना ही
नजर आता है
कहीं
धुआँ भी
जरा सा

बेशरम
कोयले
समय भी
नहीं लेते हैं

कब
राख हो जाते हैं

कब
उड़ा ले जाती है
हवा

निशान भी
इतिहास
हो जाते हैं

इतिहास
लिखे जाने से
पहले ही

अपने
घर से
कहीं
 बहुत दूर
लगी

बहुत
बड़ी
लपट की
बड़ी आग

होती है
काम की आग

आकर्षित
करते हैं
उसके रंग

चित्र भी
अच्छे आते हैं
कैमरे से

कलाकार
की
तूलिका भी
दिखा सकती है
कमाल

आग को
रंगों में उतार कर
कागज पर

लगता तो है

कहीं
कुछ जला है

धुँआ
भी हुआ है

और
सोच भी
हो पाती है
कुछ
पानी पानी सी

कौन सा
गीला
करना होता है
समय को
शब्दों से

और
कहाँ
लिखा होता है

किसी की भी
मोटी
पूज्यनीय
किताब में

कि
जरूरी होता है
उड़ा देना
राख को
गरमी
रहते रहते

इत्मीनान
भी कोई
चीज होती है

इतिहास
के लिये
ना सही

बही खाते में
लिख कर
जमा कर लेने
से भी
फायदा होता है

साठ सत्तर
दशक बाद
कोई भी
 किसी पर भी
लगा देगा
इल्जाम

चकमक पत्थर
घिस घिसा कर
आग लगाने का

‘उलूक’
तमाशा देख
मदारी का

स्टेज
बहुत बड़ा है

आग
देखने वालों की
भीड़ है

वैसे भी

आग
किसी को
सोचनी जो
क्या है

सोच लेने
से भी
कुछ
जलता
नहीं है 

ठंड रख।

चित्र साभार: https://pngtree.com

मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
----------------------------

पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
-----------------------------


खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
---------------------------------


बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
-------------------------------


बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------


पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------------


शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
----------------------


‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
-------------------------------

चित्र साभार: https://pngtree.com

मंगलवार, 12 मार्च 2019

चिट्ठाजगत और घर की बगल की गली का शोर एक सा हुआ जाता है

अच्छा हुआ

भगवान
अल्ला ईसा

किसी ने

देखा नहीं
कभी

सोचता

आदमी
आता जाता है

आदमी
को गली का
भगवान
बना कर यहाँ

कितनी
आसानी से

सस्ते
में बेच
दिया जाता है

एक
आदमी
को
बना कर
भगवान

जमीन का

पता नहीं

उसका
आदमी
क्या करना
चाहता है

आदमी
एक आदमी
के साथ मिल कर

खून
को आज
लाल से सफेद

मगर
करना चाहता है

कहीं मिट्टी
बेच रहा है
आदमी

कहीं पत्थर

कहीं
शरीर से
निकाल कर

कुछ
बेचना चाहता हैं

पता नहीं
कैसे कहीं
बहुत दूर बैठा

एक आदमी

खून
बेचने वाले
के लिये
तमाशा
चाहता है

शरम
आती है
आनी भी
चाहिये

हमाम
के बाहर भी

नंगा हो कर

अगर
कोई नहाना
चाहता है

किसको
आती है
शरम
छोटी छोटी
बातों में

बड़ी
बातों के
जमाने में

बेशरम

मगर
फिर भी
पूछना
चाहता है

देशभक्त
और
देशभक्ति

हथियार
हो चले हैं
भयादोहन के

एक चोर

मुँह उठाये
पूछना चाहता है

घर में
बैठ कर

बताना
लोगों को

किस ने
लिखा है
क्या लिखा है

उसकी
मर्जी का

बहुत
मजा आता है

बहुत
जोर शोर से

अपना
एक झंडा लिये

दिखा
होता है
कोई
आता हुआ

लेकिन
बस फिर

चला भी
यूँ ही
जाता है

आसान
नहीं होता है
टिकना

उस
बाजार में

जहाँ

अपना
खुद का
बेचना छोड़

दूसरे की
दुकान में
आग लगाना

कोई
शुरु हो
जाता है

‘उलूक’

यहाँ भी
मरघट है

यहाँ भी
चितायें
जला
करती हैं

लाशों को
हर कोई
फूँकने
चला
आता है

घर
मोहल्ले
शहर में
जो होता है

चिट्ठाजगत
में भी होता है

पर सच

कौन है
जो देखना
चाहता है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

सोमवार, 22 अक्टूबर 2018

बकवास करना भी कभी एक नशा हो जाता है अपने लिखे को खुद ही पढ़ कर अन्दाज कहाँ आता है



कहावतें भी समय के साथ बह जाती हैं 
चिंता चिता के समान होती होंगी कभी 
अब मगर चितायें भी बहा ले जायी जाती हैं 

लकड़ियाँ रह भी गयी अगर जलाती नहीं है 
बस थोड़ा थोड़ा सा सुलगाती हैं 

इसलिये लगा रह चिंता कर 
लेकिन कभी कभी बकवास भी पढ़ लिया कर 

अंगरेजी में कहते हैं फॉर ए चेंज 

बकवास लिखने के कई फायदे जरूर हैं 
फिर भी बकवास लिखने के कायदे भी
कुछ हजूर हैं 

कभी कोशिश कर के देख ले लिखने की 
कोई भी बकवास 
देख कर समझ कर कुछ भी 
अपने ही अगल बगल अपने ही आसपास

बकवास कभी इतिहास नहीं हो पाती है 
ध्यान रहे एक दिन के बाद 
दूसरे दिन साँस भी नहीं ले पाती है 

कोई देखने नहीं आता है 
कोई नहीं 
हाँ तो मतलब देखना पड़ता है जो किया जाता है 
उसको कितनों के द्वारा नजर के दायरे में लिया जाता है 

सोचो जरा 
कूड़े के ढेर में कौन कौन सा 
किस प्रकार का कैसा कैसा कूड़ा गेरा गया है 
कौन इतना ध्यान लगाता है 

सारा मिलमिला कर सब एक जैसा 
सार्वभौमिक हो जाता है 
एक तरह से ईश्वरीय हो जाता है 
सर्वव्यापी क्या होता है महसूस करा जाता है 

अब सब लोग कूड़ा क्यों देखेंगे भला 
अच्छा भी तो बहुत सारा होता है 
जिस पर सबका हिस्सा माना जाता है 

और जो मिलजुल कर साथ साथ 
कूड़े को पाँव के नीचे दबाकर 
उँचे स्वर में गाया जाता है 

दुर्गंध क्या होती है 
जब सड़ाँध है को होने के बावजूद 
सर्वसम्मति से नकार दिया जाता है 
मतलब इस सब के बीच कोई लिखने में लग जाता है 

ऊल जलूल लिखा हुआ किसी को 
कविता कहानी जैसा नजर आना शुरु हो जाता है 

क्या किया जाये 
अंधा लूला लंगड़ा काना 
किस दिशा में किस चीज में रंगत देख ले जाये 
कौन बता पाता है 

अब ‘उलूक’ इस सब के बीच 
बकवास करने के धंधें में कब पारंगत हो जाता है 

उसे भी तब अन्दाज आता है 
जब कोई कहना शुरु कर देता है 

अबे तू किसलिये फटे में टाँग अड़ा कर 
इतना खिलखिलाता है 

सार ये है कि 
ठंड रखना सबसे अच्छा हथियार माना जाता है 

कुछ दिन चला कर देख ले 
कितना मजा आता है ।

***********************************************
कुरेदना राख को उसका
देखिये जनाब बबाल कर गया 
आग बैठी देखती रह गयी बहुत दूर से
कमाल कर गया ।
***********************************************

चित्र साभार: http://www.i2clipart.com

शनिवार, 4 अगस्त 2018

आग पर लिखले कुछ भी जलता हुआ इससे पहले कह दे कोई सुन जरा सा अब कुछ बची हुयी राख पर लिख


ख्वाब
पर लिखना
है जनाब

 लिख और
बेहिसाब लिख

फेहरिस्त
छोटी सी लेकर एक
जिन्दगी के पूरे हिसाब पर लिख


रोज
लिखता है कुछ
देखे हुऐ कुछ पर
कुछ भी अटपटा बिना सोचे

सोच कर
जरा लिख कर दिखा
थोड़ा सा कुछ सुरखाब पर लिख

बना रहा है
ख्वाब के समुन्दर
कोई पास में ही

डूब कर
ख्वाबों में उसके ही सही
ले आ एक ख्वाब माँगकर कभी
लिख कुछ उसी के ख्वाब पर लिख

किसी की झूठी 
आब के रुआब से निकल कर आ
आभासी नशे में झूम रही
सम्मोहित कायनात के
वीभत्स हो गये शबाब पर लिख

लिख और
बस थोड़ी सी देर रुक
फिर उस लिखे से
मिलने वाले अजाब पर लिख


किसी ने
नहीं कहा है
फिर से सोच ले
‘उलूक’
एक बार और

ख्वाब पर
लिखने के बहाने भी
अपनी रोजमर्रा की
किसी भड़ास पर लिख ।

चित्र साभार: www.hikingartist.com


अजाब: पीड़ा, दु:ख, पापों का वह दण्ड जो यमलोक में मिलता है, यातना,
फेहरिस्त: सूची पत्र
आब: छवि, चमक, तड़क-भड़क, इज्जत, पानी
रुआब: रोब, शक्ति, सम्मान, भय, आतंक या कोई विशेष बात आदि से प्राप्त प्रसिद्धि
शबाब: यौवन काल, जवानी।

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

रोटियाँ हैं खाने और खिलाने की नहीं हैं कुछ रोटियाँ बस खेलने खिलाने के लिये हैं

वो
अपनी
रोटियाँ
सेकता है
किसी और
की आग में

चारों तरफ
लगी आग है
कुछ रोटियों
के ढेर हैं
और कुछ
राख है

ऐसा
नहीं है कि
भूखा है वो
और उसे
खानी हैं
रोटियाँ

गले तक
पेट भर
जाने के बाद
कुछ देर
खेलने की
आदत है उसे

लकड़ियाँ
सारे जंगल
की यूँ ही
जला देता
है हमेशा

दिल
जला कर
पकायी गयी
रोटी का स्वाद
लाजवाब होता है

रोटियों में
इतना दखल
होना भी
गजब की बात है

रोटियाँ
पढ़ाता है
और
पूछता भी है
फिर से
समझाऊँ
रोटियाँ शुरु से

रोटियों से
क्या करेगा
क्या करेगा
आग और
राख से ‘उलूक’

किसी की
भूख है
किसी का
चूल्हा है

रोटियाँ
किसी
और की हैं।

चित्र साभार: www.123rf.com

रविवार, 14 जनवरी 2018

अलाव में रहे आग हमेशा ही सुलगती हुई इतनी लकड़ियाँ अन्दर कहीं अपने कहाँ जमा की जाती हैं

लकड़ियों से उठ रही लपटें 
धीरे धीरे 
एक छोटे से लाल तप्त कोयले में 
सो जाती हैं 

रात भर में सुलग कर 
राख हो चुकी 
कोयलों से भरी सिगड़ी 
सुबह बहुत शांत सी नजर आती है 

बस यादों में रह जाती हैं 
ठंडी सर्द शामें जाड़ों के मौसम की 

धीमे धीमे 
अन्दर कहीं सुलगती हुई आग 
बाहर की आग से जैसे 
जान पहचान लगवाना चाहती हैं 

लकड़ी का जलना 
आग धुआँ और फिर राख 
इतनी सी ही तो होती है जिन्दगी 

फिर भी 
सिरफिरों की आग से खेलने की आदत 
नहीं जाती है 

कुरेदने में बहुत मजा आता है 
बुझी हुई राख को 

जलती 
तेज लपटों से तो दोस्ती 
बस दो स्केल दूर से ही की जाती है 

कहाँ सोच पाता है आदमी 
एक अलाव हो जाने का खुद भी 
आखरी दौर में कभी 

अन्दर 
जलाकर अलाव ताजिंदगी 
ना जाने बेखुदी में 
कितनी कितनी आगें पाली जाती हैं 

‘उलूक’ 
कुछ भी लिख देना 
इतना आसान कहाँ होता है

किसी भी बात पर 
फिर भी 
किसी की बात रखने के लिये 

बात
कुछ इस तरह भी 
अलाव में
अन्दर सेक कर 
बाहर पेश की जाती हैं । 

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

शनिवार, 4 नवंबर 2017

बातों से खुद सुलगी होती हैं बातें कहाँ किसी ने जलाई होती हैं


ठीक बात
नहीं होती है

कह देना
अपनी बात
किसी से भी

कुछ बातें
कह देने की
नहीं होती हैं
छुपायी जाती हैं

बात के
निकलने
और
दूर तक
चले जाने
की बात पर
बहुत सी
बातें कही
और
सुनी जाती हैं
सुनाई जाती हैं

कुछ लोग
अपनी बातें
करना
छोड़ कर

बातों बातों
में ही
बहुत सारी
बात
कर लेते हैं

बातों बातों में
किसी की बातें
बाहर
निकलवाकर

उसी से
कर लेने
की निपुणता
यूँ ही हर
किसी को
नहीं आयी
होती है

एक
दो चार दिन के
खेल खेल में
सीख लेना
नहीं होता है
बातों को
लपेट लेना
सामने वालों की


उसकी
अलग से
कई साल 

सालों साल

बातों बातों में
बातों के स्कूलों में
पढ़ाई लिखाई होती है

‘उलूक’
नतमस्तक
होता है
बातों के ऐसे
शहनशाहों के
चरणों में
ठंड रख कर
खुद हिमालयी 

बर्फ की 

हमेशा अपनी
बातों में जिसने
दूसरे की
दिल की
बातों की
नरम आग
सुलगा
सुलगा कर
पानी में
भी आग
लगाई
होती है ।


चित्र साभार: ClipartFest

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बुखार कैसा भी हो निकलता ही है कुछ बाहर बुदबुदाने में

बस चार
दिन की है
बची बैचेनी

फिर बजा
लेना बाँसुरी
लगा कर आग
रोम को पूरे

सब कुछ
बदल
जायेगा जब
बनेगी राख
देख लेना
मिचमिचाती
सी अगर
बन्द भी होगी
तब भी आँख

धुआँ खाँसेगा
खुद बूढ़ा
होकर जले
जंगल का
बहेगी नाक
आपदा के
पानी की
बहुत जोरों से

सारा हरा भूरा
और सारा भूरा
हरा हो लेगा
यूँ ही बातों
बातों के बीच

घुस लेंगे सारे
दीमक छोड़
कर कुतरना
जीते हुऐ और
मरे हुऐ को
जैसे थे जहाँ थे
की स्थिति में

उगना शुरु
होंगे जंगल
के जंगल
लदने लगेंगे
फल फूल
पौंधों में पेड़
बनने से
ही पहले

दौड़ेंगे उल्टे
पाँव बंदर
सुअर
और बाघ
घर वापसी
के लिये
खुशी से

दीवाली
के दीये
खनखनायेंगे
पुराने पीतल
के बने घर के
भरे लबलबा
तेल ही तेल से

उधरते घरों
के आंगन
में रम्भायेंगी
भैसें गायें और
बकरियाँ

सूखे खुरदरे
उधरते पहाड़ों
के हाड़ों से
निकलते
सारे के सारे
नदी धारे
दिखेंगे
छलछलाते

सपने बेचने
निकले हैं अपने
खुद के
लोग कुछ
थोड़े से
खरीददार
सारे सब
लगे हैं
साथ में
अपने

अपने
हिसाब से
अपनी
किताबें
पढ़ कर
समझ कर
गणित
दो में दो
जोड़ कर
करने पाँच
सात या
और
ज्यादा
जितना
हो सके
जहाँ तक

चल तैयार
हो ले तू भी
‘उलूक’
लगाने
स्याही
कहीं
थोड़ी सी
अपने भी
गवाही देगें
सुना हैं
रंग नाखूनों के
आने वाले
दिनो में
उत्सवों में
जीत के
पहाड़ों की।

चित्र साभार: Freepik

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

अपनी समझ से जो जैसा समझ ले जाये पर दीपावली जरूर मनाये

रोशनी
ही रोशनी

इतनी
रोशनी
आँखें
चुधिया जायें

शोर ही शोर
इतना शोर

सुनना सुनाना
कौन किस से कहे

कान के पर्दे
फटने से कैसे
बचाये जायें

घुआँ धुआँ
आसमान

रात के तारे
और चाँद
की बात
करना बेकार

जब लगे
सुबह का
सूरज
धीमा धीमा
शरमाता सा

जाड़ों
में जैसे
खुद ही
ठिठुरता
कंंपकपाता

शाम
होने से
पहले ही
निढाल हो
ढल जाये

बूढ़ा
साँस
लेने के
लिये तड़पे
निढाल हो जाये

चिड़िया
कबूतर
डर कर
प्राण ही
छोड़ जायें

घर के
निरीह
जानवर
भयभीत से

दबाये हुऐ
पूँछें अपनी

इस
चारपाई
के नीचे से
निकल कर
दूसरी
चारपाई

किसी
कोठरी के
अंधेरे कोने में
शरण लेते
हुऐ नजर आयें

लक्ष्मी
घर की
करे इंतजार

बाहर की
लक्ष्मी के
आने का

नारायण
और
आदमी
दोनो
एक दिन
के आम
आदमी हो जायें

खुशी
होनी ही
चाहिये
बाँटने के
लिये पास में

किसी को
जरूरत है
या नहीं

एक अलग
ही मुद्दा
हो जाये

दो रास्तों
के बीच के
पेड़ की सूखी
टहनी पर
बैठा ‘उलूक’

दूर शहर
में कहीं

लगी
हुई आग
और रोशनी
के फर्क
को समझने
के लिये

दीपासन
लगाया हुआ
नजर आये

जैसा भी है
मनाना है
आईये दीप
जलायें
दीप पर्व
धूम धड़ाके
धूऐं से ही
सही मनायें ।

www.clipartsheep.com