होने को
माना
बहुत कुछ
होता है
कौन सा
कोई
सब कुछ
कह देता है
अपनी
फितरत से
चुना जाता है
मौजू
कोई
कहता है
और
कहते कहते
सब कुछ
कह लेता है
जो
नहीं चाहता
कहना
देखा सुना
फिर से
वो
चाँद की
कह लेता है
तारों की
कह लेता है
आत्मा की
कह लेता है
परमात्मा की
कह लेता है
सुनने वाला
भी
कोई ना कोई
चाहिये
ही होता है
कहने वाले को
ये भी
अच्छी तरह
पता होता है
लिखने वाले
का भी
एक भाव होता है
सुनने वाला
लिखने वाले से
शायद
ज्यादा
महंगा होता है
सुन्दर लेखनी
के साथ
सुन्दर चित्र हो
सुन्दर चित्र हो
ज्यादा नहीं
थोड़ी सी भी
अक्ल हो
सोने में
सुहागा होता है
हर कोई
उस भीड़ में
कहीं ना कहीं
सुनने के लिये
दिख रहा होता है
बाकी बचे
बेअक्ल
उनका अपना
खुद का
सलीका होता है
जहाँ
कोई नहीं जाता
वहां जरूर
कहीं ना कहीं उनका
डेरा होता है
कभी किसी जमाने में
चला आया था
मैं यहाँ
ये सोच के
ये सोच के
शायद
यहां कुछ
और ही
होता है
होता है
आ गया समझ में
कुछ देर ही से सही
कि
आदमी
जो मेरे वहाँ का होता है
जो मेरे वहाँ का होता है
वैसा ही
कुछ कुछ
यहाँ का होता है
अंतर होता है
इतना
कि
यहाँ तक आते आते
वो
ऎ-आदमी
से
ऎ-आदमी
से
ई-आदमी
हो लेता है ।