उलूक टाइम्स: सलीका
सलीका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सलीका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

बात करने का सलीका बातें करते करते ही आ पाता है

अपने
मतलब
की बातें
करने के
लिये ही
हर कोई
बात करने
के लिये
आता है

नहीं भी
करना चाहो
अगर बात
कोई अपनी
तरफ से
अपनी बात
को घुमा
फिरा कर
उसी तरह
की बातों
की तरफ
खींच तान
कर सारी
बातों का
रास्ता
बनाता है

सब को
आती है
होशियारी
अपने अपने
हिसाब की
दूसरे के
हिसाब के
घाटे के
बारे में
कौन जानना
चाहता है

पता रहता है
उबल रही है
कोई चाय
दिमाग के अंदर

पत्तियों को
छानने के
लिये छलनी
अपनी
अपने घर
से ही ले
आता है

खुदगर्ज
जितना
होता है बड़ा
खुद उतनी
ही बड़ी
बातों में उसे
सामने वाले
को उलझाना
आता है

उसकी
इसकी
बातों की
बातें ही
बस बातें
होती है
अपनी बात
करने में
बात ही
बात में
बातों से
कन्नी काट
जाता है

बातों ही
बातों में
बातों से
बातों को
खोदना भी
बात करने
वालों से
ही सीखा
जाता है

और
कोई ऐसा
भी होता
है कहीं
करता है
खुद की
बातें खुद
से ही
पर क्यों

‘उलूक’
देखता है
किसी के
बुदबुदाने
को बरसों
से अपने
सामने से
पर समझ ही
नहीं पाता है

खुद से
खुद की
बातें
करने वाला
उसे बात
ही नहीं
मानता है
कवि की
कविता
कहने पर
कुछ दाँत
दिखाता है।

चित्र साभार : http://galleryhip.com/kids-conversation-clipart.html

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

घबरा सा जाता है गंदगी लिख नहीं पाता है

कितनी अजीब  
सी बात है
अब है तो है
अजीब ही सही
सब की बाते
एक सी भी तो
नहीं हो सकती
हमेशा ही
कोई खुद
अजीब होता है
उसकी बातों में
लेकिन बहुत
सलीका होता है
कोई बहुत
सलीका दिखाता है
बोलना शुरु होता है
तो अजीब पना
साफ साफ चलता
हुआ सा दिख जाता है
किसी के साथ
कई हादसे ऐसे
होते ही रहते हैं
वो नहीं भी
सोचता अजीब
पर बहुत से लोग
उसे कुछ अजीब
सोचने पर
मजबूर कर देते हैं
थोड़ा अजीब ही
सही पर कुछ अजीब
सा सभी के
पास होता ही है
गंदगी भी होती है
सब कुछ साफ
जो क्या होता है
पर साफ सुथरे
कागज पर जब
कोई कुछ टीपने
के लिये बैठता है तो
गंदगी चेपने की
हिम्मत ही
खो देता है
हर तरफ
सब लोगों के
सफाई लिखे हुए
सजे संवरे कागज
जब नजर आते है
लिखने वाले
के दस्ताने
शरमा शरमी
निकल आते है
अपने आस पास
और अपने अंदर
की गंदगी से
बचे खुचे सफाई
के कुछ टुकड़े
ढूंढ लाते है
सब सब की
तरह लिखा
जैसा हो जाता है
रोज सफाई
लिखने वाले को
तो बहुत सफाई से
लिखना आता है
पर ‘उलूक’ के लिखे
के किनारे में कहीं
एक गंदगी का धब्बा
उस पर खुल कर
ठहाके लगाना
शुरू हो जाता है ।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

पहचान नहीं बना पायेगा सलीका अपना अगर दिखायेगा


जिंदगी

कोई चावल

और दाल के
बडे़ दाने
की तरह
नहीं है

कि
बिना

चश्मा लगाये
साफ कर
ले जायेगा

जीवन
को
सीधा सीधा
चलाने की
कोशिश
करने वाले

तेरी
समझ में

कभी ये भी
आ जायेगा

जब
तरतीब

और सलीके
से साफ
किये जा चुके

जिंदगी
के
रामदाने
का डिब्बा

तेरे
हाथ से

फिसल जायेगा

डब्बे
का
ढक्कन
खुला नहीं

कि
दाना दाना
मिट्टी में
बिखर कर
फैल जायेगा

समय रहते
अपने
आस पास
के
माहौल
से
अगर

तू अभी भी

कुछ नहीं
सीख पायेगा

खुद भी
परेशान
रहेगा


लोगों की

परेशानियों
को भी
बढ़ायेगा

तरतीब
से लगी

जिंदगी
की किताबें


किसी
काम की

नहीं होती है 

सलीकेदार
आदमी की

पहचान होना

एक
सबसे
बुरी
बात होती 
है

आज
सबसे सफल

वो ही
कहलाता है


जिसका
हर काम

फैला हुआ
हर जगह
पर
नजर आता है


एक काम को

एक समय में
ध्यान लगा कर
करने वाला


सबसे बड़ा
एक
बेवकूफ
कहलाता है


बहुत सारे
आधे अधूरे

कामों को
एक साथ

अपने पास
रखना


और
अधूरा
रहने
देना ही

आज के
समय में
दक्षता की

परिभाषा
बनाता है


इनमें
सबसे महत्वपूर्ण

जो होता है

वो
हिसाब
किताब
करना कहलाता है


जिंदगी की
किताब का

हिसाब हो

या उसके

हिसाब की
किताब हो


इसमें
अगर कोई

माहिर
हो जाता है


ऊपर
वाला भी ऎसी

विभूतियों को

ऊपर

जल्दी बुलाने से
बहुत कतराता है

इन सबको
साफ
सुथरा
रखने वाला


कभी
एक गलती
भी
अगर
कर जाता है


बेचारा
पकड़ में

जरूर
आ जाता है


अपनी
जिंदगी
भर की

कमाई गई

एकमात्र

इज्जत को
गंवाता है


सियार
की तरह

होशियार
रहने वाला


कभी किसी
चीज को

तरतीब से
इसी लिये

नहीं लगाता है

घर में हो
या
शहर में हो


एक
उबड़खाबड़
अंदाज
से
हमेशा
पेश आता है


हजार
कमियाँ
होती हैं

किताब में
या हिसाब में


फिर भी
किसी से
कहीं
नहीं
पकड़ा जाता है


अपनी
एक अलग
ही
छवि बनाता है


समझने
लायक

कुछ होता
नहीं है

किसी में

ऎसे
अनबूझ
को
समझने के लिये


कोई
दिमाग भी

अपना नहीं
लगाता है


ऎसे समय
में ही
तो
महसूस होता है


तरतीब
से करना

और
सलीके
से रहना


कितना
बड़ा बबाल

जिंदगी का
हो जाता है


एक छोटे
दिमाग वाला
भी
समझने के लिये

चला आता है

बचना
इन सब से


अगर
आज भी

तू चाहता है

सब कुछ
अपना भी


मिट्टी में
फैले हुवे

रामदाने के
दानों की
तरह

क्यों नहीं
बना
ले जाता है ।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

यहाँ होता है जैसा वहाँ होता है

होने को 
माना
बहुत कुछ 
होता है

कौन सा 
कोई 
सब कुछ 
कह देता है

अपनी 
फितरत से 
चुना जाता है 
मौजू

कोई 
कहता है 
और
कहते कहते 
सब कुछ 
कह लेता है 

जो 
नहीं चाहता 
कहना
देखा सुना 
फिर से 

वो 
चाँद की 
कह लेता है 

तारों की 
कह लेता है

आत्मा की 
कह लेता है

परमात्मा की 
कह लेता है 

सुनने वाला 
भी 
कोई ना कोई 

चाहिये 
ही होता है 

कहने वाले को 
ये भी
अच्छी तरह 
पता होता है 

लिखने वाले 
का भी 
एक भाव होता है

सुनने वाला 
लिखने वाले से 
शायद 
ज्यादा 
महंगा होता है 

सुन्दर लेखनी 
के साथ
सुन्दर चित्र हो

ज्यादा नहीं 
थोड़ी सी भी 
अक्ल हो 
सोने में 
सुहागा होता है 

हर कोई 
उस भीड़ में
कहीं ना कहीं 
सुनने के लिये 
दिख रहा होता है 

बाकी बचे 
बेअक्ल
उनका अपना 
खुद का 
सलीका होता है

जहाँ 
कोई नहीं जाता
वहां जरूर 
कहीं ना कहीं उनका 
डेरा होता है

कभी किसी जमाने में
चला आया था 
मैं यहाँ
ये सोच के 

शायद 
यहां कुछ 
और ही
होता है

आ गया समझ में 
कुछ देर ही से सही
कि 
आदमी
जो 
मेरे वहाँ का होता है 

वैसा ही 
कुछ कुछ 
यहाँ का होता है 

अंतर होता है 
इतना 
कि 
यहाँ तक आते आते

वो
ऎ-आदमी
से 
ई-आदमी 
हो लेता है ।