उलूक टाइम्स: जैसा
जैसा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जैसा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 1 जनवरी 2014

किसी के यहाँ होना शुरु हो गया है क्या कुछ नया यहाँ तो आज भी अंधेरा हो रहा था

हर साल की तरह
पिछले साल के
अंतिम दिन
वैसा ही कुछ
महसूस हुआ
जैसा पिछले
के पिछले
और उससे
कई पिछले
सालों में था लगा
कुछ ऐसा जैसे
साल बीतते ही
अगले दिन से
जुराब पैर का
उल्टा खुद ही
हो जाने वाला हो
फटा हुआ
ऐड़ी का हिस्सा
अपने आप
सिल सिला कर
पूरा हो जाने वाला हो
खुशी के मारे
थर्टी फर्स्ट का
सुरूर कुछ और
सुर्ख होता चला गया
एक के बाद एक
नहीं पीने वाला
भी पता नहीं
कितना कितना
और क्या क्या
पीता चला गया
सब पी रहे थे
कुछ ना कुछ
बिना सोचे समझे
कहीं शराब थी
नशा नहीं था
कहीं पानी था
और बेहिसाब
हो रहा नशा
ही नशा था
सभी को
लग रहा था
बस आज की
रात गुजर जाये
किसी तरह से
कल से तो कुछ
नये तरह के
साल का पदार्पण
पुराने साल की
जगह पर हो रहा था
सुबह आँख
खुलते खुलते
नशेड़ियों का नशा
जब धीरे धीरे
हवा हो रहा था
सूरज निकला था
उसी तरह से
जैसे बरसों से
पूरब के एक कोने
से निकल रहा था
आईना भी उसी तरह
से बस चुपचाप था
कुछ भी नया
नहीं कह रहा था
सारे डर अंदर
के वहीं कहीं
कोने में जमे हुऐ
नजर आ रहे थे
जहाँ बरसों से
अंंधेरा अंधेरा
बस अंधेरा ही
हो रहा था
उन सब के
बारे में ही
सोच में मोच
आती दिखना शुरु
हो जा रही थी
जिन्हे देखते हुऐ
हमेशा ही कुछ
अजीब अजीब सा
पता नहीं किस
जमाने से हो रहा था
पहला ही
दिन था शायद
इसीलिये विश्वास
नहीं हो रहा था
क्या पता
दो एक दिन
और लगें कुछ
और बदलने
सम्भलने में
आज तो कुछ वैसा
वैसा ही हो रहा था
जैसा पिछले साल के
तीन सौ पैसठ दिनों
में रोज हो रहा था ।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

यहाँ होता है जैसा वहाँ होता है

होने को 
माना
बहुत कुछ 
होता है

कौन सा 
कोई 
सब कुछ 
कह देता है

अपनी 
फितरत से 
चुना जाता है 
मौजू

कोई 
कहता है 
और
कहते कहते 
सब कुछ 
कह लेता है 

जो 
नहीं चाहता 
कहना
देखा सुना 
फिर से 

वो 
चाँद की 
कह लेता है 

तारों की 
कह लेता है

आत्मा की 
कह लेता है

परमात्मा की 
कह लेता है 

सुनने वाला 
भी 
कोई ना कोई 

चाहिये 
ही होता है 

कहने वाले को 
ये भी
अच्छी तरह 
पता होता है 

लिखने वाले 
का भी 
एक भाव होता है

सुनने वाला 
लिखने वाले से 
शायद 
ज्यादा 
महंगा होता है 

सुन्दर लेखनी 
के साथ
सुन्दर चित्र हो

ज्यादा नहीं 
थोड़ी सी भी 
अक्ल हो 
सोने में 
सुहागा होता है 

हर कोई 
उस भीड़ में
कहीं ना कहीं 
सुनने के लिये 
दिख रहा होता है 

बाकी बचे 
बेअक्ल
उनका अपना 
खुद का 
सलीका होता है

जहाँ 
कोई नहीं जाता
वहां जरूर 
कहीं ना कहीं उनका 
डेरा होता है

कभी किसी जमाने में
चला आया था 
मैं यहाँ
ये सोच के 

शायद 
यहां कुछ 
और ही
होता है

आ गया समझ में 
कुछ देर ही से सही
कि 
आदमी
जो 
मेरे वहाँ का होता है 

वैसा ही 
कुछ कुछ 
यहाँ का होता है 

अंतर होता है 
इतना 
कि 
यहाँ तक आते आते

वो
ऎ-आदमी
से 
ई-आदमी 
हो लेता है ।