उलूक टाइम्स: बूढ़ा
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

बात कोई नई नहीं कह रहा हूँ आज फिर हुई कहीं बस लिख दे रहा हूँ

समय के साथ
समय का मिलना
धीरे धीरे कम
होता चला गया
बच्चों से अपेक्षाओं
का ढेर कहीं
मन के कोने में
लगता चला गया
एक बूढ़ा और
एक बुढ़िया अब
अकले में
एक दूसरे से
बतियाते बतियाते
कहीं खो से जाते हैं
बात करते करते
भूल जाते हैं
बात कहाँ से
शुरु हुई थी
कुछ ही देर पहले
फिर मुस्कुराते हैं
उम्र के आखिरी
पड़ाव पर
दिखता है
कहीं असर
अपेक्षाओं
के भार का
फिर खुद बताना
शुरु हो जाते हैं
किस तरह
काटना होता है
समय को
समय की
ही छुरी से
रोज का रोज
कतरा कतरा
दिखने लगता है
कहीं दूर पर
अकेली
भटकती हुई
खुद की
परछाई भी
जैसे उन्ही
की तरह
ढूँढ रही हो
खुद को
खुद में ही
फिर बूढ़ा
देखता है
बुढ़िया के
चेहरे की
तरफ और
जवाब दे देता है
जैसे बिना कोई
प्रश्न किये हुऐ
किसी से भी
क्या सिखाया था
बच्चों को कभी
कि अ से अदब
भी होता है
नहीं सिखाया ना
मुझे पता है
सब सिखाते हैं
अ से अधिकार
और समझ आते ही
उसकी समझ में
आ जाता है
अपने लिये
अपना अधिकार
और फिर समय
नहीं बचता उसके
पास किसी और
के लिये कभी ।

रविवार, 27 मई 2012

एहसानमंद

एक बूढ़ा और
उसकी बुढ़िया
के एहसानो के
तले मैंने जब
अपने को गले
गले तक दबा
हुआ पाया
कुछ तो
करना ही
चाहिये उनके
लिये मेरे मन
में विचार
एक आया
हालत उनकी
देख कर
देखा नहीं
जा रहा था
एक चल नहीं
पा रहा था
दूसरे से
दाँत टूटने
के कारण
खाया ही
नहीं जा
रहा था
पैसे बच्चों
को देने से
बच्चे बिगड़
जाते हैं
किताबों में
लिखा है
आस पास
में उदाहरण
भी बहुत
मिल जाते हैं
बूढे़ लोग भी
उम्र के इस
पडा़व में
आकर बच्चे
जैसे ही तो
हो जाते हैं
ऎसा करता हूँ
समुद्र के
किनारे से
सौ कोस
दूर टापू
में एक
बडा़ सा
महल
बनाता हूँ
दोनो के
आने जाने
के लिये
दो दो
हाथी भी
रख कर
आता हूँ
खाने के
लिये एक
जहाज भर
कर अखरोट
पहुँचाता हूँ
कुछ धन
उनके नाम
से अपने
खाते में
हर महीने
जमा
करवाता हूँ
उपर वाला
जैसे ही उनको
बुलाता है
मैं समुद्र किनारे
एक मंदिर
बनवाता हूँ
उसमें दोनो
की मूर्ति
लगवाकर
माला फूलों की
पहनाता हूँ ।