उलूक टाइम्स: माला
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बुधवार, 8 अगस्त 2012

दूध मत दिखा दही जमा

सब 
सब देखते हैं
तू भी देख कर आ
किसी ने नहीं है तुझको कहीं रोका

थोड़ा बतायेगा
चलेगा
सब कुछ मत बता
हमको भी तो रहता ही होगा
कुछ पता

कोई नई छमिंंया
देख कर आया है अगर तो 
किस्सा सुना जा

काले बादल की तरह रोज 
कड़कड़ाता है यहाँ
कभी रिमझिम सी बारिश की फुहार भी
दिखा जा

कभी कभी 
कहीं पर थोड़ी मेहनत भी कर लिया कर 
कहाँ जा रही है दुनियाँ नये जमाने में 
देख भी कुछ लिया कर

देखते सुनते सभी आते हैं
कुछ ना कुछ इधर उधर बनाते हैं 
अपने सपने अपने ख्वाब भी मगर

एक तू है 
लकीर को पीटने वाला फकीर बन जाता है
जो जो देख कर आता है
यहाँ ला कर उलट पलट जाता है

अरे
कुछ अच्छा होता 
तो अखबार में नहीं आ रहा होता
साथ में माला पहने हुऎ तेरी 
फोटो भी दिखा रहा होता 

कब
सुधरेगा 
अब तो सुधर जा
लोगों से कुछ तो सीख 
कब ये सब सीखेगा

दूध देख कर आता है तो 
थोड़ा जामुन भी मिला लिया कर
दही बना कर चीनी के संग भी
कभी किसी को खिला दिया कर

'उलूक'
खाली खाली
दूध यहाँ मत लाया कर

लाता ही है
किसी मजबूरी में अगर
रख दिया कर

कम से कम
रोज तो
ना फैलाया कर । 

चित्र सभार: https://economictimes.indiatimes.com/

रविवार, 27 मई 2012

एहसानमंद

एक बूढ़ा और
उसकी बुढ़िया
के एहसानो के
तले मैंने जब
अपने को गले
गले तक दबा
हुआ पाया
कुछ तो
करना ही
चाहिये उनके
लिये मेरे मन
में विचार
एक आया
हालत उनकी
देख कर
देखा नहीं
जा रहा था
एक चल नहीं
पा रहा था
दूसरे से
दाँत टूटने
के कारण
खाया ही
नहीं जा
रहा था
पैसे बच्चों
को देने से
बच्चे बिगड़
जाते हैं
किताबों में
लिखा है
आस पास
में उदाहरण
भी बहुत
मिल जाते हैं
बूढे़ लोग भी
उम्र के इस
पडा़व में
आकर बच्चे
जैसे ही तो
हो जाते हैं
ऎसा करता हूँ
समुद्र के
किनारे से
सौ कोस
दूर टापू
में एक
बडा़ सा
महल
बनाता हूँ
दोनो के
आने जाने
के लिये
दो दो
हाथी भी
रख कर
आता हूँ
खाने के
लिये एक
जहाज भर
कर अखरोट
पहुँचाता हूँ
कुछ धन
उनके नाम
से अपने
खाते में
हर महीने
जमा
करवाता हूँ
उपर वाला
जैसे ही उनको
बुलाता है
मैं समुद्र किनारे
एक मंदिर
बनवाता हूँ
उसमें दोनो
की मूर्ति
लगवाकर
माला फूलों की
पहनाता हूँ ।

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

फूलों की बातें

बातों
बातों में
एक बात
निकल कर
आती है

फूलों की
उपस्थिति
तो सुकून
देती ही है
फूलों की
बातें भी
सबको
लुभाती हैं

पौपी की
कली अफीम
बनवाती है
बेनूरी पर
नरगिस
अपनी क्यों
रोती चली
जाती है
डैफोडिल
जलते भी है
रजनीगंधा
देख कर
लोगों के दिल
मचलते भी हैं

ये सब
फूल
फूलों में
अभिजात्य
कहलाये
जाते हैं

फूलों में
भी होती
है वर्ग
व्यवस्था
आदमी के
द्वारा ही
फूलों की
राजनीति में
समझाये
भी जाते हैं

हर एक
अपने
गमले के
फूल की
तारीफ में
उलझ
जाता है
खुश्बू
पाता है
खुश हो
जाता है

दूसरी ओर
जिंदगी के
अपने आप
उग आये
झाड़ों को
जब पता
चलता है

कहीं
आसपास
उनके कोई
खुश्बूदार
फूल
खिलता है

झाड़ घेर
लेते हैं
फूल को
और
दबा देते हैं
उसकी
खुश्बू को
फैलने से

सब कुछ
पूरी तैयारी
के साथ
होता है

हर झाड़
का अपनी
तरह से
इसमें कुछ
ना कुछ
हाथ होता है

उसके बाद
घर से लेकर
हर खबर में
बस
झाड़ ही झाड़
होता है

पर फूल तो
भाई 'उलूक'
फूल होता है

फैल ही
जाती है
उसकी
खुश्बू

शहर में
नहीं पर
दूर कहीं
जाकर

और
जब आती है
फूल और
उसकी
खबर

पड़ गयी
है किसी
की फूल
पर नजर

सारे झाड़
एक साथ
आते हैं
फूल को
फूलों की
माला
पहनाते हैं
और
फिर
लौट जाते है
अपने अपने
बाल
नोंंचते हुए

घर में दबाये
गये फूल
आकाश में
इसी तरह
फैल जाते हैं ।