बहुत अच्छा लगता है
कुछ सुकून सा मिलता है
वैचारिक रूप से
मूर्ख और दिवालिया
किसी का जब किसी के लिये
कहीं पर प्रयोग किया हुआ दिखता है
कुछ बातें कहीं से शुरु होती हैं
किसी बात को लेकर
और फिर
बातों बातों में ही बात का अपहरण
कर ले जाती हैं
ये एक बहुत बड़ी कलाकारी होती है
सबकी समझ में नहीं आती है
और जो समझ लेता है
खुद अपनी ही सोच के जाल में फंसता है
आज के दिन
अपने ही आसपास टटोल कर तो देखिये
फटी हुई जेब की तरह
ज्यादातर का दिमाग इसी तरह से चलता है
सारी सोच
फटे छेदों से निकल कर गिर चुकी होती है
चलते चलते
और जो निकलता है कुछ
वो कुछ भी नहीं से ही निकलता है
पता नहीं
ये कोई पुरानी खानदानी
बीमारी के लक्षण होते हैं
या किसी जमाने में आते पहुँचते
हर रास्ता इसी तरह संकरा
और झाड़ झंकार से भरा भरा सा हो निकलता है
आदत हो जाती है आने जाने वाले को
कोई कांटा सिर पर तो कोई पैर के नीचे से
अपने अपने हिस्से का माँस नोच कर निकलता है
खून निकलने की
परवाह किसी को भी नहीं होती है
हर किसी को किसी और का खून
निकलता देख कर बहुत और बहुत ही चैन मिलता है
कहना किसी को कुछ नहीं होता है
हर मूर्ख के विचार में
दिवालियापन होता ही है जो
इफरात से झलकता है
फ़ूलता फ़लता है
‘उलूक’
वैचारिक रूप से मूर्ख
और
वैचारिक रूप से दिवालिया
हो चुका तू ही अकेला
शायद अपनी सोच की
इस तारीफ को
लिखा हुआ कहीं पर
पढ़ कर खुश होता हुआ
सीटी बजाता दूसरी ओर को कहीं
दौड़ निकलता है ।
चित्र साभार: imgarcade.com