लकड़ियों से उठ रही लपटें
धीरे धीरे
एक छोटे से लाल तप्त कोयले में
सो जाती हैं
रात भर में सुलग कर
राख हो चुकी
कोयलों से भरी सिगड़ी
सुबह बहुत शांत सी नजर आती है
बस यादों में रह जाती हैं
ठंडी सर्द शामें जाड़ों के मौसम की
धीमे धीमे
अन्दर कहीं सुलगती हुई आग
बाहर की आग से जैसे
जान पहचान लगवाना चाहती हैं
लकड़ी का जलना
आग धुआँ और फिर राख
इतनी सी ही तो होती है जिन्दगी
फिर भी
सिरफिरों की आग से खेलने की आदत
नहीं जाती है
कुरेदने में बहुत मजा आता है
बुझी हुई राख को
जलती
तेज लपटों से तो दोस्ती
बस दो स्केल दूर से ही की जाती है
कहाँ सोच पाता है आदमी
एक अलाव हो जाने का खुद भी
आखरी दौर में कभी
अन्दर
जलाकर अलाव ताजिंदगी
ना जाने बेखुदी में
कितनी कितनी आगें पाली जाती हैं
‘उलूक’
कुछ भी लिख देना
इतना आसान कहाँ होता है
किसी भी बात पर
किसी भी बात पर
फिर भी
किसी की बात रखने के लिये
बात
कुछ इस तरह भी
अलाव में
अन्दर सेक कर
अन्दर सेक कर
बाहर पेश की जाती हैं ।
चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com