उलूक टाइम्स: खिड़कियाँ
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शनिवार, 6 जनवरी 2018

बाहर हवा है खिड़कियों को पता रहता है

खुली रखें
खिड़कियाँ

पूरी नहीं
तो आधी ही

इतने में भी
संकोच हो
तो बना लें
कुछ झिर्रियाँ

नजर भर
रखने के लिये
बाहर चलती
हवाओं के
रंग ढंग पर

बस खयाल
रखें इतना

हवायें
आती
जाती रहें

खिड़कियों
से बना कर
गज भर
की दूरी

चलें
सीधे मुँह
मुढ़ें नहीं
कतई
खिड़कियों
की ओर

देखने
समझने
के लिये
रंग ढंग
खिड़कियों के

खिड़कियाँ
समेट लेती हैं
हवा अन्दर की

पर्दे खिड़कियों
पर लटके हुऐ
लगा लेते हैं
लगाम हवाओं पर

समझा लेती
हैं मजहब
हवाओं को
हवाओं का
खिड़कियाँ

मौसम का
हाल देखने
के लिये खुद
अपनी ही
आँखों से
अपने सामने
जरूरी नहीं
खिड़कियों से
बाहर झाँकना

सुबह के
अखबार
दूरदर्शन के
जिन्दा समाचार

बहुत होते हैं
पता करने के
लिये हवाओं
के मौसम
का हाल

बेहाल हवायें
खुद ही छिपा
लेती हैं
अपने मुँह

बहुत
आसान
होता है
हवा हवा
खेलना
बैठकर दूर
कहीं अंधेरे में
और
समझ लेना
रुख हवा का

‘उलूक’
हवा देता है

हवा हवा
खेलने वाले
कहाँ परवाह
करते हैं

बहुत
आसान
होता है
फैला देना

किसी के
लिये भी
हवा में
कह कर
हवा
लग गई है ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

जलते हुऐ दिये को पड़ गये कुछ सोच देख कर बहुत सारी अपने आस पास एक दिन रोशनियाँ

एक किनारे में
खड़ा एक भीड़ के
देखता हुआ
अपनी ही जैसे
एक नहीं कई
प्रतिलिपियाँ
और आस पास ही
उसी क्षण कहीं
खुल रही हों कई
सालों से बंद
पड़ी कुछ
खिड़कियाँ
कुछ कुछ सपने
जैसे ही कुछ
कुछ सामने
से ही उड़ती
हुई रंगबिरंगी
तितलियाँ
रोज तो दिखते
नहीं कभी
इस तरह के
दृश्य सामने से
एक सच की तरह
चिकोटी काट कर
हाथ में ही अपने
खुद के देख
रही थी उंगलिया
इसी तरह खड़ा
सोच में पड़ा
बहुत देर से
समझने के लिये
आखिर क्यों
हूँ यहाँ
किसलिये
किसके लिये
पूछ बैठा यूँ ही
बगल के ही
किसी से
अपने ही जैसे से
मुस्कुराहट
चेहरे पर लिये
बिखरते हुऐ
हँसी जैसे मोती
बिखर रहे हों
कहीं से कहीं
अरे सच में नहीं
जानते क्या
खुद को भी नहीं
पहचानते क्या
हम ही तो दिये हैं
 रोशनी के लिये हैं
आओ चले साथ
साथ एक ही दिन
यूँ ही जलें साथ
साथ एक ही दिन
रोशन करें
सारे जहाँ को
बाँटते चलें
जरूरत की सबको
सबके लिये
कुछ रोशनियाँ
कहाँ खुलती हैं रोज
खुली हैं आज
चारों ही तरफ
कुछ बंद खिड़कियाँ
दिये हैं हम
दिये हो तुम
दिये के खुद के लिये
जरूरी भी नहीं
होती हैं रोशनियाँ ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 23 जुलाई 2014

क्योंकि खिड़कियाँ मेरे शहर के पुराने मकानों में अब लोग नई लगा रहे थे

अपने
बच्चों को
समझाने में
लगे हुऐ
एक माँ बाप

उनको
उनसे उनकी
दिमाग की
खिड़की खोलने
को कहते हुऐ
जोर लगा कर
कुछ समझा रहे थे

लग नहीं
रहा था
कुछ ऐसा
जैसे बच्चे
कुछ सुनना
भी चाह रहे थे

माँ बाप
बच्चों की
तरफ देख कर
कुछ बोल रहे थे

बच्चे
अपने घर के
पड़ोस के मकान
की खिड़कियों की
तरफ देख कर
मुस्कुरा रहे थे

खिड़कियों
के बारे में
शायद माँ बाप से
ज्यादा पता था उनको

घर से लेकर
स्कूल तक
जाते जाते

रोज ना जाने
कितनी
खिड़कियों को
खुलते बंद होते
देखते हुऐ आ रहे थे

समझ रहे थे
स्कूल में गुरु लोग
खिड़कियों को
खोलने की विधि का
प्रयोग प्रयोगशाला
में करवाना चाह रहे थे

उसी बात
को लेकर
घर के लोग
घर पर भी
खिड़कियों
की बात
कर कर के
दिमाग खा रहे थे

सोच रहे थे
समझ रहे थे
हिसाब किताब भी
थोड़ा बहुत लगा रहे थे

पुराने
मकानो की
खिड़कियों
की तुलना
नये मकानो की
खिड़कियों से
किये जा रहे थे

माँ बाप
की चिंताओं
को जायज
मान ले रहे थे
देख रहे थे
समझ रहे थे

पुरानी
खिड़कियों के
कब्जे जंग खा रहे थे

खुलते जरूर थे
रोज ना भी सही
कभी कभी भी

लेकिन आवाजें
तरह तरह की
खुलने बंद होने
पर बना रहे थे

खिड़कियाँ
दरवाजे
समय के साथ
पुराने लोगों के
पुराने हो जा रहे थे

शायद
इसी लिये
सभी लोग नयी
पौँध से उनकी

अपनी अपनी
खिड़कियों को खोल
कर रखने की अपेक्षा
किये जा रहे थे

‘उलूक’
की समझ में
नहीं आ रहा था
कुछ भी

उसे उसके
पुराने मकान
के खंडहर में
खिड़की या
दरवाजे नजर ही
नहीं आ रहे थे ।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

करवट

अचानक
उन टूटी खिड़कियों का
उतरा रंग 
चमकने लगा 

शायद
जिंदगी ने अंगड़ाई ली

शमशान
की खामोशी नहीं
शहनाईयां बज रही हैं आज

फिर से
आबाद होने को है 
उसका घरौंदा

कल तक 
रोटी कपडे़ के लिये 
मोहताज हाथों में 

दिखने लगी हैं
चमकती चूड़ियां 
जुल्फें संवरी हुवी हैं
होंठो पे लाली भी है

लेकिन
कहीं ना कहीं 
कुछ छूटा हुवा सा लगता है

चेहरे पे
जो नूर था
रंगत थी आंखों में 
आज वो उतरा हुवा सा
ना जाने क्यों लगता है

बच्चों के
चीखने की आवाज
अब नहीं आती है

बूड़े माँ बाप
के चेहरों पे
खामोशी सी छाई है 

शायद
किसी आधीं ने 
उड़ा दिया सब कुछ

अपनी जगह
पर ही है हर एक चीज
हमेशा की तरह 

पर कुछ तो हुआ है
ना जाने 

जो
महसूस तो होता है
पर दिखता नहीं है।