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शनिवार, 3 जुलाई 2021

कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये कुछ कुछ नहीं है तो भी क्या होता है



शब्दकोष में
बस एक शब्द है
कुछ

और इस
कुछ पर
शुरु हुआ चिट्ठा
किसी दिन
कुछ पर अटक कर सटक जायेगा

कुछ से
कुछ कुछ होता हुआ
कुछ सही कुछ नहीं
देखता सुनता

खड़े खड़े या पड़े पड़े
या फिर सड़े सड़े से
गुजरता खीजता खीसेँ निपोरता
कहीं किसी बियाबान में खो जायेगा

सब लिखने वाले
कुछ लिखते ही हैं

ये कुछ ही बहुत कुछ होता है
कुछ को पता होता है
कुछ पता करते हुऐ कुछ
कुछ कुछ कह लेतें है
कुछ नहीं कह पातें है
बहुत कुछ सह लेते हैं

लिखने वाले को पता होता है
कुछ लिख लिखा कर लपेट लेने से
कुछ नहीं होता है

कुछ हुऐ को
कुछ नहीं हुऐ का विज्ञापन
अपने अन्दर यूँ ही
कुछ कुछ समेट लेता है

पूरा चिट्ठा
अपनी एक पूरी जिन्दगी में
थोड़ा कुछ सहेज लेता है

जब भी कुछ हुऐ पर
कुछ कहना चाहता है
लिखने वाला

उसे भी पता होता है
करने वाले को
अपने करने कराने पर
गर्व होता है

और बेशरम लिखने वाला
उस गर्व से डरा डरा
सच झूठ के तराजू के पलड़ों को
कुछ शब्दों की आड़ लगा कर
संतुलित कर लेने के वहम के साथ
कुछ कह दिया के भ्रम के साथ
जी लेता है

‘उलूक’ जानता है
बहस टिप्पणी उदाहरण
संदेश समीक्षा संतुलन
व्यवहार चर्चा समाचार
चिट्ठा कहो ब्लॉग कहो

कतार लगाने से
कुछ नहीं होता है
लकीर सब जानते हैं
फकीर सब को पता है
वही एक होता है
उसे कुछ कहने कहाने
लिखने लिखाने
पढ़ने पढ़ाने से
कुछ नहीं होता है।


चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com/

गुरुवार, 13 मई 2021

कुछ शेर हैं दूर से शायर दिख रहे हैं कुछ भीगे बिल्ले बेचारे बिल्लियाँ लिख रहे हैं

 


कुछ
प्रायश्चित कर रहे हैं

कुछ
सच में
सच लिख रहे हैं

कुछ
बकवास के पन्ने
कई दिन हो गये
कहीं नहीं दिख रहे हैं

कुछ 
नहीं लिखा
कुछ
नहीं लिखा जा रहा है

कुछ पन्ने
ठण्डी धूप में सिक रहे हैं

कुछ ने लिखा है
कुछ कुछ

कुछ
लिख दिए सब कुछ
सब्जी मण्डी में दिख रहे हैं

कुछ
कुछ से बहुत कुछ तक
पहुँच गये हैं

कुछ
कुछ में ही
कुछ टिक रहे हैं

कुछ
भर रहे हैं कुछ
कुछ
भर लिये हैं बहुत कुछ

कुछ
रास्ते में हैं लबालब
कुछ
कुछ रिस रहे हैं

कुछ
कुछ लिखने के लिये
दिख रहे हैं
कुछ
कुछ दिखने के लिये
लिख रहे हैं

कुछ
चल दिये हैं
कुछ लिखते लिखते
कुछ
रास्ते में हैं
 बस जूते घिस रहे हैं

कुछ
मुखौटे कुछ
चेहरों से उतर रहे हैं
कुछ
मुखौटे
शहर दर शहर बिक रहे हैं

कुछ बाजार
कुछ उजड़ रहे हैं

कुछ बाजार 
श्मशान में
सजते हुऐ कुछ दिख रहे हैं

कुछ
डरों से
कुछ निजात मिले

धोबी के कुछ गधे
कुछ
कोशिश कर रहे हैं

‘उलूक’
कुछ लगाम
खींच कलम की
कुछ
लिख कर कभी

सोच के घोड़े मर रहे हैं

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

रविवार, 15 नवंबर 2020

शुभ हो दीप पर्व उमंगों के सपने बने रहें भ्रम में ही सही

 


हर्षोल्लास
चकाचौँध रोशनी
पठाकों के शोर
और बहुत सारे
आभासी सत्यों की भीड़

 बीच से
गुजरते हुऐ
कोशिश करना
पंक्तियों से नजरें चुराते हुऐ
लग जाना
बीच के निर्वात को
परिभाषित करने में

कई सारे भ्रमों से झूझते हुऐ
 व्यँग खोजना
उलझन भरी सोच में

और लिख देना कुछ नहीं

इस कुछ नहीं लिखने
और कहीं
अन्दर के किसी कोने में बैठे
थोड़े से अंधेरे को
चकाचौँध से घेर कर
कत्ल कर देने की
सोच की रस्सियाँ बुनना

इंगित करता हुआ
महसूस कराता लगता है
समुद्र मंथन इसी तरह हुआ होगा 
 निकल कर आई होंगी
लक्ष्मी भी शायद

आँखें बंद कर लेने के बाद
दिख रहे प्रकाश को
दीपावली कहा गया होगा

लिख देना
और फिर लिखे के अर्थ को
खुद ही खुद में खोजना
बहुत आसान नहीं

फिर भी
इशारों इशारों में
हर किसी का लिखा
इतना तो बता देता है
लिखा हुआ
सीधे सीधे
सब कुछ बता जायेगा
सोचना ठीक नहीं

अंधेरा है तो प्रकाश है
फिर किसलिये
छोटे से अँधेरे को घेर कर
लाखों दियों से मुठभेड़

यही दीपावली है
यही पर्व है दीपों का

कुछ देर के लिये
अंधेरे से मुँह मोड़ कर बैठ लेने
और खुश हो लेना
कौन सा बुरा है ‘उलूक’

कुछ समझना
कुछ समझाना
बाकी सब
बेमतलब का गाना

फिर भी
बनी रहे लय
कुछ नहीं
और कुछ के
बीच की
जद्दोजहद के साथ

शुभ हो दीप पर्व
उमंगों के सपने बने रहें
भ्रम में ही सही।


चित्र साभार:
https://medium.com/the-mission/a-practical-hack-to-combat-negative-thoughts-in-2-minutes-or-less-cc3d1bddb3af

शनिवार, 23 नवंबर 2019

जब कुछ हो ही नहीं रहा है तो काहे कुछ लिखना कुछ नहीं लिखो खुश रहो



छोड़ो
रहने दो
कुछ नहीं
लिखो

कुछ नहीं
ही
सब कुछ है

कुछ कुछ 
लिखते लिखते

अब तो
समझ लो
कुछ नहीं
लिखोगे

पहरे
से
दूर रहोगे

लिखे
का
हिसाब भी
नहीं
देना पड़ेगा

कहीं
कोई
बही खाता
ही नहीं बनेगा

आई टी सेल
नजर
ही
नहीं रखेगा

सब कुछ
सामान्य
सा दिखेगा

कुछ नहीं
लिखना

एक
नेमत होती है

समझा करो

सबका
मालिक
एक है

सब जगह
अलग अलग है
माना
फिर भी
नेक है

मालिक
की जय
होनी ही चाहिये
करते चलो

कुछ नहीं
लिखना है
का
सिद्धांत
बना कर
लिखने के
क्षेत्र में
जहाँ तक
पहुँचने की चाहत है
आगे बढ़ो

किसने
रोका है
बेधड़क लिखो

बस
कुछ नहीं
लिखने पर
अड़े रहो खड़े रहो

आँखें
कान नाक
बंद रख सको
तो
सोने में सुहागा होगा

सब कुछ
बंद रखने वालो
के लिये
हर रास्ते पर
माला लिये खड़ा
मालिक का भेजा
कोई ना कोई
अभागा होगा
समझा करो

ध्यान मत दो
जो हो रहा है
किसी के
भले के लिये ही
हो रहा होगा

गीता
सिरहाने पर रख कर
सोया करो

हर ऐरे गैरे
की
रामायण पर
ध्यान मत दिया करो

कुछ नहीं
कहने पर
टिके रहो

कहे कहाये पर
सुने सुनाये पर

कान
मत दिया करो
कुछ नहीं करने वाले
हर जगह होते हैं
सारे ब्रह्माण्ड का भार
वो सब ही ढोते हैं 

कुछ नहीं करने वालों के
चरण स्पर्श करो

विनती करो

कहो

कुछ नहीं कहता हूँ
कुछ नहीं करता हूँ 
कुछ नहीं लिखता हूँ

कुछ नहीं कमेटी में 
कहीं तो कोई स्थान
अब तो दो

सारे शरीफ
कुछ
करने कहने लिखने
वाले  जानते हैं

उलूकबेशर्म है
कुछ नहीं कहता है
उसे जरा सा भी शर्म नहीं है

जरूरत
किस बात की
कहाँ पर है

भगवन
ध्यान मत दो
कुछ नहीं करो
कुछ नहीं लिखो

कुछ नहीं को
मिलता है सम्मान
कुछ तो महसूस करो

कुछ नहीं शहर के
सम्मानित
रोज सुबह के अखबार में
कुछ नहीं
समाचारों के साथ
देखा करो

कुछ नहीं को
आत्मसात करो

देश के साथ
कुछ नहीं गाते
आगे बढ़ो

कुछ नहीं
लिखो

कुछ नहीं पर
टिप्पणी करो

कुछ नहीं
की
गिनती करो

ठान लो
इसके लिखे को
कहीं नहीं
दिखना चाहिये
डटे रहो अड़े रहो

कुछ मत करो
लिखने वाले
को
अहसास कराओ

कुछ नहीं
हो
लिखते रहो

कुछ नहीं
लिखना
अच्छा है
कुछ लिखने से

कुछ 
नहीं
लिखो।

 
https://www.dreamstime.com/

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

काहे पढ़ लेते हैं कुछ भी सब कुछ लिखना सब को नहीं आता है


यूँ ही
नहीं लिखता
कोई
कुछ भी

अँधेरे में
उजाला लिखना
लिखना अँधेरा
उजाले में

 उजाले में
उजाला लिखना
लिखना
अँधेरे में अँधेरा

एक बार लिखा
बार बार लिखना

 लिखना
बेमौसम
सदाबहार लिखना

यूँ ही
नहीं लिखता
कोई कुछ भी

सब
लिखते हैं कुछ

 कुछ
लिखना
सबको नहीं आता है

सब
सब नहीं लिखते हैं

 सब
लिखने की
हिम्मत
हर कोई
नहीं पा जाता है

सब लिखते हैं

 सब
लिखने पर
बात करते हैं

 सब
कोशिश करते हैं
अपने लिखे को
सब कुछ बताने की

सब
का लिखा
सब को
समझ में
नहीं आता है

 सब से
अच्छी टिप्पणी
सुन्दर होती है

 दो चार शब्द
कहीं दे आने से
ज्यादा कुछ
घट नहीं जाता है

लिखते लिखते

कहाँ
भटक गया होता है
लिखने वाले को भी
पता कहाँ चल पाता है

 कुछ भी है
लेकिन
सच
चाहे अपना हो
पड़ोस का हो
समाज का हो

किसी में
इतनी
हिम्मत
नहीं होती है

कि
लिख ले
कोई

नहीं
लिख पाता है

‘उलूक’
कोशिश करता है
फटे में झाँकने की
और बताने की

लेकिन
उसका जैसा
उल्लू का पट्ठा

शायद
कभी कोई
नजर आये

जो अपने
पैजामे के
नाड़े को
बाँधने के
चक्कर में

पैजामा
कौन सा है
बता पाये
नजर नहीं
आता है

बकवासों
का भी
समय
आयेगा कभी

खण्डहर
बतायेंगे
हर नाड़े को

पैजामा
छोड़ कर
जाने का
मलाल रह
ही जाता है।

 चित्र साभार: https://www.talentedindia.co.in

बुधवार, 24 जनवरी 2018

लिख कुछ तितली या तितली सा बस मितली मत कर देना

बहुत देर से
कोशिश कर
रहा होता है कोई

एक तितली
सोच कर
उसे उड़ाने की

तितली होती है
कि नजर
ही नहीं आती है

तितली को
कहाँ पता होता है
उसपर किसी को
कुछ लिखना है

हरे भरे पेड़ पौंधे
फूल पत्ती खुश्बू
या कुछ भी
जिसपर तितली
उड़ान भरती है

लिखने वाला
लगा होता है
तितली को
उड़ाने की
सोच जगाने की
ताकि कुछ
निकले तितली सा
कुछ उड़े
आसमान में
कुछ रंगीन सा
इंद्रधनुषीय

सच में
एक तितली
सोचने में
इतना ज्यादा
जोर पड़ता है
दिमाग पर

कभी नहीं
सोच पाता
है कोई
एक चालू
लिखने वाला

जोर डालता
है अचानक
तो
समझ में आना
शुरु होता है

तितलियों से
भरा एक देश
उसका
तितली राजा
तितली प्रजा
और सारे
उड़ते हुऐ
मडराते हुऐ
फूलों के ऊपर
गाते हुऐ
तितली गीत
सब कुछ तो
हरा भरा होता है
सब कुछ तो
ठीक ठाक होता है

फिर
किसलिये
‘उलूक’
तितली पर
लिखने के लिये
तुझे एक तितली
सोचने पर भी
दूर दूर तक
नजर नहीं आती है

कुछ
इलाज करवा
कुछ दवा खा
डाक्टर को
अपना मर्ज बता

कि तितली
सोची ही
नहीं जाती है

नींद जैसी
कुछ उबासी
के साथ
चली आती है
उनींदी सी
सोती हुई
पंख बंद
किये हुऐ
एक तितली
बताती हुई
कि वो
एक तितली है
और उस पर
उसे कुछ
तितली सा
लिखना है ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

कभी ऐसा भी कुछ यूँ ही बिना कुछ पर कुछ भी सोचे


कोई
बुरी बात
नहीं है

ढूँढना
लिखे हुवे
के चेहरे को

कुछ
लोग आँखें
भी ढूँढते हैं

कुछ
की नजर
लिखे हुवे की
कमर पर
भी होती है

कुछ
पाजेब और
बिछुओं को
देख भर लेने
की ललक
के साथ

शब्दों से
ढके हुऐ
पैरों की
अँगुलियों
के दीदार
भर के लिये
नजरें तक
बिछा देते हैं

सबके लिये
रस्में हैं
अपने
हिसाब से
जगह के
हिसाब से
समय के
हिसाब से

कुछ को
लिखे हुऐ में
अपना चेहरा
भी नजर
आ जाता है

कुछ
के लिये
बहुत साफ
कुछ
के लिये
कुछ धुँधला सा
कुछ
के लिये चाँद
हो जाता है

कुछ नहीं
किया जा
सकता है
अगर कोई
ढूँढना शुरु
कर दे रिश्ते
लिखे हुऐ के
पीछे से
झाँकते हुऐ
अर्थों में

बबाल तो
हर जगह
होते हैं

कुछ
बने बनाये
होते हैं

कुछ
खुद के लिये
कुरेद कर
पन्नों को
बिना नोंक
की पेन्सिल से
खुद ही
बनाये गये
होते हैं

फट चुके
कागज भी
चुगली करने में
माहिर होते हैं

अब
इस सब से
‘उलूक’ को
क्या लेना देना

फटे में
अपनी टाँग
अढ़ाने के
चक्कर में
कई बार
खुद भी
फटते फटते
बचा हो कोई
या
फट भी
गया हो
तो भी
क्या है

होना तो
वही होता है
जो सुना
जा चुका
होता है

‘राम जी रच चुके हैं’

गाल पीटने
वालों के
गालों से
उन सब
को कहाँ
मतलब
होता है

जिन्हें
पिटने
या
पीटने की
आवाज
संगीत ही
सुनाई
देती हो

रहने दीजिये
ये रामायण
का आखरी
पन्ना नहीं है

अभी
कई राम
और पैदा
होने के
आसार हैं

भविष्यवाणी
करना ठीक
नहीं है

हनुमानों
पर नजर
रखते चलिये

कुछ
ना कुछ
संकेत
जरूर मिलेंगे

अब
लिखा हुआ
ही आईना हो
या
आईने में ही
लिखा गया हो

रहने
भी दीजिये
इस पर
फिर कभी कुछ

अगली
बकवास
के पैदा होने
तक के लिये
 ‘राम राम’

चित्र साभार: study.com

गुरुवार, 10 मार्च 2016

कुछ लोग लोगों को उनके बारे में सब कुछ बताते हैं

कुछ लोग
भगवान
नहीं होते हैं

बस उनका
होना ही
काफी होता है

किसी को भी
अपने बारे में
उतना पता
नहीं होता है
जितना
कुछ लोगों को
सारे लोगों
के बारे में
पता होता है

रात के देखे
सभी सपने
सुबह होने होने
तक बहुत ही
कम याद रहते हैं

बिना धुले
साबुन के
मटमैले कपड़े
जैसे ही धुँधले
हो चुके होते हैं

उन सारे
सपनों की
खबर को
लोगों को
सुनाने में
इन कुछ
लोगों को
महारत
हासिल होती है

अलसुबह
मुँह धोने
से पहले
आईने के
सामने खड़ा
जब तक
कोई खुद
को परख
रहा होता है

इन लोगों
की तीसरी
आँख से
देखा सब कुछ
बिस्तरे की
सिलवट की
गिनतियों के
साथ कहीं
किसी सुबह
के अखबार
के मुख्य
पृष्ठ पर
बड़े अक्षरों में
छप रहा होता है

ये लोग
अपने जैसे
सभी भगवानों
को बारीकी से
पहचानते हैं

बोलते
नहीं है
कुछ भी
कहीं भी
किसी से
किसी के लिये

लेकिन
हवा हवा में
हवा की
धूल मिट्टी को
भी छानते हैं

सारा सब कुछ
इन्हीं की
सदभावनाओं
पर टिका
और चल
रहा होता है

अपने बारे में
अच्छी  दो चार
गलफहमियाँ
पाला हुआ
कोई अपनी
अच्छाइयों के
जनाजों को
कहीं गिन
रहा होता है

उसकी गिनती
सही है और
गलत है
यही
कुछ लोग
बताते हैं

जानकारी
आदमी की
आदमी के
अंदर से
निकाल कर
आदमी को
बेच जाते हैं

आदमी
अपने बारे में
सोचता रहता है

होने ना
होने के
हिसाब से
कुछ लोग
उसका
कहीं भी
नहीं होना
हर जगह
जा जा
कर बताते हैं

भगवानों
में भगवान
धरती में
पैदा हुऐ
इन्सानों
से अलग

कुछ अलग
तरह के लोग
सब कुछ
हो जाते हैं

‘उलूक’
भगवान की पूजा
करने से नहीं
मिलता है मोक्ष

कुछ लोगों
की शरण में
जाना पड़ता है

आज के
जमाने में
भगवान भी
उन्ही लोगों
से पूछने
कुछ ना
कुछ आते हैं ।

चित्र साभार: fremdeng.ning.com

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com

रविवार, 20 सितंबर 2015

देखा कुछ ?

देखा कुछ ?
हाँ देखा
दिन में
वैसे भी
मजबूरी में
खुली रह जाती
हैं आँखे
देखना ही पड़ता है
दिखाई दे जाता है
वो बात अलग है
कोई बताता है
कोई चुप
रह जाता है
कोई नजर
जमीन से
घुमाते हुऐ
दिन में ही
रात के तारे
आकाश में
ढूँढना शुरु
हो जाता है
दिन तो दिन
रात को भी
खोल कर
रखता हूँ आँखें
रोज ही
कुछ ना कुछ
अंधेरे का भी
देख लेता हूँ
अच्छा तो
क्या देखा ? बता
क्यों बताऊँ ?
तुम अपने
देखे को देखो
मेरे देखे को देख
कर क्या करोगे
जमाने के साथ
बदलना भी सीखो
सब लोग एक साथ
एक ही चीज को
एक ही नजरिये
से क्यों देखें
बिल्कुल मत देखो
सबसे अच्छा
अपनी अपनी आँख
अपना अपना देखना
जैसे अपने
पानी के लिये
अपना अपना कुआँ
अपने अपने घर के
आँगन में खोदना
अब देखने
की बात में
खोदना कहाँ
से आ गया
ये पूछना शुरु
मत हो जाना
खुद भी देखो
औरों को भी
देखने दो
जो भी देखो
देखने तक रहने दो
ना खुद कुछ कहो
ना किसी और से पूछो
कि देखा कुछ ?

चित्र साभार: clipartzebraz.com

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

कुछ लिखने वाले के कुछ पढ़ने वाले कुछ भी पढ़ते पढ़ते उसी के जैसे हो जाते हैं

इतना इतना
कितना कितना
लिखता है
देखा कर कभी
तो सही खुद भी
पढ़ कर जितना
जितना लिखता है
लिखने का कोई
नियम कहीं भी
किसी भी पन्ने में
नजर नहीं आता है
लगता है बिना
नापे तोले कुछ भी
कहीं से हाथ मार कर
झोले के अंदर
से निकाल कर
ले आता है
कभी सौ ग्राम
लिखने की भी
नहीं सोचता है
हर पन्ना जैसे
एक डेढ़ किलो का
रोज ही बनाना
जरूरी हो जाता है
शब्द भी गिने चुने
दो चार हर बार
वही नजर आते हैं
बार बार कई बार
खुद को बेशर्मी
से दोहराते हैं
बातें जमाने की
वही घिसी पिटी
जो अमूमन सभी
किया करते हैं
तेरे शब्द ही
उसी में से कुछ
खोज निकाल कर
उसी से उलझ जाते हैं
कितने शरीफ होते है
फिर भी पढ़ देने वाले
तेरे लिखे को ‘उलूक’
धन्य हैं कुछ लोग
ज्यादा नहीं भी सही
दो चार रोज फिर भी
कभी इधर से नहीं तो
दो चार कभी उधर के
आ ही आते हैं
झेलते हैं अच्छा है
बहुत ही अच्छा है
लिखने लिखाने के
बाद चले भी जाते हैं
कुछ भी लिख देने
वाले का साथ
यहीं पर दिखता है
कुछ भी पढ़ देने वाले
जरूर निभाते हैं ।

चित्र साभार: jaysonlinereviews.com

बुधवार, 8 जुलाई 2015

कुछ कुछ पर लिखना चाहो कुछ लिखने वाले बहुत कुछ लिख ले जाते हैं

माने निकाले
तो कोई
कैसे निकाले
कुछ के कुछ भी
माने नहीं होते हैं
कुछ के कुछ
माने होने जरूरी
भी नहीं होते हैं
बहुत से लोग
बहुत कुछ
लिखते हैं
बहुत से लोग
कुछ कुछ
लिखते हैं
कुछ लोग
बहुत कुछ
पढ़ते हैं
कुछ लोग
कुछ कुछ
ही पढ़ते हैं
इतना कुछ है
यहाँ देखिये
लिखने वाला
अटक रहा है
भी तो कहाँ
कुछ पर या
कुछ कुछ पर
अब एक कुछ का
कुछ माने होना
और कुछ के साथ
एक कुछ और
लगा देने से
माने बदल जाना
कुछ कुछ का
कुछ हो जाना
कुछ लोग कुछ
पर ही लिखते हैं
कुछ लोग कुछ
कुछ पर ही
लिखते हैं
कितनी मजेदार
है ना ये बात
कुछ लोग कुछ
लोगों को ही
पढ़ना चाहते हैं
कुछ लोग सब
लोगों को पढ़ना
चाह कर भी
नहीं पढ़ पाते हैं
अब क्या
क्या लिखेंगे
कितना लिखेंगे
कुछ पर कुछ
लिखना चाह
कर भी कुछ लोग
कुछ भी नहीं
लिख पाते हैं
‘उलूक’ तेरा कुछ भी
नहीं हो सकता है
लोग बहुत कुछ
करना चाहते हैं
कुछ लोगों की
नजरे इनायत है
कुछ लोग कुछ
करना चाहकर भी
कुछ नहीं कर पाते हैं ।

चित्र साभार: www.boostsolutions.com

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

लिखना कुछ कुछ दिखने के इंतजार के बाद कुछ पूरा कुछ आधा आधा

अपना कुछ लिखा होता
कभी अपनी सोच से
उतार कर किसी
कागज पर जमीन पर
दीवार पर या कहीं भी
तो पता भी रहता
क्या लिखा जायेगा
किसी दिन की सुबह
दोपहर में या शाम
के समय चढ़ती धूप
उतरते सूरज
निकलते चाँद तारे
अंधेरे अंधेरे के समय
के सामने से होते हैं
सजीव ऐसे जैसे को
बहुत से लोग
उतार देते हैं हूबहू
दिखता है लिखा हुआ
किसी के एक चेहरे
का अक्स आईने के
पार से देखता हो
जैसे खुद को ही
कोशिश नहीं की
कभी उस नजरिये
से देखने की
दिखे कुछ ऐसा
लिखे कोई वैसा ही
आदत खराब हो
देखने की
इंतजार हो होने के
कुछ अपने आस पास
अच्छा कम बुरा ज्यादा
उतरता है वही उसी तरह
जैसे निकाल कर
रोज लाता हो गंदला
मिट्टी से सना भूरा
काला सा जल
बोतल में अपारदर्शी
चिपका कर बाहर से
एक सुंदर कागज में
सजा कर लिख कर
गंगाजल ताजा ताजा ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

रविवार, 28 जून 2015

नहीं भी हुआ हो तब भी हो गया है हो गया है कह देने से कुछ नहीं होता है

बहुत सारे लोग
कह रहे होते हैं
एक बार नहीं
बार बार
कह रहे होते हैं
तो बीच में
अपनी तरफ से
कुछ भी कहना
नहीं होता है
जो भी कहा
जा रहा होता है
नहीं भी समझ में
आ रहा होता है
तो भी समझ में
अच्छी तरह से
आ रहा है ही
कहना होता है
मान लेना होता है
हर उस बात को
जिसको पढ़ा
लिखा तबका
बिना पढ़े लिखे
को साथ में लेकर
मिलकर जोर शोर
से हर जगह
गली कूँचे
ऊपर से नीचे
जहाँ देखो वहाँ
कह रहा होता है
नहीं भी दिख
रहा होता है
कहीं पर भी
कुछ भी उस
तरह का जिस
तरह होने का
शोर हर तरफ
हो रहा होता है
आने वाला है
कहा गया होता है
कभी भी पहले
कभी को
आ गया है
मान कर
जोर शोर से
आगे को बढ़ाने
के लिये अपने
आगे वाले को
बिना समझे
समझ कर
मान कर उसके
आगे वाले से
कहने कहाने
के लिये बस कह
देना होता है।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 14 मार्च 2015

तेरे लिखे हुऐ में नहीं आ रहा है मजा

बहुत कुछ लिख रहे हैं
बहुत ही अच्छा
बहुत से लोग यहाँ
दिखता है आते जाते
लोगों का जमावाड़ा वहाँ
कुछ लोग कुछ भी
नहीं लिखते हैं
उनके वहाँ ज्यादा
लोग कहते हैं आओ
यहाँ और यहाँ
क्या किया जा सकता है
उस के लिये जब
किसी को देखना पड़ता है
जब चारों ओर का धुआँ
सोचना पड़ता है धुआँ
और मजबूरी होती है
लिखना भी पड़ता है
तो बस कुछ धुआँ धुआँ
रोज कोई ना कोई
खोद लेता है अपने लिये
कहीं ना कहीं एक कुआँ
किस्मत खराब कह लो
या कह लो कुछ भी तो
नहीं है कहीं भी कुछ हुआ
अच्छा देखने वाले
अच्छे लोगों के लिये
रोज करता है कोई
बस दुआ और दुआ
दिखता है सामने से
जो कुछ भी खुदा हुआ
कोशिश होती है
छोटी सी एक बस
समझने की कुछ
और समझाने की कुछ
फोड़ना पड़ता है सिर
‘उलूक’ को अपने लिये ही
आधा यहाँ और आधा वहाँ
होता किसी के आस पास
वो सब कहीं भी नहीं है
जो होता है
अजीब सा हमेशा
कुछ यहाँ
और कुछ वहाँ
देखने वालों की जय
समझने
वालों की जय
होने देने
वालों की जय
ऊपर वाले
की जय जय
उसके होने का
सबूत ही तो है
जो कुछ हो रहा है
यहाँ और वहाँ ।

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

कह दे कुछ भी कभी भी कहीं भी कुछ नहीं होता है

कुछ कहने
के लिये कुछ
करना जरूरी
नहीं होता है
कभी भी
कुछ भी
कहीं भी
कह लेना
एक मजबूरी
होता है
करने और
कहने या
कहने और
करने में
बस थोड़ा सा
अंतर होता है
कहने के बाद
करना जरूरी
नहीं होता है
खामियाजा
छोटा सा ही
बस रहने या
नहीं रहने
के जितना
ही होता है
एक बार
कह देने का
एक मौका
जरूर होता है
दूसरी बार
कहने का
मौका कोई
नहीं देता है
कहने के बाद
मिले मौके को
जो खो देता है
उसके पास
करने का मौका
अगली बार
नहीं होता है
जो दिख रहा
होता है वो ही
सही होता है
समझ ले जो
इसके साथ
इस बार होता है
उसी जैसा कुछ
अगली बार
उसके साथ
होता है
जो कहा है उसे
खुद ही समझ ले
अच्छी तरह
समझने के लिये
अलग से समय
नहीं होता है
कई बार हो
और बार बार हो
उससे पहले
कहे हुऐ
एक बार को
एक ही बार
याद क्यों नहीं
कर लेता है
सपने देखना
सभी चाहते हैं
सपने दिखाने
वाला एक बार
के बाद एक
सपना खुद का
खुद के लिये
हो लेता है
लोकतंत्र का
मंत्र खाली
किताबों में
लिखा नहीं
होता है
पढ़ने के साथ
स्वाहा भी
कहना होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

करेगा कोई करे कुछ भी बता देगा वो उसी को एक साँस में और एक ही बार में

है कुछ भी
अगर पास तेरे
बताने को
क्यों रखता है
छिपा कर अपने
भेजे में संभाल के
देख ले क्या पता
कुछ हो ही जाये
कोशिश तो कर
छोटी सी ही सही
हिम्मत कर के
तबीयत से हवा में
ही ज्यादा नहीं तो
थोड़ा सा ही
ऊपर को उछाल के
तैरता भी रहेगा
माना कुछ कुछ
कुछ समय तक
समय की धार में
नहीं भी पकड़ेगा
कोई समझ कर
कबूतर का पंख
जैसा कुछ भी
अगर मान के
आकार में मिट्टी
या धूल का
एक गोला जैसा
ही कुछ देखेगा
कुछ देर के लिये
सामने अपनी
किसी दीवार के
खुश ही हो ले
दीवाना कोई
फुटबॉल ही समझ
लात मार कर
कहीं किसी गोल
में ले जा कर
ही डाल के
दो चार छ: आठ
बार में कुछ
करते करते
कई दिनों तक
कुछ हो ही जाये
यूँ ही कुछ कहीं
भी कभी एक दिन
किसी मंगलवार के
एक कहने वाला
कर जाये दो मिनट
में आकर बात फोड़
उस कमाल पर
करके धमाल
अपने जीभ की
तलवार की
तीखी धार के
तेरे कहने को
ना कहने से भी
होने जा रहा
कुछ नहीं है
निकलना है जब
तस्वीर का
उसके ही बोल
देने का
सब कुछ
पन्ने में
उसके ही किसी
अखबारों के
अखबार के
सोच ले ‘उलूक’
जमा करने पर
नहीं होना है
कुछ भी को
जमा कर लेने पर
कौड़ियों की सोच
का कोई खरीददार
नहीं मिलता है
इस जमाने की
दुकानों में
किसी भी
बाजार के ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com

शनिवार, 6 सितंबर 2014

किसी एक दिन की बात उसी दिन बताता भी नहीं हूँ

ऐसा नहीं है कि
दिखता नहीं है
ऐसा भी नहीं है
कि देखना ही
चाहता नहीं हूँ
बात उठने
उठाने तक
कुछ सोचने
सुलझाने तक
चाँद पूरा
निकल कर
फैल जाता है
तारा एक
बहुत छोटा सा
पीली रोशनी में
कहीं खो जाता है
रोज छाँटता हूँ
अपने बाग में
सुबह सुबह
एक कली और
दो पत्तियाँ
शाम लौटने तक
पूजा कि धुली
थालियों के साथ
किसी पेड़ की
जड़ में पड़ा
उन्ही और उन्ही
को पाता भी हूँ
और दिन भर में
होता है कुछ
अलग अलग सा
इसके साथ भी
उसके साथ भी
कुछ होता भी
है कही और
क्या कुछ होता है
समझने समझाने
तक सब कुछ ही
भूल जाता भी हूँ
उसके रोज ही
पूछने पर मुझसे
मेरे काम की
बातों को
बता सकता
नहीं हूँ कुछ भी
बता पाता भी नहीं हूँ
उसके करने कराने
से भर चुका है
दिल इतना ‘उलूक’
ऐसा कुछ करना
कराना तेरी कसम
चाहता भी नहीं हूँ
लिख देना
कुछ नहीं करने
की कहाँनी रोज
यहाँ आ कर
काम होता
ही है कुछ कुछ
फिर ना कहना
कभी कुछ कुछ
सुनाता ही नहीं हूँ ।

चित्र साभार: http://thumbs.dreamstime.com/

शनिवार, 30 अगस्त 2014

कभी ‘कुछ’ कभी ‘कुछ नहीं’ ही तो कहना है

अच्छी तरह पता है
स्वीकार करने में
कोई हिचक नहीं है
लिखने को पास में
बस दो शब्द ही होते हैं
जिनमें से एक पर
लिखने के लिये
कलम उठाता हूँ
कलम कहने पर
मुस्कुराइयेगा नहीं
होती ही नहीं है
कहीं आज
आस पास
किसी के भी
दूर कहीं रखी
भी होती होगी
ढूँढने उसे
जाता नहीं हूँ
प्रतीकात्मक
मान लीजिये
चूहा इधर उधर
कहीं घुमाता ही हूँ
चूहा भी प्रतीक है
गणेश जी के
वाहन का जिसको
कहीं बुलाता नहीं हूँ
माउस कह लीजिये
आप ठीक समझें
अगर हिलाता
इधर से उधर हूँ
खाली दिमाग के
साथ चलाता भी हूँ
दो शब्द में एक
‘कुछ’ होता है
और दूसरा होता है
‘कुछ नहीं’
सिक्का उछालता हूँ
यही बात बस एक
किसी को बताता
कभी भी नहीं हूँ
नजर पड़ती है
जैसे ही कुछ पर
उसको लिखने
के लिये बस कलम
ही एक कभी
उठाता नहीं हूँ
लिखना दवा
होता नहीं है हमेशा
बीमार होना मगर
कभी चाहता नहीं हूँ
मछलियाँ मेरे देश
की मैंने कभी
देखी भी नहीं
मछलियों की
सोचने की सोच
बनाता भी नहीं हूँ
चिड़िया को चावल
खिलाना कहा था
किसी ने कभी
मछलियों को खिलाने
जापान भी कभी
जाता नहीं हूँ
समझ लेते है
‘कुछ’ को भी मेरे
और ‘कुछ नहीं’ को
भी कुछ लोग बस
यही एक बात कभी
समझ लेता हूँ
कभी बिल्कुल भी
समझ पाता नहीं हूँ ।


चित्र: गूगल से साभार ।

शनिवार, 31 मई 2014

साथ होना अलग और कुछ होना अलग होता है

उसके
और मेरे बीच
कुछ नहीं था

ना उसने
कभी कहा था
ना मैंने कभी
कोशिश की थी
कुछ कहने की

अब 
आपस में
बात करने का
मतलब

कुछ
कहना होता है
ऐसा जरूरी भी
नहीं होता है

बहुत साल
आस पास
रह लेने से भी
कुछ नहीं होता है

साथ साथ
बड़ा होना
खेलना कूदना
घर आना जाना
कहीं घूमने
साथ चले जाना

एक रास्ते से
बहुत सालों तक
एक सी जगहों
को टटोलना

बहुत से लोग
करते हैं

रास्ते अलग
हो जाते हैं

लोग अलग
अलग दिशाओं
को चले जाते हैं

यादों
का क्या है
उनका काम भी
आना और जाना
ही होता है

वो भी आती
जाती रहती हैंं

कभी
किसी की
आ जाती है

कभी
किसी की
आ जाती है

कुछ देर के
लिये ही सही

बहुत से
लोगों के बीच
बहुत कुछ
होने से भी
क्या होता है

उससे भी
क्या होता है

अगर कोई
कभी

उसके
मेरे बीच
कभी भी
कुछ नहीं था

कह ही देता है।