शब्द सारे
मछलियाँ हो जाते हैं
सोचने से पहले
फिसल जाते हैं
कुछ
पुराने ख्वाब हो कर
कहीं गहरे में खो जाते हैं
लिखने
रोज ही आते हैं
लिखा कुछ जाता नहीं है
बस तारीख बदल जाते हैंं
मछलियाँ
तैरती दिखाई देती हैं
हवा के बुलबुले बनते हैं
फूटते चले जाते हैं
मन
नहीं होता है
तबीयत नासाज है
के बहाने
निकल आते हैं
पन्ने पलट लेते हैं
खुद ही डायरी के खुद को
वो भी आजकल
कुछ लिखवाना
कहाँ चाहते हैं
बकवास
करने के बहाने
सब खत्म हो जाते हैं
पता ही नहीं चल पाता है
बकवास करते करते
बकवास
करने वाले
कब खुद
एक बकवास हो जाते हैं
कलाकारी
कलाकारों की
दिखाई नहीं देती है
सब
दिखाना भी नहीं चाहते हैं
नींव
खोदते चूहे घर के नीचे के
घर के
गिरने के बाद
जीत का झंडा उठाये
हर तरफ
नजर आना शुरु हो जाते हैं
‘उलूक’
छोड़ भी नहीं देता है लिखना
कबूतर लिखने की सोच
आते आते
तोते में अटक जाती है
लिखा
कुछ भी नहीं जाता है
एक दो कौए
उड़ते हुऐ से नजर आते हैं ।
चित्र साभार: https://timesofindia.indiatimes.com/