उलूक टाइम्स

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

पता कहाँ होता है किसे कौन कहाँ पढ़ता है

साफ सुथरी
सफेद एक
दीवार के
सामने
खड़े होकर
बड़बड़ाते हुऐ
कुछ कह
ले जाना
जहाँ पर
महसूस
ही नहीं
होता हो
किसी
का भी
आना जाना
उसी तरह
जैसे हो एक
सफेद बोर्ड
खुद के पढ़ने
पढ़ाने के लिये
उस पर
सफेद चॉक से
कभी कुछ
कभी सबकुछ
लिख ले जाना
फर्क किसे
कितना
पड़ता है
लिखने वाला
भी शायद ही
कभी इस
पर कोई
गणित 
करता है
भरे दिमाग
के कूड़े के
बोझ को
वो उस
तरह से
तो ये
इस तरह
से कम
करता है
हर अकेला
अपने आप
से किसी
ना किसी
तरीके से
बात जरूर
करता है
कभी समझ
में आ
जाती हैं
कई बातें
इसी तरह
कभी बिना
समझे भी
आना और
जाना पड़ता है
दीवार को
शायद पड़
जाती है
उसकी आदत
जो हमेशा
उसके सामने
खड़े होकर
खुद से
लड़ता है
एक सुखद
आश्चर्य से
थोड़ी सी झेंप
के साथ
मुस्कुराना
बस उस
समय पड़ता है
पता चलता है
अचानक
जब कभी
दीवार के
पीछे से
आकर
तो कोई
हमेशा ही
खड़ा हुआ
करता है ।