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मंगलवार, 27 जून 2017

पुराना लिखा मिटाने के लिये नया लिखा दिखाना जरूरी होता है

लगातार
कई बरसों तक
सोये हुऐ पन्नों पर
नींद लिखते रहने से
 शब्दों में उकेरे हुऐ
सपने उभर कर
नहीं आ जाते हैं

ना नींद
लिखी जाती है
ना पन्ने उठ
पाते हैं नींद से

खुली आँख से
आँखें फाड़ कर
देखते देखते
आदत पढ़ जाती है
नहीं देखने की
वो सब
जो बहुत
साफ साफ
दिखाई देता है

खेल के नियम
खेल से ज्यादा
महत्वपूर्ण होते हैं

नदी के किनारे से
चलते समय के
आभास अलग होते हैं

बीच धारा में पहुँच कर
अन्दाज हो जाता है

चप्पू नदी के
हिसाब से चलाने से
नावें डूब जाती हैं

बात रखनी
पड़ती है
सहयात्रियों की

और
सोच लेना होता है
नदी सड़क है
नाव बैलगाड़ी 
है 
और
यही जीवन है

किताबों में
लिखी इबारतें
जब नजरों से
छुपाना शुरु
कर दें उसके
अर्थों को

समझ लेना
जरूरी हो
जाता है

मोक्ष पाने
के रास्ते का
द्वार कहीं
आसपास है

रोज लिखने
की आदत
सबसे
अच्छी होती है

कोई ज्यादा
ध्यान नहीं
देता है
मानकर कि
लिखता है
रहने दिया जाये

कभी कभी
लिखने से
मील के पत्थर
जैसे गड़ जाते हैं

सफेद पन्ने
काली लकीरें
पोते हुऐ जैसे
उनींदे से

ना खुद
सो पाते हैं
ना सोने देते हैं

‘उलूक’
बड़बड़ाते
रहना अच्छा है

बीच बीच में
चुप हो जाने से
मतलब समझ में
आने लगता है
कहे गये का
होशियार लोगों को

पन्नो को नींद
आनी जरूरी है
लिखे हुऐ को भी
और लिखने वाले
का सो जाना
सोने में सुहागा होता है ।

चित्र साभार: Science ABC

रविवार, 8 जनवरी 2017

शुरु हो गया मौसम होने का भ्रम अन्धों के हाथों और बटेरों के फंसने की आदत को लेकर

कसमसाहट
नजर आना
शुरु हो गयी है

त्योहार नजदीक
जो आ गया है

अन्धों का ज्यादा
और बटेरों का कम

अपने अपने
अन्धों के लिये
लामबन्द होना
शुरु होना
लाजिमी है
बटेरों का

तू ना
अन्धा है
ना हो
पायेगा

बड़ी बड़ी
गोल आखें
और
उसपर
इस तरह
देखने की
आदत

जैसे बस
देखेगा
ही नहीं
मौका
मिले
तो घुस
भी पड़ेगा

बटेर होना
भी तेरी
किस्मत
में नहीं

होता तो
यहाँ लिखने
के बजाये
बैठा हुआ
किसी अन्धे
की गोद में
गुटर गुटर
कर रहा होता

अन्धों के
हाथ में बटेर
लग जाये या
बटेर खुद ही
चले जाये अन्धे
के हाथ में

मौज अन्धा
ही करेगा
बटेर त्यौहार
मना कर
इस मौसम का
अगले त्यौहार
के आने तक
अन्धों की
सही सलामती
के लिये बस
मालायें जपेगा

तू लगा रह
खेल देखने में
कौन सा अन्धा
इस बार की
अन्धी दौड़
को जीतेगा

कितनी बटेरों
की किस्मत
का फैसला
अभी करेगा

बटेरें हाथ में
जाने के लिये
बेकरार हैं
दिखना भी
शुरु हो गई हैं

अन्धों की आँखों
की परीक्षाएं
चल रही हैंं

जरा सा भनक
नहीं लगनी
चाहिये
थोड़ी सी भी
रोशनी के बचे
हुऐ होने की
एक भी आँख में
समझ लेना
अन्धो अच्छी
तरह से जरा

बटेर लपकने
के मौसम में
किसी दूसरे
अन्धे के लिये
बटेर पकड़
कर जमा
करने का
आदेश हाथ
में अन्धा
एक दे देगा

अन्धों का
त्योहार
बटेरों का
व्यवहार
कुछ नहीं
बदलने
वाला है

‘उलूक’

सब इसी
तरह से
ही चलेगा

तुझे मिला
तो है काम
दीवारें
पोतने
का यहाँ

तू भी
दो चार
लाईनेंं
काली
सफेद
खींचते हुए
पागलों
की तरह

अपने जैसे
दो चारों के
सिर
खुजलाने
के लिये
कुछ
ना कुछ
फालतू
रोज की
तरह का
कह देगा ।

चित्र साभार: The Blogger Times

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आदत है उलूक की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की



चर्चा है कुछ है
कुछ लिखने की है
कुछ लिखाने की है
टूटे बिखरे पुराने
बेमतलब शब्दों
की जोड़ तोड़ से
खुले पन्नों की
किताबों की 
एक दुकान को
सजाने की है
शिकायत है
और बहुत है
कुछ में से भी
कुछ भी नहीं
समझा कर
बस बेवकूफ
बनाने की है
थोड़ा सा कुछ
समझ में आने
लायक जैसे को भी
घुमा फिरा कर
सारा कुछ लपेट
कर ले जाने की है
चर्चा है गरम है
असली खबर के
कहीं भी नहीं
आने की है
आदमी की बातें हैं
कुछ इधर की हैं
कुछ उधर की हैं
कम नहीं हैं
कम की नहीं हैं
बहुत हैं बहुत की हैं
मगर आदमी के लिये
उनको नहीं
बना पाने की है
कहानियाँ हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है
चर्चा है अपने
आस पास के
लिये अंधा हो
पड़ोसी  के लिये
सी सी टी वी
कैमरा बन
रामायण गीता
महाभारत
लिख लिखा
कर मोहल्ला रत्न
पा लेने के जुगाड़ में
लग जाने की है
कुछ भी है सब के
बस की नहीं है
बात गधों के
अस्तबल में रह
दुलत्ती झेलते हुए
झंडा हाथ में
मजबूती से
थाम कर जयकारे
के साथ चुल्लू
भर में डूब
बिना तैरे तर
जाने की है
मत कहना नहीं
पड़ा कुछ
भी पल्ले में
पुरानी आदत
है
उलूक की
बात मुँह के अंदर
कुछ और रख
बाहर कुछ और
फैलाने की है ।

चित्र साभार:
www.mkgandhi.org

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

लिखना सीख ले अब भी लिखने लिखाने वालों के साथ रहकर कभी खबरें ढूँढने की आदत ही छूट जायेगी

वैसे कभी सोचता
क्यों नहीं कुछ
लिख लेना सीख
लेने के बारे में भी
बहुत सी समस्याँऐं
हल हो जायेंगी
रोज एक ना एक
कहीं नहीं छपने
वाली खबर को
लेकर उसकी कबर
खोदने की आदत
क्या पता इसी
में छूट जायेगी
पढ़ना समझना
तो लगा रहता है
अपनी अपनी
समझ के
हिसाब से ही
समझने ना
समझने वाले
की समझ में
घुसेगी या
बिना घुसे ही
फिसल जायेगी
लिखने लिखाने
वालों की खबरें ही
कही जाती हैं खबरें
लिखना लिखाना
आ जायेगा अगर
खबरों में से एक
खबर तेरी भी शायद
कोई खबर हो जायेगी
समझ में आयेगा
तेरे तब ही शायद
‘उलूक’
पढ़े लिखे खबर वालों
को सुनाना खबर
अनपढ़ की बचकानी
हरकत ही कही जायेगी
खबर अब भी होती
है हवा में लहराती हुई
खबर तब भी होगी
कहीं ना कहीं लहरायेगी
पढ़े लिखे होने के बाद
नजर ही नहीं आयेगी
चैन तेरे लिये भी होगा
कुछ बैचेनी रोज का रोज
बेकार की खबरों को
पढ़ने और झेलने
वालों की भी जायेगी ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शनिवार, 11 जुलाई 2015

जो है वो कौन कहता है जो नहीं है कहते सभी हैं

शर्म लिख
रहा हो कोई
जरूरत पड़
जाती है
सोचने की
बेशर्मी लिखना
शुरु कर ही
जाये कोई
कहाँ कमी है
आज क्या लिखें
क्या ना लिखें
लिखें भी कि
कुछ नहीं
ही लिखें
उन्हें सोचना है
जिन्हें कहना
कुछ नहीं है
कहने वाले
को पता है
जानता है वो
बिना कुछ कहे
रहना ही नहीं है
कविता कहानी
लेख आलेख
दस्तावेज और
भी बहुत
कुछ है
हथियार है
शौक है
आदत है
लत है
सहने की
सीमा से
बाहर बहना
कुछ नहीं है
लिखने लिखाने
की बातें
हाथों से कागज
तक का सफर
सबके बस का
भी नहीं है
उतार लेना
दिल और
दिमाग लाकर
दिखे दूसरे को
सामने से
कटा हुआ
जैसे एक सर
बहते हुऐ
कुछ खून
के साथ कुछ
कहीं सोच में
आने तक ही
होना ऐसा
कुछ भी
कभी भी
कहीं भी
नहीं है ।

चित्र साभार:
www.cliparthut.com

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दो अप्रैल का मजाक

लिखे हुऐ के पीछे
का देखने की और
उस पीछे का
पीछे पीछे ही
अर्थ निकालने
की आदत पता नहीं
कब छूटेगी
इस चक्कर में
सामने से लिखी
हुई इबारत ही
धुँधली हो जाती है
लेकिन मजबूरी है
आदत बदली ही
कहाँ जाती है
हो सकता है
सुबह नींद से
उठते उठते
संकल्प लेने
से कोई कविता
नहीं लिखी जा
सकती हो
पर प्रयास करने
में कोई बुराई
भी नहीं है
कुछ भी नहीं
करने वाले लोग
जब कुछ भी
कह सकते हैं
और उनके इस
कहने के अंदाज का
अंदाज लगाकर
कौऐ भी किसी
भी जगह के
उसी अंदाज में
जब काँव काँव
कर लेते है
और जो कौऐ
नहीं होकर भी
सारी बात को
समझ कर
ताली बजा लेते हैं
तो हिम्मत कर
‘उलूक’ कुछ
लगा रह
क्या पता
किसी दिन
इसी तरह
करते करते
खुल जाये
तेरी भी लाटरी
किसी दिन
और तेरा लिखा
हुआ कुछ भी
कहीं भी
दिखने लगे
किसी को भी
एक कविता
हा हा हा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

जाते जाते आने वाले को कुछ सिखाने के लिये कान में बहुत कुछ फुसफुसा गया एक साल


बहुत
कुछ बता गया 
बहुत
कुछ सिखा गया 
याद
नहीं है सब कुछ 
पर
बहुत कुछ
लिखा गया एक साल 

और
आते आते 
सामने से साफ साफ 
दिख रहा है अब

सीटी बजाता जाता हुआ एक साल 

पिछले
सालों की तरह 
हौले हौले से
जैसे मुस्कुरा कर

अपने ही 
होंठों के अन्दर अन्दर कहीं
अपने ही
हाथ का अँगूठा 
दिखा गया एक साल 

अच्छे दिन 
आने के सपने 
सपनों के सपनों में भी 

बहुत
अन्दर अन्दर तक कहीं 
घुसा गया एक साल 

असलियत 
भी बहुत ज्यादा खराब 
नहीं दिख रही है 
अच्छे अच्छे हाथों में 
एक नया साफ सुथरा 
सरकारी कोटे से थोक में खरीदे गये 
झाड़ुओं में से एक झाडू‌ 
थमा गया एक साल 

लिखने को 
इफरात से था 
बहुत कुछ खाली दिमाग में था 
शब्द चुक गये लिखते लिखते 
पढ़ने वालों की 
पढ़ने की आदत छुड़ा गया एक साल 

ब्लाग बने कई नये 
पुराने ब्लागों के पुराने पन्नों को 
थूक लगा लगा कर 
चिपका गया एक साल 

अपनी अपनी अपने घर में 
सबके घर की सब ने कह दी 

सुनने वालों को ही बहरा 
बना गया एक साल 

खुद का खाना खुद का पीना 
खुद के चुटकुल्लों पर 
खुद ही हंस कर 

बहुत कुछ 
समझने समझाने की किताबें 
खुद ही लिखकर 

अनपढ़ों को बस्ते भर भर कर 
थमा गया एक साल 

खुश रहें आबाद रहें 
हिंदू रहें मुसलमान रहें 
रहा सहा आने वाले साल में कहें 

गिले शिकवे बचे कुचे 
आने वाले साल में 
और भी अच्छी तरह से लपेटने के नये तरीके 
सिखा गया एक साल । 

चित्र साभार: shirahvollmermd.wordpress.com

सोमवार, 1 सितंबर 2014

उनकी खुजली उनकी अपनी खुजली खुद ही खुजलाने की

कोई ऐसी बात भी
नहीं है बताने की
बातों बातों में ही
बात उठ गई कहीं
लिखने लिखाने की
खबर रखते हैं कुछ
लोग सारी दुनियाँ
सारे जमाने की
बात बात पर होती है
आदत किसी की
बिना बात के भी
यूँ ही मुस्कुराने की
लिखते नहीं हैं कभी
बस पूछ लेते हैं
बात कहीं पर भी
लिखने लिखाने की
बीच बाजार में
कर देते हैं गुजारिश
कुछ लिखा कुछ पढ़ा
जोर से सुनाने की
‘उलूक’ मिटाता है
खुजली खुद ही
अपनी हमेशा
कुछ लिख
लिखा के जरा
ऐसी बातें होती
ही कहाँ हैं किसी
को इस तरह
से बताने की।
 
चित्र: साभार http://www.clipartpanda.com/

सोमवार, 30 जून 2014

चिट्ठियाँ हैं और बहुत हो गई हैं

चिट्ठियाँ  इस जमाने की 
बड़ी अजीब सी हो गई हैं 

आदत रही नहीं 
पड़े पड़े पता ही नहीं चला एक दो करते 
बहुत बड़ा एक कूड़े का ढेर हो गई हैं 

कितना लिखा क्या क्या लिखा 
सोच समझ कर लिखा तौल परख कर लिखा 

किया क्या जाये अगर पढ़ने वाले को ही 
समझ में नहीं आ पाये 
कि 
उसी के लिये ही लिखी गई हैं 

लिखने वाले की भी क्या गलती 
उससे उसकी नहीं बस अपनी अपनी ही
अगर कही गई है 

ऐसा भी नहीं है कि पढ़ने वाले से पढ़ी ही नहीं गई हैं 

आखों से पढ़ी हैं मन में गड़ी हैं 
कुछ नहीं मिला समझने को तो पानी में भिगो कर
निचोड़ी तक गई हैं 

उसके अपने लिये कुछ नहीं मिलने के कारण
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है 

अपनी अपनी कहने की 
अब एक आदत ही हो गई है 
चिट्ठियाँ हैं घर पर पड़ी हैं बहुत हो गई हैं 

भेजने की सोचे भी कोई कैसे ऐसे में किसी को 
अब तो बस उनके साथ ही 
रहने की आदत सी हो गई है ।

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

आदत से मजबूर कथावाचक खाली मैदान में कुछ बड़बड़ायेंगे

भेड़ियों
के झुंड में
भेड़ हो चुके

कुछ
भेड़ियों के
मिमयाने की
मजबूरी को

कोई
व्यँग कह ले
या
उड़ा ले मजाक

अट्टहासों
के बीच में
तबले की
संगत जैसा ही
कुछ महसूस
फिर भी
जरूर करवायेंगे

सुने
ना सुने कोई

पर
रेहड़ में
एक दूसरे को
धक्का देते हुऐ
आगे बढ़ते हुऐ
भेड़ियों को
भी पता है

शेरों के
शिकार में से
बचे खुचे माँस
और
हड्डियों में
हिस्से बांट
होते समय

सभी
भेड़ों को
उनके अपने
अंदर के डर
अपने साथ
ले जायेंगे

पूँछे
खड़ी कर के
साथ साथ

एक दूसरे के
बदन से बदन
रगड़ते हुऐ
एक दूसरे का
हौसला बढ़ायेंगे

काफिले
की रखवाली करते
साथ चल रहे कुत्ते

अपनी
वफादारी
अपनी जिम्मेदारी

हमेशा
की तरह
ही निभायेंगे

बाहर की
ठंडी हवा को
बाहर की
ओर ही
दौड़ायेंगे

अंदर
हो रही
मिलावटों में

कभी
पहले भी
टाँग नहीं अढ़ाई
इस बार भी
क्यों अढ़ायेंगे

दरवाजे
हड्डियों के
खजाने के
खुलते ही

टूट पड़ेंगे

भेड़िये
एक दूसरे पर

नोचने
के लिये
एक दूसरे
की ताकत
को तौलते हुऐ

शेर को
लम्बी दौड़
के बाद की
थकावट को
दूर करने की
सलाह देकर

आराम करने का
मशविरा जरूर
दे कर आयेंगे

भेड़
हो चुके भेड़िये

वापस
अपने अपने
ठिकानो पर
लौट कर
शाँति पाठ
जैसा कुछ
करवाने
में जुट जायेंगे

पंचतंत्र
नहीं है
प्रजातंत्र है

इस
अंतर को
अभी
समझने में

कई
स्वतंत्रता
संग्राम
होते हुऐ
नजर आयेंगे ।

बुधवार, 19 मार्च 2014

लहर दर लहर बहा सके बहा ले अपना घर

ना पानी की
है लहर
ना हवा की
है लहर
बस लहर है
कहीं किसी
चीज की है
कहीं से कहीं
के लिये चल
रही है लहर
चलना शुरु
होती है लहरें
इस तरह की
हमेशा ही नहीं
बस कभी कभी
लहर बनती
नहीं है कहीं
लहर बनाई
जाती है
थोड़ा सा
जोर लगा कर
कहीं से कहीं को
चलाई जाती है
हाँकना शुरु
करती है लहर
पत्ते पेड़ पौंधों
को छोड़ कर
ज्यादातर भेड़
बकरी गधे
कुत्तों पर
आजमाई जाती
है लहर
बहना शुरु
होता है
कुछ कुछ
शुरु में
लहर के
बिना भी
कहीं को
कुछ इधर
कुछ उधर
बाद में कुछ
ले दे कर
लहराई जाती
है लहर
आदत हो चुकी
हो लहर की
हर किस को
जिस जमीन पर
वहाँ बिना लहर
दिन दोपहर
नींद में ले
जाती है लहर
कैसे जगेगा
कब उठेगा
उलूक नींद से
जगाना मुश्किल
ही नहीं
नामुमकिन है तुझे
लहर ना तो
दिखती है कहीं
ना किसी को
कहीं दिखाई
जाती है लहर
सोच बंद रख
कर चल उसी
रास्ते पर तू भी
हमेशा की तरह
आपदा आती
नहीं है कहीं
भी कहीं से
लहर से लहर
मिला कर ही
हमेशा से लहर
में लाई जाती
है लहर
लहर को सोच
लहर को बना
लहर को फैला
डूब सकता है
डूब ही जा
डूबने की इच्छा
हो भी कभी भी
किसी को इस
तरह बताई नहीं
जाती है लहर
हमेशा नहीं चलती
बस जरूरत भर
के लिये ही
चलाई जाती
है लहर ।

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

आदत खराब है कह दिया मत कह देना बस समझ लेना

गरीबों पर किया
जायेगा फोकस
एक दैनिक
समाचार पत्र के
मुख्य पृष्ठ पर
छपा आज का
मुख्य समाचार
और साथ में
फोकस करने
कराने वाले
जनता के सेवक
की तस्वीर से
जब हुआ सामना
एक एक करके
घूमने लगे
जनता के सेवक
अपने घर के
मौहल्ले के शहर के
राज्य और देश के
लिये हाथ में
एक एक मोटा लेंस
जिसके एक तरफ
प्रचंड सूरज और
दूसरी तरफ गरीब
फोकस होता हुआ
और उसके बाद
बनता हुआ
धीरे धीरे
कुछ धुआँ
कुछ कुछ धुँधलाते
धुँधलाते कुछ
जब साफ हुआ
कुछ भी नहीं दिखा
समझ में आने लगा
काम हुआ और
साथ ही साथ
तमाम भी हुआ
एक पंथ दो काज
का उदाहरण देना
बहुत आसान हुआ
ना गरीबी रही
ना गरीब रहा
वाकई जनता के
सेवकों की दूरदृष्टि
ने कुछ मन मोहा
दाल चावल सब्जी
मिलने के बाद
भी जिसने उसे
बिल्कुल नहीं छुआ
रख दिया सम्भाल
कर भविष्य के लिये
बस कुछ तड़का ही
अपने काम के
लिये रख लिया
गरीब की गरीबी
पर फोकस करने
का एक आसान
सा रास्ता ही चुना
हींग लगी ना
फिटकरी और
रंग भी चोखा
सामने सामने बना
गरीब पर फोकस
या फोकस पर गरीब
सिक्का ना इधर गिरा
ना उधर ही गिरा
जनता ने ही
जनता के लिये
जनता के द्वारा
सिक्का खड़ा करने
का संकल्प लेने
का रास्ता फिर से
एक बार चुना
कोई भी चुन
कर आये
दिखा साफ साफ
गरीब पर ही
लगना है इस
बार भी चूना
ठीक नहीं हैं
आसार और
गरीब के फिर से
फोकस पर होना ।

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

पता कहाँ होता है किसे कौन कहाँ पढ़ता है

साफ सुथरी
सफेद एक
दीवार के
सामने
खड़े होकर
बड़बड़ाते हुऐ
कुछ कह
ले जाना
जहाँ पर
महसूस
ही नहीं
होता हो
किसी
का भी
आना जाना
उसी तरह
जैसे हो एक
सफेद बोर्ड
खुद के पढ़ने
पढ़ाने के लिये
उस पर
सफेद चॉक से
कभी कुछ
कभी सबकुछ
लिख ले जाना
फर्क किसे
कितना
पड़ता है
लिखने वाला
भी शायद ही
कभी इस
पर कोई
गणित 
करता है
भरे दिमाग
के कूड़े के
बोझ को
वो उस
तरह से
तो ये
इस तरह
से कम
करता है
हर अकेला
अपने आप
से किसी
ना किसी
तरीके से
बात जरूर
करता है
कभी समझ
में आ
जाती हैं
कई बातें
इसी तरह
कभी बिना
समझे भी
आना और
जाना पड़ता है
दीवार को
शायद पड़
जाती है
उसकी आदत
जो हमेशा
उसके सामने
खड़े होकर
खुद से
लड़ता है
एक सुखद
आश्चर्य से
थोड़ी सी झेंप
के साथ
मुस्कुराना
बस उस
समय पड़ता है
पता चलता है
अचानक
जब कभी
दीवार के
पीछे से
आकर
तो कोई
हमेशा ही
खड़ा हुआ
करता है ।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अपने कैलेंडर में देख अपनी तारीख उसके कैलेंडर में कुछ नया नहीं होने वाला है

रोज एक कैलेंडर
नई तारीख का
ला कर यहां लटका
देने से क्या कुछ
नया होने वाला है
सब अपने अपने
कैलेंडर और तारीख
लेकर अपने साथ
चलने लगे हैं आजकल
उस जगह पर तेरे
कैलेंडर को कौन देखेने
आने वाला है
अब तू कहेगा तुझे
एक आदत हो गई है
अच्छी हो या खराब
किसी को इससे
कौन सा फर्क जो
पड़ने वाला है
परेशानी इस बात
की भी नहीं है
कहीं कोई कह रहा हो
दीवार पर नये साल पर
नया रंग होने वाला है
जगह खाली पड़ी है
और बहुत पड़ी है
इधर से लेकर उधर तक
जहां जो मन करे जब करे
लटकाता कोई दूर तक
अगर चले भी जाने वाला है
सबके पास हैं बहुत हैं
हर कोई कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं पर
ला ला कर
लटकाने वाला है
फुरसत नहीं है किसी को
जब जरा सा भी कहीं
देखने कोई किसी और का
कैलेंडर फिर क्यों कहीं
को जाने वाला है
अपनी तारीख भी तो
उसी दिन की होती है
जिस दिन का वो एक
कैलेंडर ला कर यहां
लटकाने वाला है
मुझे है मतलब पर
बस उसी से है जो
मेरे कैलेंडर की तारीख
देख कर अपना दिन
शुरु करने वाला है |

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

आदत अगर हो खराब तो हो ही जाती है बकवास


मैंने
तो सोचा था 
आज तू नहीं आयेगा 

थक
गया होगा 
आराम करने को 
कहीं दूर चला जायेगा 

चार सौ पन्ने 
भर तो चुका है 
अपनी बकवासों से 

कुछ
रह नहीं गया 
होगा
बकाया तेरे पास 
शायद तुझसे अब
कुछ 
नया नहीं कहा जायेगा 

ऎसा
कहाँ हो पाता है 

जब
कोई कुछ भी 
कभी भी कहीं भी 
लिखना शुरु जाता है 

कहीं
ना कहीं से 
कुछ ना कुछ 
खोद के लिखने के 
लिये ले आता है 

अब
इतना बड़ा देश है 
तरह तरह
की भाषाऎं 
हैं बोलियाँ हैं 

हर
गली मोहल्ले के 
अपने तीज त्योहार हैं 

हर गाँव
हर शहर की 
अपनी अपनी  
रंगबिरंगी टोलियाँ हैं 

कोई
देश की बात
को 
बडे़ अखबार तक 
पहुँचा ले जाता है 

सारे
अखबारों का 
मुख्य पृष्ठ उस दिन 
उसी खबर से पट जाता है 

पता
कहाँ कोई 
कर पाता है

कि 
खबर
वाकई में 
कोई एक
सही ले 
कर यहाँ आता है 

सुना
जाता है 
इधर के
सबसे 
बडे़ नेता
को
कोई 
बंदर कह जाता है 

बंदर
की टीम का 
कोई एक सिकंदर 

खुंदक में 
किसी को फंसाने के लिये 
सुंदर सा प्लाट बना ले जाता है 

उधर
का बड़ा नेता 
बंदर बंदर सुन कर
डमरू
बजाना 
शुरु हो जाता है 
साक्षात
शिव का 
रुप हो जाता है 
तांडव
करना 
शुरु हो जाता है 

अब
ये तो बडे़ 
मंच की
बड़ी बड़ी 
रामलीलाऎं होती है 

हम जैसे
कूप मंडूकों 
से
इस लेवल तक 
कहाँ पहुँचा जाता है 

हमारी
नजर तो 
बडे़ लोगों के 
छोटे छोटे चाहने 
वालों तक ही पहुंच पाती है 

उनकी
हरकतों को 
देख कर ही हमारी इच्छाऎं
सब हरी 
हो जाती हैं 

किसी
का लंगोट 
किसी की टोपी
के 
धूप में सूखते सूखते 
हो गये दर्शन की सोच ही

हमें
मोक्ष दिलाने 
के लिये
काफी 
हो जाती हैं 

सबको पता है 

ये
छोटी छोटी 
नालियाँ ही
मिलकर 
एक बड़ा नाला 

और
बडे़ बडे़ 
नाले मिलकर ही 
देश को डुबोने के लिये
गड्ढा 
तैयार करवाती हैं 

कीचड़ भरे
 इन्ही 
गड्ढों के ऊपर 
फहरा रहे
झकाझक 
झंडों पर ही
लेकिन 
सबकी 
नजर जाकर टिक जाती है 

सपने
बडे़ हो जाते हैं 
कुछ सो जाते हैं कुछ खो जाते हैं 

झंडे
इधर से 
उधर हो जाते हैं 

नालियाँ
उसी जगह 
बहती रह जाती हैं 

उसमें
सोये हुऎ 
मच्छर मक्खी 
फिर से भिनभिनाना 
शुरु हो जाते हैं 

ऎसे में
जो 
सो नहीं पाते हैं 
जो खो नहीं जाते हैं 

वो भी
क्या करें 
'उलूक'
अपनी अपनी 
बकवासों को लेकर 
लिखना पढ़ना शुरु हो जाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.quora.com/

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

मत परेशां हुआ कर

मत परेशां हुआ कर
क्या कुछ हुआ है कहीं
कुछ भी तो नहीं
कहीं भी तो नहीं
देख क्या ये परेशां है
देख क्या वो परेशां है
जब नहीं कोई परेशां है
तो तू क्यों परेशां है
सबके चेहरे खिले जाते हैं
तेरे माथे पे क्यों
रेशे नजर आते हैं
तेरी इस आदत से
तो सब परेशां है
वाकई परेशां है
तुझे देख कर ही तो
सबके चेहरे इसी
लिये उतर जाते हैं
कुछ कहीं कहाँ होता है
जो होता है सब की
सहमति से होता है
सही होता होगा
इसी लिये होता है
एक तू परेशां है
क्यों परेशां है
अपनी आदत को बदल
जैसे सब चलते हैं
तू भी कभी तो चल
कविता देखना तेरी
तब जायेगी कुछ बदल
सब फूल देखते हैं
सुंदरता के गीत
गाते हैं सुनाते हैं
तेरी तरह हर बात पर
रोते हैं ना रुलाते हैं
उम्रदराज भी हों अगर
लड़कियों की
तरफ देख कर
कुछ तो मुस्कुराते हैं
मत परेशां हुआ कर
परेशां होने वाले
कभी भी लोगों
में नहीं गिने जाते हैं
जो परेशांनियों
को अन्देखा कर
काम कर ले जाते हैं
कामयाब कहलाते हैं
परेशानी को अन्देखा कर
जो हो रहा है
होने दिया कर
देख कर आता है
कविता मत लिखा कर
ना तू परेशां होगा
ना वो परेशां होगा
होने दिया कर
जो कर रहे हैं कुछ
करने दिया कर
मत परेशां हुआ कर ।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

ले खा एक स्टेटमेंट अखबार में और दे के आ

पागल उल्लू

आज फिर

अपनी
औकात
भुला बैठा

आदत
से बाज
नहीं आया

फिर
एक बार
लात खा बैठा

बंदरों के
उत्पात पर
वक्तव्य
एक छाप

बंदरों के
रिश्तेदारों के

अखबार
के दफ्तर
दे कर
आ बैठा

सुबह सुबह
अखबार में

बाक्स में
खबर
बड़ी सी
दिखाई
जब पड़ी

उल्लू के
दोस्तों के
फोनो से

बहुत सी
गालियाँ
उल्लू को
सुनाई पड़ी

खबर छप
गई थी

बंदरों के
सारे
कार्यक्रमों
की फोटो
के साथ

उल्लू
बैठा था
मंच पर

अध्यक्ष
भी बनाया
गया था

बंदरों के
झुंड से
घिरा हुआ

बाँधे
अपने
हाथों
में हाथ ।