उलूक टाइम्स: सफेद
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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

लिखना फिर शुरु कर ‘उलूक’ लिखे पर लम्बाई के हिसाब से भुगतान किये जाने की खबर आ रही है

 

लिखना
और
सुबह सवेरे
समय पर उठना
एक जैसा हो लिया है 

कुछ
समय से
आदतें सारी
यूँ ही
खराब होती जा रही है 

सारा
बेतरतीब
वहीं का वहीं रह गया है 

सपना
आसमान का एक
जमीं पर खुद सो लिया है 

कूड़े के डिब्बे को
रोज खाली करने की
याद
नहीं आ रही है 

सफेद में काला
और
काले में
कुछ सफेद बो लिया है 

सफेद पन्नों की देखिये
कैसी
मौज होती जा रही है

स्याही ने खुद को
कुछ सफेद सा रंग लिया है 
सारी सफेदी
सफेदों के सामने से
सफेद सफेद चिल्ला रही है 

लिखना लिखाना
अँधेरे में खुद ही खो लिया है 
स्याही काली
अपने काले शब्दों को पी जा रही है 

शब्दों को पता नहीं
क्यों इतना नशा हो लिया है 
स्याही
कलम के पेट में
अलग से लड़खड़ा रही है 

लिखना भूल जाना
बहुत अच्छा है
कोई भूल ही गया है 

भरे कूड़े के
डब्बे के अंदर से
घमासान
होने की आवाजें आ रही हैं 

फीते से
कलम के साथ पन्ने
कई सारे
नाप लिया है ‘उलूक’ 

लिखे लिखाई की
प्रति मीटर लम्बाई
के हिसाब से
भुगतान किये जाने की
खबर आ रही है। 

चित्र साभार: https://www.smashingmagazine.com/

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

बधाई बधाई तेरा घर टूटने की

बधाई बधाई हो रही है तेरा घर टूटने की और तेरे लिये वो ही कोई मरा जैसा है
तू जानता है ‘उलूक’ चीख चिल्ला गला फाड़ कर
इस नक्कारकाने में अपनी तूती बजाने के लिये मजबूत गिरोह का बाजा खरीदना होता है



तेरे सामने तेरे घर को तोड़ कर
एक टुकड़ा देखता क्यों नहीं है फैंका नहीं है
किस लिये रोता है 

गुलाब की कलम है
माली नहीं भी है तो क्या हुआ रोपने के लिये
सोच ले कोई जरूर होगा मवाली सही कहीं ना कहीं
उसके सामने जा कर दीदे फाड़ लेना पूछ लेना
क्यों नहीं बोता है

घर तेरा टूट गया क्या हुआ
देखता क्यों नहीं मोहल्ले के दो चार और घर मिला कर
नया घर बनाने का
सरकारी मजमा ढोल नगाड़े बजाता हुआ
अखबार की खबर में सुबह सुबह रूबरू
आजकल रोज का रोज तो होता है

तुझसे नहीं पूछा
नयी बोतल में पुरानी शराब ही नहीं
कुछ और भी मिलाया है
कॉकटेल कहते हैं
इतना तो नहीं पीने वाले को भी
पता होता है
गम मत कर यहाँ का दस्तूर है यहाँ यही होता है

मरीज हस्पताल की बात चिकित्सक से काहे पूछनी
दुकाने बहुत हैं उनके सरदार को
ज्यादा मालूम होता है

स्कूल की बात मास्टर से काहे पूछनी
झाडू देने वाला रोज सुबह का कूड़ा
रोज निकालता है
पढ़ने लिखने वाले के बारे में उसको ज्यादा पता होता है

तेरे शहर के लोग शरीफ हैंं
इधर उधर से देखे हुऐ बहुत कुछ को बताने का
उनको ज्यादा अनुभव होता है

कबूतरों के बारे में काहे कौओं से पूछना
कालों को सफेदों के बारे में
कौन सा सबसे ज्यादा पता होता है

बधाई बधाई हो रही है तेरा घर टूटने की
 तेरे लिये वो ही कोई मरा जैसा है तू जानता है

‘उलूक’
चीख चिल्ला गला फाड़ कर
इस नक्कारकाने में अपनी तूती बजाने के लिये
सबसे मजबूत गिरोह का बाजा खरीदना होता है।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/




अगर आप बुद्धिजीवी कैटेगेरी में आते है अगर आप अल्मोड़ा से हैं और अगर आप बेवकूफ नहीं हैं तो कृपया लिखे को ना पढ़े ना समझने की कोशिश करें ना लाईक करें ना टिप्पणी देने का प्रयत्न करें। ये बस एक वैधानिक चेतावनी है। ये कुमाउँ विश्वविद्यालय से अल्मोड़ा को अलग करने के विरोध की बकवास है।

शनिवार, 31 अगस्त 2019

ठीक नहीं ‘उलूक’ थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना



आभार पाठक
 'उलूक टाइम्स' पर जुलाई 2016 के अब तक के अधिकतम 217629 हिट्स को 
अगस्त 2019 के 220621 हिट्स ने पीछे छोड़ा 
पुन: आभार 
पाठक


सुना गया है
अब हर कोई एक खुली हुयी किताब है 

हर पन्ना जिसका
झक्क है सफेद है और साफ है 

सभी लिखते हैं
आज कुछ ना कुछ
बहुत बड़ी बात है 

कलम और कागज ही नहीं रहे बस
बाकी सब इफरात है 

कोई नहीं लिखता है कहीं
किसी भी अन्दर की बात को 

ढूँढने निकलता है
एक सूरज को मगर
वो भी किसी रात को 

सोचता है साथ में
सब दिन दोपहर में
कभी आ कर उसे पढ़ें

कुछ वाह करें
कुछ लाजवाब
कुछ टिप्पणी
कुछ स्वर्णिम गढ़ें

समझ में
सब के सब कुछ
बहुत अच्छी तरह से आता है 

जितने से
जिसका काम चलता है
उतना समझ गया होता है
उसे
ढोल नगाड़े साथ ला कर
खुल कर
जरूर बताता है 

जहाँ फंसती है जान
होता है
बहुत बड़ी जनसंख्या से जुड़ा
कोई उनवान
शरमाना दिखा कर
अपने ही किसी डर के खोल में
घुस जाता है 

किस अखबार को
कौन कितना पढ़ता है
सारे आँकड़े
सामने आ जाते हैं 

किस अखबार में
कैसे अपनी खबर कोई
हर हफ्ते छपवा ले जाता है
कैसे हो रहा है होता है
ऐसा कोई
पूछने ही नहीं जाता है 

कोई
नजर नहीं आता है का मतलब
नहीं होता है
कि
समझ में नहीं आता है 

उलूक के लिये
बस
एक राय 

लिखना लिखाना छपना छपाना कहीं भीड़ कहीं खालिस सा वीराना
‘उलूक’ ठीक नहीं थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

काला फिर से सफेद और सफेद फिर से काला हो जाने की घड़ी का समय खोज रहा है गणना करने वाले हाँफ रहे हैं

कुछ चूहे
सुना जा
रहा है

नाच रहे हैं

कुछ
पता चल
रहा है

भाग रहे हैं

किसी
जलजले
का डर है
या
किसी साँप
की हलचल
कहीं
आसपास
रेंगने की
भाँप रहे हैं

सफेद चूहों
को देखा है
खोदते हुऐ
एक मकान
की जड़ों को
कल तक

आज काले
उधर की तरफ
झाँक रहे हैं

बहुत
हड़बड़ी
के साथ
एक दूसरे
के ऊपर
चढ़ कूद
उछल कर
शोर मचाते

अपने
पंजे और दाँतों
को माँज रहे हैं

ठेका
बदल रहा है
कुछ देर में ही

निविदाओं
के पुराने
हो चुके
कागजों से

पुराने
ठेकेदार
सर्दी भगाने
के लिये
आग जला
कर ताप रहे हैं

खबर
गरम है
गरम पड़े
हुऐ नरम हैं

आकाश
की तरह
मुँह किये हुऐ
कई सारे

दिन में
तारे गिनने की
कोशिश करते

जैसे
आँखों ही
आँखों में

एक दूसरे की
पीड़ा नाप रहे हैं

‘उलूक’
तू भी देख

मुँह
ऊपर कर
आकाश की
तरफ कहीं

सबसे
खुशहाल
वही सब हैं

जो नहीं
सोच रहे हैं चूहे

और
मुँह उठा कर

कहीं
ऊपर
की तरफ
ताक रहे हैं।

चित्र साभार: https://clipartxtras.com

शनिवार, 10 नवंबर 2018

लिखा हुआ रंगीन भी होता है रंगहीन भी होता है बस देखने वाली आँखों को पता होता है

कुछ
रंगीन
लिखना

ज्यादा
ठीक
होता है
शायद

रंगहीन
कुछ
लिखने से

रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी

वो रंग

जो
बन भी
नहीं पाते हैं

कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से

किसलिये लिखने ?

आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी

तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है

कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं

हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा

वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना

या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है

लेकिन
आँखों को

अपने
मन से
अपने
हिसाब से

देख लेना
सिखा दिया
गया होता है

समय
को पता
नहीं होता है

अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं

अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं

हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है

रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है

‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के

काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी

रंगहीन
लिखते
चले जाने से

रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है

वर्णान्ध होना

रोग भी होता है

रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।


चित्र साभार: https://www.tolerance.org/

सोमवार, 11 जून 2018

जरूरी है फटी रजाई का घर के अन्दर ही रहना खोल सफेद झक्क बस दिखाते चलें धूप में सूखते हुऐ करीने से लगे लाईन में

खोल
जरूरी है

साफ
सफेद झक्क

फटी हुई
रजाई को
ढकने के लिये

सारे
सफेद खोल
लटके हुऐ
करीने से
चमचमाती
धूप में 

सूखते हुऐ

खुशनसीब
खुशफहमी
की रूईयाँ

उधड़ी 
दरारों से
झाँकती हुई

घर के अन्दर
अंधेरे की
खिड़कियों को
समझाती हुई

परहेज करना
रोशनी से 


फटी
रजाई ओढ़ते
आदमी का

बाहर
झाँकता चेहरा
साँस लेने के लिये

साफ हवा
भी जरूरी है

लेकिन खोल
ज्यादा जरूरी है

और
जरूरी है

उसका
धुला होना
साफ होना
झक्कास रहना

चमकना 
धूप में
फिर स्त्री 

किया जाना

फटी हुयी
रजाइयाँ 

और
आदत 

में शामिल
बाहर 

को लटकते
रूई के फाहे

खोल
मजबूरी
नहीं होते हैं
किसी के लिये

एक
पाठ्यक्रम
हो जाते हैं

बिना 

खोल के
उधड़ा 

हुआ आदमी
बेकार है 

बेमानी है

आइये
सजायें
ला ला कर
सफेद
झक्कास
खोलों को

अलग अलग
जगह के
अलग अलग
आदमी के

आदमी के
लिये ही
बनाने 

और
दिखाने के
लिये इंद्रधनुष

सात रंगों
के नशे में
चूर के लिये
नशे की सोच
भी पाप है

और 

प्रायश्चित
बस 

एक ही है

साफ 

सफेद
धुले हुऐ
धूप में
लाईन 

लगा कर
सुखाये 

गये खोल

फटी हुई
रजाई
कहीं भी
नजर नहीं
आनी चाहिये
'उलूक'
किसे
जरूरत है

आँखें
अच्छा देखें
कान
अच्छा सुनें
अच्छे
की आशायें
खोल में
समाहित
होती हैं

यही
फलसफा है
बकवास
करते चले
जाने का।

चित्र साभार: www.amazon.com

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

पन्ना एक सफेद सामने से आया हुआ सफेद ही छोड़ देना अच्छा नहीं होता है

बकवास का
हिसाब रखने
वाले को
पता होता है

उसने कब
किस समय
कहाँ और
कितना कुछ
कहा होता है

इस जमाने
के हिसाब से
कुछ भी
कहीं भी
कभी भी
कितना भी
कह कर
हवा में
छोड़ देना
अच्छा होता है

पकड़ लेते हैं
उड़ती हवाओं
में से छोड़ी
गयी बातों को
पकड़ लेने वाले

बहुत सारे
धन्धों के
चलने में
इन्ही सारी
हवाओं का
ही कुछ
असर होता है

गिन भी लेना
चाहिये फेंकी
गयी बातों को
उनकी लम्बाई
नापने के साथ

बहुत कुछ होता है
करने के लिये
ऐसी जगह पर
सारा शहर जहाँ
हर घड़ी आँखें
खोल कर खड़े
होकर भी सोता है

सपने बना कर
बेचने वाले भी
 इन्तजार करते हैं
हमेशा अमावस
की रातों का

चाँद भी बेसुध
हो कर कभी
खुद भी सपने
देखने के
लिये सोता है

‘उलूक’
तबियत के
नासाज होने
का कहाँ
किसे अन्दाज
आ पाता है

कब बुखार में
कब नींद में
और
कब नशे में

क्या क्यों और
किसलिये
बड़बड़ाता
हुआ सा कहीं
कुछ जब
लिखा होता है ।

चित्र साभार: Clipart Library

मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

हर सफेद बोलने वाला काला एक साथ चौंच से मिला कर चौंच खोलता है

गरम
होता है
उबलता है
खौलता है

कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है

अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है

तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की

सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार

बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है

नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है

नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ

नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है

‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के

खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज

इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।

चित्र साभार: Daily Mail

सोमवार, 31 जुलाई 2017

काला पूरा काला सफेद पूरा सफेद अब कहीं नहीं दिखेगा

शतरंज की
काली सफेद
गोटियाँ
अचानक
अपने डिब्बे
को छोड़ कर
सारी की सारी
बाहर हो गयी हैं

दिखा रही हैं
डिब्बे के
अन्दर साथ
रहते रहते
आपस में
हिल मिल कर
एक दूसरे में
खो गयी हैं

समझा
रही हैं
तैयार हैं
खुद ही
मैदान में
जाने के लिये

आदेशित
नहीं की
गयी हैं
विनम्र
होते होते
खुद ही
निर्देशित
हो गयी हैं

कुछ काली
कुछ सफेद के
साथ इधर
की हो गयी हैं
कुछ सफेद
कुछ काली के
साथ उधर
को चली गयी हैं

अपने खेल
गोटियाँ अब
खुद खेलेंगी
चाल चलने
वालों को
अच्छी तरह से
समझा गयी हैं

घोड़े ऊँठ
और हाथी
पैदल वजीर
के साथी
सोचना छोड़ दें
पुराना खेल
खेलने के आदी

हार जीत
की बात
कोई नहीं
करेगा
भाईचारे के
खेल का
भाईचारा
भाई का भाई
अपने अखबार में
कम्पनी के लिये नहीं
खिलाड़ियों के
लिये ही
बस और बस
लिखता
हुआ दिखेगा

खेल का
मैदान भी
काले सफेद
खानों में
नहीं बटेगा

आधे
सफेद खाने
के साथ आधा
काला खाना भी
बराबरी के साथ
कंधे से कंधा
मिलाता
हुआ दिखेगा

 जातिवाद
क्षेत्रवाद
आतंकवाद
इसी तरह से
खेल खेल में
शतरंज के
खेल को
उसी की
गोटियों के हाथ
स्वतंत्रता के साथ
खेलने देने के हक
दे डालने के बाद
से मिटता हुआ
अपने आप दिखेगा

‘उलूक’
समझ ले
हिसाब किताब
पीछे पीछे कुछ भी
नहीं अब चलेगा

इस सब
के बाद
काला काले
के लिये ही
और सफेद
सफेद के
लिये ही नहीं

काला सफेद
के लिये और
सफेद काले
के लिये भी
आसानी से
सस्ते दामों में
खुली बाजार में
बिकता हुआ दिखेगा ।

चित्र साभार: 123RF.com

रविवार, 11 जून 2017

सीखिये नस दबाना और पाइये जवाब क्यों दिखता है सफेद कौए का काले कौए के सर के ऊपर हाथ

कृष्ण अर्जुन
उपदेश
और गीता
आज भी हैं
 बस गीता
किताब
नहीं रही
अखबार
हो गई है

बुद्धिजीवियों
के ऊपर बैठा
हुआ कौआ
का का करता है

कौए को
कृष्ण की
नस का
पता रहता है

अखबार
गीता है
और उसपर
छपी खबर
श्लोक होती है

जिनको नहीं
पता है वो
समझ लें
और
हनुमान
चालीसा पढ़ना
छोड़ कर
रोज सुबह का
अखबार बाँच लें

चोरी करें
डाका डालें
कुर्सी में
बैठने के लिये

ऊपर कहीं
दूर से दबाव
डलवालें

वहाँ भी कृष्ण हैं
गीता बाँचते हैं
खबर बहुत
जरूरी होती है
नस दबाने
के बाद ही
सीढ़ी पूरी
होती है

सफेद कौआ
काले कौए की
वकालत करता
नजर आता है

अखबार कौए
के रंग की बात
पता नहीं क्यों
खा जाता है

नस दबाना
अब किसी
और जगह
सिखाया
जाने वाला है

जगह नहीं
मिल रही है
कहीं भेी
अभी तक
ये अलग
बात है
और
छोटा सा
बबाला
आने वाला है

समय बहुत
अच्छा है
बस नस
दबा कर
कुछ भी
कहीं भी
कैसा भी
काम किसी
से भी करवाना

आधार कार्ड
के साथ
हो जाने
वाला है

ठंड रखना
जरूरी है

फर्जी की
तरक्की का
सरकारी आदेश
जल्दी ही
आने वाला है

‘उलूक’
अखबार
सरकार
और फर्जी
मत सोच

आराम से
किसी भी
ईमानदार
की
ईमानदारी
 की
नींव खोद ।

चित्र साभार: Dreamstime.com

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

एक रंग से सम्मोहित होते रहने वाले इंद्रधनुष से हमेशा मुँह चुरायेंगे

अपने
सुर पर
लगाम लगा

अपनी
ढपली
बजाने से
अब
बाज
भी आ

बजा
तो रहा हूँ
मैं भी ढपली
और
गा भी
रहा हूँ कुछ
बेराग ही सही

सुनता
क्यों नहीं

अब सब
अपनी अपनी
बजाना शुरु
हो जायेंगे तो

समझता
क्यों नहीं
काँव काँव
करते कौए
हो जायेंगे

और
साफ सफेद
दूध से धुले हुऐ
कबूतर फिर
मजाक उड़ायेंगे

क्या करेगा
उस समय

अभी नहीं सोचेगा
समय भूल जायेगा
तुझे
और मुझे

फिर
हर खेत में
कबूतरों की
फूल मालाऐं
पहने हुऐ
रंग बिरंगे
पुतले
नजर आयेंगे

पीढ़ियों दर
पीढ़ियों के लिये

पुतलों पर
कमीशन
खा खा कर

कई पीढ़ियों
के लिये
अमर हो जायेंगे

कभी
सोचना
भी चाहिये

लाल कपड़ा
दिखा दिखा कर

लोग क्या
बैलों को
हमेशा
इसी तरह
भड़काऐंगे

इसी तरह
बिना सोचे
जमा होते
रहेंगी सोचें

बिना
सोचे समझे
किसी एक
रंग के पीछे

बिना रंग के
सफेद रंग
हर गंदगी को
ढक ढका कर

हर बार
की तरह

कोपलों को
फूल बनने
से पहले ही

कहीं पेड़ की
किसी डाल पर

एक बार
फिर से

बार बार
और
हर बार
की तरह ही

भटका कर
ले जायेंगे ।

चित्र साभार: www.allposters.com

बुधवार, 29 जुलाई 2015

समझदारी है सफेद को सफेद रहने देकर वक्त रहते सारा सफेद कर लिया जाये

छोड़ दिया जाये
कभी किसी समय
खींच कर कुछ
सफेद लकीरें
सफेद पन्ने के
ऊपर यूँ ही
हर वक्त सफेद
को काला कर
ले जाने की मंशा
भी ठीक नहीं
रंग रहें रंगीन रहें
रंगीनियों से भरे रहें
रहने दिया जाये
काले में सफेद भी
और सफेद में
काला भी होता है
कहीं कम कहीं
ज्यादा भी होता है
रहने भी दिया जाये
ढकने के लिये सब
कुछ नजर सफेद
पर टिकी रहे
रहनी ही चाहिये
मौका मिले ओढ़ने का
सफेदी को कभी
अच्छा होता है अगर
खुद ही ओढ़ लिया जाये
सर से शुरु होती है
सफेदी जहाँ सब
सफेद दिखता है
पाँवो के तले पर भी
सफेद ही कर लिया जाये
सफेद पर ही चलना हो
सब कुछ सफेद ही रहे
सफेद पर ही
रुक लिया जाये
इससे पहले किसी को
ढकना पढ़े तेरा भी कुछ
सफेद सफेद से ‘उलूक’
वक्त को समझ कर
जितना कर सकता है
कोई सफेद सफेदी के साथ
सफेद कर लिया जाये ।

चित्र साभार: itoon.co

बुधवार, 4 मार्च 2015

रंग बहुत हो गये इधर उधर रहने दे इस बार मत उड़ा बस रंग बिरंगे चुटकुले कुछ रोज सुना

रंग भरिये प्रतियोगिता 
राजा और रानी
राजकुमार और
राजकुमारी
चंपकवन और
खरगोश
शेर लोमड़ी
जंगल पेड़ पौंधे
और कुछ
खानाबदोश
कितना कुछ
है सतरंगी
चल शुरु हो जा
खोज और
कुछ नया खोज
बाहर निकल
बीमार मन
की कमजोर
दीवारों को
मत खोद
बना कोई
मजबूत लेप
सादा सफेद
गीत भी गा
अपने फटे हुऐ
गले और
राग तरन्नुम
को मत देख
मुस्कुरा
बेनूर हंसी
को छिपाने के
प्रयास में होंठों
को मत हिला
जरा थोड़ा जोर
से तो बड़बड़ा
सुना है
इस बार भी
हमेशा के जैसा
रंगो का त्योहार
आ गया है
होली खेल
रंग बिरंगे
सपने देख
बेच सकता है
तो बेच
झूठ खरीद
सच में लपेट
और झूठ झूठ
में ही सही बेच
खुश रह
होली खेल
रंग उड़ा
रंगीन बातों
पर मत जा
अपनी फटी
धोती उठा
हजार करोड़ का
टल्ला लगा
इधर उधर
मत देख
गाना गा
बिना पिये
जमीन पर
लोट लगा
बहुत साल
खेल लिया
‘उलूक’
रंगो को मिला
मिला कर
रंग बिरंगी होली
कभी एक रंग
की भी खेल
किसी को
हरा लगा
किसी को
गेरुआ चिपका
बदल दे टोपी
इस बार सफेद
काली करवा
बहुत हो गया
बहुत हो गया
सफेद सफेद
झका झक सफेद
कर दे उलट फेर
नयी कर कुछ
नौटंकी
जी भर कर
चुटकुले सुना
दे दना दन
एक के बाद एक
पीटने के लिये
खड़ा है तालियाँ
डेढ़ सौ करोड़
का देश
बुरा सोच
बुरा कर
बुरा ना मानो
होली है
का ट्वीट
कर तुरंत
उसके बाद
एक संदेश ।
चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 30 मई 2014

चेहरे का चेहरा



एक खुश चेहरे को देख कर
एक चेहरे का बुझ जाना

एक बुझे चेहरे का
एक बुझे चेहरे पर खुशी ले आना

एक चेहरे का बदल लेना चेहरा
चेहरे के साथ
बता देता है चेहरा मौन नहीं होता है

चेहरा भी कर लेता है बात

चेहरे दर चेहरे 
चेहरों से गुजरते हुऐ चेहरे
माहिर हो जाते हैं समय के साथ
कोशिश कोई चेहरा नहीं करता है
जरूरत भी नहीं होती है

चेहरा कोई नहीं पढ़ता है
कोई किताब जो क्या होती है

चेहरे काले भी होते हैं चेहरे सफेद भी होते हैं
बहुत बहुत लम्बे समय तक साथ साथ भी रहते हैं

चेहरे कब चेहरे बदल लेते हैं
चेहरे चेहरे से बस यही तो कभी नहीं कहते हैं
चेहरे चेहरों के कभी नहीं होते हैं ।

चित्र साभार: https://pngtree.com/

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

गंंदगी ही गंंदगी को गंंदगी में मिलाती है

होनी तो होनी
ही होती है
होती रहती है
अनहोनी होने
की खबर
कभी कभी
आ जाती है
कुछ देर के
लिये ही सही
कुछ लोगों की
बांंछे खिल कर
कमल जैसी
हो जाती हैं
गंंदगी से भरे
नाले की
कुछ गंंदगी
अपने आप
निकल कर
जब बाहर को
चली आती है
फैलती है खबर
आग की तरह
चारों तरफ
पहाड़ों और
मैदानो तक
नालों से
होते होते
नाले नदियों
तक फैल जाती है
गंंदगी को
गंंदगी खीँचती है
अपनी तरफ
हमेशा से ही
इस नाले से
निकलते निकलते
दूसरे नालों के
द्वारा लपक
ली जाती है
गंंदगी करती है
प्रवचन गीता के
लिपटी रहती है
झक्क सफेद
कपड़ों में हमेशा
फूल मालाओं से
ढक कर बदबू
सारी छुपाती है
आदत हो चुकी
होती है कीड़ों को
इस नाले के हो
या किसी और
नाले के भी
एक गँदगी के
निकलते ही
कमी पूरी करने
के लिये दूसरी
कहीं से बुला
ली जाती है
खेल गंंदगी का
देखने सुनने
वाले समझते हैं
बहुत अच्छी तरह से
हमेशा से ही
नाक में रुमाल
लगाने की भी
किसी को जरूरत
नहीं रह जाती है
बस देखना भर
रह गया है
थोड़ा सा इतना
और कितनी गंंदगी
अपने साथ उधर से
चिपका कर लाती है
और कौन सी
दूसरी नाली है
जो उसको अब
लपकने के लिये
सामने आती है ।

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

आम में खास खास में आम समझ में नहीं आ पा रहा है

आज का नुस्खा
दिमाग में आम
को घुमा रहा है
आम की सोचना
शुरु करते ही
खास सामने से
आता हुआ नजर
आ जा रहा है
कल जब से
शहर वालों को
खबर मिली कि
आम आज जमघट
बस आमों में आम
का लगा रहा है
आम के कुछ खासों
को बोलने समझाने
दिखाने का एक मंच
दिया जा रहा है
खासों के खासों का
जमघट भी जगह
जगह दिख जा रहा है
जोर से बोलता हुआ
खासों का एक खास
आम को देखते ही
फुसफुसाना शुरु
हो जा रहा है
आम के खासों में
खासों का आम भी
नजर आ रहा है
टोपी सफेद कुर्ता सफेद
पायजामा सफेद झंडा
तिरंगा हाथ में एक
नजर आ रहा है
वंदे भी है मातरम भी है
अंतर बस टोपी में
लिखे हुऐ से ही
हो जा रहा है
“उलूक” तो बस
इतना पता करना
चाह रहा है
खास कभी भी
नहीं हो पाया जो
उसे क्या आम में
अब गिना जा रहा है ।

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

पता कहाँ होता है किसे कौन कहाँ पढ़ता है

साफ सुथरी
सफेद एक
दीवार के
सामने
खड़े होकर
बड़बड़ाते हुऐ
कुछ कह
ले जाना
जहाँ पर
महसूस
ही नहीं
होता हो
किसी
का भी
आना जाना
उसी तरह
जैसे हो एक
सफेद बोर्ड
खुद के पढ़ने
पढ़ाने के लिये
उस पर
सफेद चॉक से
कभी कुछ
कभी सबकुछ
लिख ले जाना
फर्क किसे
कितना
पड़ता है
लिखने वाला
भी शायद ही
कभी इस
पर कोई
गणित 
करता है
भरे दिमाग
के कूड़े के
बोझ को
वो उस
तरह से
तो ये
इस तरह
से कम
करता है
हर अकेला
अपने आप
से किसी
ना किसी
तरीके से
बात जरूर
करता है
कभी समझ
में आ
जाती हैं
कई बातें
इसी तरह
कभी बिना
समझे भी
आना और
जाना पड़ता है
दीवार को
शायद पड़
जाती है
उसकी आदत
जो हमेशा
उसके सामने
खड़े होकर
खुद से
लड़ता है
एक सुखद
आश्चर्य से
थोड़ी सी झेंप
के साथ
मुस्कुराना
बस उस
समय पड़ता है
पता चलता है
अचानक
जब कभी
दीवार के
पीछे से
आकर
तो कोई
हमेशा ही
खड़ा हुआ
करता है ।

शुक्रवार, 8 जून 2012

चल मुँह धो कर के आते हैं

अपनी भी
कुछ पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

मंजिल तक
पहुंचने के
लम्बे रास्ते
से ले जाते हैं

कुछ
राहगीरों को
आज राह से
भटकाते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

चलचित्र 'ए'
देखने का
माहौल बनाते हैं

उनकी आहट
सुनते ही
चुप हो जाते हैं

बात
बदल कर
गांंधी की
ले आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

बूंद बूंद
से घड़ा
भर जाये
ऎसा
कोई रास्ता
अपनाते हैं

चावल की
बोरियों में
छेद
एक एक
करके आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

अन्ना जी से
कुछ कुछ
सीख  कर
के आते हैं

सफेद टोपी
एक सिलवाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

किसी के
कंधे की 
सीढ़ी एक
बनाते हैं


ऊपर जाकर
लात मारकर
उसे नीचे
गिराते हैं

सांत्वना देने
उसके घर
कुछ केले ले
कर जाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

देश का
बेड़ा गर्क
करने की
कोई कसर
कहीं
नहीं छोड़
कर के जाते हैं

भगत सिंह
की फोटो
छपवा कर के
बिकवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


एक रुपिया
सरकारी
खाते में
जमा करके

बाकी
निन्नानबे
घर अपने
पहुंचवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


अपनी
भी कुछ
पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं।