उलूक टाइम्स

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

झगड़े होते होंगे कहीं पर अब सामने से खुलेआम नहीं होते हैं

बिल्लियाँ बंदर
तराजू और रोटी
की कहानी कोई
नई कहानी नहीं है
एक बहुत पुरानी
कहानी है
इतनी पुरानी कहानी
जिसे सुनाते सुनाते
सुनाने वाले सभी
घर के लोग इस समय
घर में बने लकड़ी के
कानस पर रखी हुई
फोटो में सूखे फूलों
की मालाऐं ओढ़े
धूल मिट्टी से भरे
खिसियाये हुऐ से
कब से बैठे हैं
जैसे पूछ रहे हैं
बिल्लियों बंदरों के
झगड़े क्या अब भी
उसी तरह से होते हैं
इस बात से अंजान
कि दीमक चाट चुकी है
कानस की लकड़ी को
और वो सब खुद
लकड़ी के बुरादे
पर चुपचाप बैठे हैं
कौन बताये जाकर
उन्हें ऊपर कहीं कि
बिल्लियाँ और बंदर
अब साथ में ही
दिखाई देते हैं
रोटी और तराजू भी
नजर नहीं आते हैं
तराजू की जरूरत
अब नहीं पड़ती है
उसे ले जाकर दोनों
साथ ही कहीं पर
टाँग कर बैठे हैं
तराजू देखने वाले
सुना है न्याय देते हैं
रोटी के लिये क्यों
और किस लिये
कब तक झगड़ना
इसलिये आटे को ही
दोनो आधा आधा
चुपचाप बांट लेते हैं
बिल्लियों और
बंदरों की नई
कहानियों में अब
ना रोटियाँ होती हैं
ना झगड़े होते हैं
ना तराजू ही होते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

बुधवार, 15 जुलाई 2015

चलो ऊपर वाले से पेट के बाहर चिपकी कुछ खाली जेबें भी अलग से माँगते हैं

कुछ भी नहीं
खाया जाता है
थोड़े से में पेट
ऊपर कहीं
गले गले तक
भर जाता है
महीने भर
का अनाज
थैलों में नहीं
बोरियों में
भरा आता है
खर्च थोड़ा
सा होता है
ज्यादा बचा
घर पर ही
रह जाता है
एक भरा
हुआ पेट
मगर भर ही
नहीं पाता है
एक नहीं बहुत
सारे भरे पेट
नजर आते हैं
आदतें मगर
नहीं छोड़ती
हैं पीछा
खाना खाने
के बाद भी
दोनो हाथों की
मुट्ठियों में भी
भर भर कर
उठाते हैं
बातों में यही
सब भरे
हुऐ पेट
पेट में भरे
रसों से
सरोबार हो
कर बातों
को गीला
और रसीला
बनाते हैं
नया सुनने
वाले होते हैं
हर साल ही
नये आते हैं
गोपाल के
भजनों को सुन
कल्पनाओं में
खो जाते हैं
सुंदर सपने
देखतें हैं
बात करने
वालों में
उनको कृष्ण
और राम
नजर आते हैं
पुराने मगर
सब जानते हैं
इन सब भरे पेटों
की बातों में भरे
रसीले जहर को
पहचानते हैं
ऊपर वाले से
पूछते भी हैं हमेशा
बनाते समय ऐसे
भरे पेटों के
पेटों के
अगल बगल
दो चार जेबें
बाहर से उनके
कारीगर लोग
अलग से क्यों
नहीं टांगते हैं ।

 चित्र साभार: theinsidepress.com

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

घाव कुरेदने के भी अपने ही मजे होते हैं

सबके होते हैं
अपने दर्द
अपने घावों के
घाव अपने
खुद के कर्मों के
घाव किसी
के दिये हुऐ या
शौक से
पाले हुऐ घाव
चेहरे पर नजर
आते घाव
हल्के से
मुस्कुराते घाव
घाव कुछ
तमीजदार या
फिर एक दो
बदतमीज घाव
लेकिन इन सब
के बावजूद
बहुत घाघ भी
हो सकते हैं घाव
घाव होने के
फायदे भी
आसानी से
उठाये जाते हैं
घाव के बदले में
घाव लिये
भी जाते हैं
घाव देना
आसान होता है
आसानी से दिये
भी जाते हैं घाव
कुछ लोग
घावों के व्यापारी
भी हो जाते हैं
अपनी दुकान
का पता
मगर हमेशा
छुपाते हैं
घाव कुरेदने में
दक्ष होते हैं
घावों को
बहुत दूर से भी
सूँघ ले जाते हैं
घाव कुरेदने से
गुरेज नहीं करते हैं
बातों ही बातों में
बीच में कभी
किसी बात पर
इससे पहले
घाव वाले को
आये कुछ अंदाज
बहुत शराफत
के साथ
मुस्कुराते हुऐ
घाव को आदतन
कुरेद ले जाते हैं ।

चित्र साभार: www.123rf.com

सोमवार, 13 जुलाई 2015

कह दिया सो कह दिया पवित्र है है तो है दिखा मत कह देना कहाँ से दिखायेगा

वो भरा है
गंदगी से
और
पवित्र भी है

जैसे आज
गंगाजल में
गंदगी तो है
फिर भी पवित्र है

गंदगी होने से
कुछ नहीं होता है
इस देश की
विरासत पवित्रता है

सारे गंदगी से
भरे लोग जो
सभी पवित्र हैं
ने आज उसे
प्रमाण पत्र
दे दिया है

पवित्रों में
पवित्र है
कह दिया है

मेरे आस पास
भी बहुत सारी
गंदगी है
मैं भी कोशिश
कर रहा हूँ
गंदगी की
आदत डालने की

क्योंकि गंदगी ही
निकालेगी समस्या
का समाधान

मुझे भी गिना
जाने लगेगा
गंदगी में डूबे हुऐ
महानों में से
एक महान

क्योंकि जब तक
गंदगी नहीं
जमा हो पायेगी
पवित्रता कहाँ से
आकर किधर
को जायेगी

जमाने के साथ
चलना चाहता
है ‘उलूक’
तो आज से
और अभी से
शुरु हो जा
इधर उधर
जहाँ दिखे गंदगी
उठा कर ला

जल्दी कर
जल्दी ही गंदगी
सारे देश में
फैल जायेगी
हर किसी को
गंगा की तरह
पवित्र कर
ले जायेगी

तेरे लिये
कुछ भी बचा
नहीं रह पायेगा
कोई भी तेरी
पवित्रता सिद्ध
करने के लिये
तेरा साथ तब
नहीं दे पायेगा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

रविवार, 12 जुलाई 2015

थोड़े बहुत शब्द होने पर भी अच्छा लिखा जाता है

अब कैसे
समझाया जाये
एक थोड़ा सा
कम पढ़ा लिखा
जब लिखना ही
शुरु हो जाये
अच्छा है
युद्ध का मैदान
नहीं है वर्ना
हथियारों की
कमी हो जाये
मरने जीने की
बात भी यहाँ
नहीं होती है
छीलने काटने
को घास भी
नहीं होती है
लेकिन दिखता है
समझ में आता है
अपने अपने
हथियार हर
कोई चलाता है
घाव नहीं दिखता
है कहीं किसी
के लगा हुआ
लाल रंग का
खून भी निकल
कर नहीं
आता है
पर कोशिश
करना कोई
नहीं छोड़ता है
घड़ा फोड़ने
के लिये कुर्सी
दौड़ में जैसे
एक भागीदार
आँख में पट्टी
बाँध कर
दौड़ता है
निकल नहीं
पाता है
खोल से अपने
उतार नहीं
पाता है
ढोंग के कपड़े
कितना ही
छिपाता है
पढ़ा लिखा
अपने शब्दों
के भंडार के
साथ पीछे
रह जाता है
कम पढ़ा लिखा
थोड़े शब्दों में
समझा जाता है
जो वास्तविक
जीवन में
जैसा होता है
लिखने लिखाने
से भी कुछ
नहीं होता है
जैसा वहाँ होता है
वैसा ही यहाँ आ
कर भी रह जाता है
‘उलूक’ ठीक है
चलाता चल
कौन देख रहा है
कोई अपनी नाव
रेत में रखे रखे ही
चप्पू चलाता है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com