उलूक टाइम्स: नाव
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रविवार, 12 जुलाई 2015

थोड़े बहुत शब्द होने पर भी अच्छा लिखा जाता है

अब कैसे
समझाया जाये
एक थोड़ा सा
कम पढ़ा लिखा
जब लिखना ही
शुरु हो जाये
अच्छा है
युद्ध का मैदान
नहीं है वर्ना
हथियारों की
कमी हो जाये
मरने जीने की
बात भी यहाँ
नहीं होती है
छीलने काटने
को घास भी
नहीं होती है
लेकिन दिखता है
समझ में आता है
अपने अपने
हथियार हर
कोई चलाता है
घाव नहीं दिखता
है कहीं किसी
के लगा हुआ
लाल रंग का
खून भी निकल
कर नहीं
आता है
पर कोशिश
करना कोई
नहीं छोड़ता है
घड़ा फोड़ने
के लिये कुर्सी
दौड़ में जैसे
एक भागीदार
आँख में पट्टी
बाँध कर
दौड़ता है
निकल नहीं
पाता है
खोल से अपने
उतार नहीं
पाता है
ढोंग के कपड़े
कितना ही
छिपाता है
पढ़ा लिखा
अपने शब्दों
के भंडार के
साथ पीछे
रह जाता है
कम पढ़ा लिखा
थोड़े शब्दों में
समझा जाता है
जो वास्तविक
जीवन में
जैसा होता है
लिखने लिखाने
से भी कुछ
नहीं होता है
जैसा वहाँ होता है
वैसा ही यहाँ आ
कर भी रह जाता है
‘उलूक’ ठीक है
चलाता चल
कौन देख रहा है
कोई अपनी नाव
रेत में रखे रखे ही
चप्पू चलाता है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

सोमवार, 16 जून 2014

किसी दिन बिना दवा दर्द को छुपाना भी जरूरी हो जाता है

नदी के बहते
पानी की तरह
बातों को लेने वाले
देखते जरूर हैं
पर बहने देते हैं
बातों को
बातों के सहारे
बातों की नाँव हो
या बातें किसी
तैरते हुऐ पत्ते
पर सवार हों
बातें आती हैं
और सामने से
गुजर जाती है
और वहीं पास में
खड़ा कोई उन
बातों में से बस
एक बात को
लेकर बवंडर
बना ले जाता है
कब होता है
कुछ होते होते
धुआँ धुआँ सा
धुआँ हो जाताहै
बस एक उसे
ही नजर आता है
बैचेनी एक होती है
पर चैन खोना
सबको नहीं आता है
उसी पर मौज
शुरु हो जाती है
किसी की और
कहीं पर किसी का
खून सूखना
शुरु हो जाता है
अब इसी को तो
दुनियाँ कहा जाता है
उँगलियाँ जब
मुड़कर जुड़ती हैं
मुट्ठी की मजबूती
का नमूना सामने
आ जाता है
पर सीधाई को
शहीद करने के बाद
ही इसे पाया जाता है
कौन इस बात
पर कभी जाता है
हर किसी के लिये
उसकी अपनी
प्रायिकताऐं
मजबूरी होती है
उसी के सहारे
वो अपना आशियाँना
बनाना चाहता है
कौन खम्बा बना
कौन फर्श
किस ने छत पे
निसार दिया खूँन
इस तरह से
कहाँ देखा जाता है
काम होना ही
बहुत जरूरी होता है
काम कभी कहीं
नहीं रुकता है
उसकी भी मजबूरी
कह लीजिये उसे
पूरा होना कम से
कम आता है
‘उलूक’ तुझे भी
कुछ ना कुछ
कूड़ा रोज लाकर
बिखेरना होता है यहाँ
बहुत जमा हो
जायेगा किसी दिन
फिकर कौन करता है
वहाँ जहाँ बुहारने वाला
कोई नहीं पाया जाता है ।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

धर्म की शिक्षा जरूरी है भाई नहीं तो लगेगा यहीं पर है मार खाई

चुनाव
की आहट

धर्म ने
सुन ली है

और

भटकना
शुरु हो गई हैं

कुछ
अतृप्त आत्माऐं

मुक्ति की चाह में

चुनाव
के बाद

अपनी
नाव को किनारे
लगाने के लिये

कक्षाऐं
चालू हो चुकी हैं

जिनमें

किसी भी
परीक्षा को
लाँघने का
कोई रोढ़ा नहीं है

वैसे भी

पढ़ने
मनन करने
के लिये
नहीं होता है धर्म

बस
कुछ विशेष
लोगों को

मिला होता है
अधिकार
सिखाने का

धर्म और
धार्मिक
मान्यताऐं भी

आदमी होना

सबसे बड़ा
अधर्म होता है

सीधे सीधे
नहीं
सिखाया जाता है

कोमल
मन में
बिठाया जाता है

एक
लोमड़ी की
चालाकी से
प्रेरणा लेते हुऐ

सीखने
वाले को
पता नहीं
होता है कभी भी

जिस
दीक्षा को देकर

उसे
सड़क पर

लोगों को
धर्म का
शीशा दिखाने
के लिये
भेजा जा रहा है

उस
शीशे में

भेजने
वाले को
अपना चेहरा
देखना भी

अभी
नहीं आ
पा रहा है

आने
वाले समय
के लिये

धार्मिक
गुरु लोग

जिन
मंदिर मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च
की कल्पना में

अपने
अपने मन में
लड्डू बम
बना रहे होते हैं

उनके
फूटने से

वो
नहीं मरने
वाले हैं
वो अच्छी
तरह से  जानते हैं

बस

प्रयोग में
लाये जा रहे
धनुषों को

ये पता
नहीं होता है

कि
समय की
लाश पर
बहुत खुशी
के साथ

यही लोग

कल
जब ठहाके
लगा रहे होंगे

धर्म
के कच्चे
पाठ की
रोटियाँ
लिये हुऐ

कुछ
कोमल मन

अपने अपने
भविष्य के
रास्तों में
पड़े हुऐ
काँटो को
हटाते हटाते

हताशा में
कुछ भी
नहीं निगलते
या उगलते

अपने को
पाकर बस
उदास से
हो जा रहे होंगे

और

उस समय
उनके ही

धार्मिक
ठेकेदार
गुरु लोग

गुलछर्रे
कहीं दूर
उड़ा रहे होंगे

अपने अपने
काम का
पारिश्रमिक

भुना रहे होंगे।

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

पानी नहीं है से क्या है अपनी नाव को तो अब चलने की आदत हो गई है

कोई नई बात नहीं कही गई है 
कोई गीत गजल कविता भी नहीं बनी है 

बहुत जगह एक ही चीज बने 
वो भी ठीक जैसा तो नहीं है 

इसलिये हमेशा कोशिश की गई है 
सारी अच्छी और सुन्दर बातें 
खुश्बू वाले फूलों के लिये 
कहने सुनने के लिये रख दी गई हैं 

अपने बातों के कट्टे में
सीमेंट रेते रोढ़ी की 
जैसी कहानियाँ
कुछ सँभाल कर रख दी गई हैं 

बहुत सारी
इतनी सारी जैसे आसमान के तारों की 
एक आकाशगंगा ही हो गई है 

खत्म नहीं होने वाली हैं 
एक के निकलते पता चल जाता है 
कहीं ना कहीं तीन चार और 
तैयार होने के लिये चली गई हैं 

रोज रोज दिखती है एक सी शक्लें अपने आस पास 
वाकई में बहुत बोरियत सी अब हो गई है 

बहुत खूबसूरत है ये आभासी दुनियाँ 
इससे तो अब मोहब्बत सी कुछ हो गई है 

बहुत से आदमियों के जमघट के बीच में 
अपनी ही पहचान जैसे कुछ कहीं खो गई है 

हर कोई बेचना चाहता है कुछ नया 
अपने कबाड़ की भी कहीं तो अब खपत 
लगता है हो ही गई है ।