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शनिवार, 20 मई 2017

खाली पन्ने और मीनोपोज

लोग
खुद के
बारे में
खुद को
बता रहे
हों कहीं

जोर जोर से
बोलकर
लिखकर
बड़े बड़े
वाक्यों में
बड़े से
श्याम पट पर
सफेद चौक
की बहुत लम्बी
लम्बी सीकों से

लोग
देख रहे हों
बड़े लोगों के
बड़े बड़े
लिखे हुऐ को
श्याम पट
की लम्बाई
चौड़ाई को
चौक की
सफेदी के
उजलेपन को भी

बड़ी बात
होती है
बड़ा
हो जाना
इतना बड़ा
हो जाना
समझ में
ना आना
समझ
में भी
आता है
आना
भी चाहिये
जरूरी है

कुछ लोग
लिखवा
रहे हों
अपना बड़ा
हो जाना
अपने ही
लोगों से
खुद के
बारे में
खुद के
बड़े बड़े
किये धरे
के बारे में
लोगों को
समझाने
के लिये
अपना
बड़ा बड़ा
किया धरा

शब्द वाक्य
लोगों के भी हों
और खुद के भी
समझ में आते हों
लोगों को भी
और खुद को भी

आइने
के सामने
खड़े होकर
खुद का बिम्ब
नजर आता हो
खुद को और
साथ में खड़े
लोगों को
एक जैसा
साफ सुथरा
करीने से
सजाई गयी
छवि जैसा
दिखना
भी चाहिये
ये भी जरूरी है

इन लोग
और
कुछ लोग
से इतर

सामने
से आता
एक आदमी
समझाता हो
किसी
आदमी को

जो वो
समझता है
उस आदमी
के बारे में

समझने वाले के
अन्दर चल रहा हो
पूरा चलचित्र
उसका अपना
उधड़ा हुआ हो
उसको खुद
पानी करता
हुआ हो
बहुत बड़ी
मजबूरी 
है

कुछ भी हो

तुझे क्या
करना है
‘उलूक’

दूर पेड़ पर
बैठ कर
रात भर
जुगाली कर
शब्दों को
निगल
निगल कर
दिन भर

सफेद पन्ने
खाली छोड़ना
भी मीनोपोज
की निशानी होता है

तेरा इसे समझना
सबसे ज्यादा
जरूरी 
है
बहुत जरूरी है ।

चित्र साभार: People Clipart

बुधवार, 8 मार्च 2017

गीता में कही गयी हैं बातें वही तो हो रही हैं नजर आ रहा है मत कहना ‘उलूक’ पगला रहा है


सीधी बोतल
उल्टी कर
खाली करना
फिर खाली
बोतल में
फूँक मार कर
कुछ भरना


रोज की
आदत हो
गयी है
देखो तो
खाली बोतलें
ही बोतलें
चारों ओर
हो गयी हैं

कुछ बोतलें
सीधी पड़ी
हुई हैं
कुछ उल्टी
सीधी हो
गयी हैं

बहुत कुछ
उल्टा सीधा
हुआ जा
रहा है
बहुत कुछ
सीधा उल्टा
किया जा
रहा है

पूछना
मना है
इस लिये
पूछा ही नहीं
जा रहा है

जो कुछ भी
हो रहा है
स्वत: हो
रहा है
होता चला
जा रहा है

जरूरत ही
नहीं है
किसी को
कुछ
पूछने की

कोई पूछने भी
नहीं आ रहा है

वो उसके लिये
लगा है उधर
गाने बजाने में

इसको इसके
लिये इधर
खुजलाने में
मजा आ रहा है

गधों की दौड़
हो गयी है
सुनाई दे रही है

खबर बहुत
दिनों से
हवा हवा
में है
और
होली भी
आ रही है

गधों में सबसे
अच्छा गधा भी
जल्दी ही
गधों के लिये
भेजा जा रहा है

‘उलूक’
तूने पेड़
पर ही
रहना है
रात गये ही
सुबह की
बात को
कहना है

तुझे
किस बात
का मजा
आ रहा है

खेलता रह
खाली
बोतलों से

गधे
का आना
फिर गधे
का जाना

कृष्ण जी
तक बता
गये हैं
गीता में

गधों के
बीच में
चल रही
उनकी
अपनी
बातें हैं

बोतलों में
फूँकने वाला
क्या फूँक
रहा है
जल्दी ही
होली
से पहले
सबके
सामने से
आ रहा है

किसलिये
छटपटा
रहा है ?

चित्र साभार: Dreamstime.com

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

बुधवार, 15 जुलाई 2015

चलो ऊपर वाले से पेट के बाहर चिपकी कुछ खाली जेबें भी अलग से माँगते हैं

कुछ भी नहीं
खाया जाता है
थोड़े से में पेट
ऊपर कहीं
गले गले तक
भर जाता है
महीने भर
का अनाज
थैलों में नहीं
बोरियों में
भरा आता है
खर्च थोड़ा
सा होता है
ज्यादा बचा
घर पर ही
रह जाता है
एक भरा
हुआ पेट
मगर भर ही
नहीं पाता है
एक नहीं बहुत
सारे भरे पेट
नजर आते हैं
आदतें मगर
नहीं छोड़ती
हैं पीछा
खाना खाने
के बाद भी
दोनो हाथों की
मुट्ठियों में भी
भर भर कर
उठाते हैं
बातों में यही
सब भरे
हुऐ पेट
पेट में भरे
रसों से
सरोबार हो
कर बातों
को गीला
और रसीला
बनाते हैं
नया सुनने
वाले होते हैं
हर साल ही
नये आते हैं
गोपाल के
भजनों को सुन
कल्पनाओं में
खो जाते हैं
सुंदर सपने
देखतें हैं
बात करने
वालों में
उनको कृष्ण
और राम
नजर आते हैं
पुराने मगर
सब जानते हैं
इन सब भरे पेटों
की बातों में भरे
रसीले जहर को
पहचानते हैं
ऊपर वाले से
पूछते भी हैं हमेशा
बनाते समय ऐसे
भरे पेटों के
पेटों के
अगल बगल
दो चार जेबें
बाहर से उनके
कारीगर लोग
अलग से क्यों
नहीं टांगते हैं ।

 चित्र साभार: theinsidepress.com

बुधवार, 24 सितंबर 2014

बहुत कुछ है तेरे पास सिखाने के लिये पुराना पड़ा हुआ कुछ नई बाते नये जमाने की सिखाना भी सीख


सीख क्यों नहीं लेता 
बहुत कुछ है सीखने के लिये सीखे सिखाये से इतर भी 
कुछ इधर उधर का भी सीख 

ज्यादा लिखी लिखाई पर
भरोसा करना ठीक नहीं होता 
जिसे सीख कर
ज्यादा से ज्यादा 
माँगना शुरु कर सकता है भीख 

भीख भी
सबके नसीब में नहीं होती मिलनी 
पहले कुछ इधर भी होना सीख 

इधर आकर सीखा जायेगा बहुत कुछ इधर का 
उसके बाद इधर से उधर होना भी कुछ सीख 

बेनामी आदमी हो लेना उपलब्धि नहीं मानी जाती 
किसी नामी आदमी का खास आदमी होना भी सीख 

लाल हरी नीली गेरुयी पट्टियाँ ही अब होती हैं पहचान 
कुछ ना कुछ होने की सतरंगी सोच से निकल 
किसी एक रंग में खुद को रंगने रंगाने की सीख 

रोज गिरता है अपनी नजरों से 
लुटेरों की सफलता की दावतें देख कर 
कभी सब कुछ अनदेखा कर
अपनी चोर नजर उठाना भी सीख 

जो सब सीख रहे हैं सिखा रहे हैं 
कभी कभी उन की शरण में जाना भी सीख 

अपना भला हो नहीं सकता तुझसे 
तेरे सीखे हुऐ से किसी और का भला 
उनकी सीख को सीख कर ही कर ले जाना सीख 

कितना लिखेगा
कब तक लिखेगा इस तरह से ‘उलूक’ 
कभी किसी दिन खाली सफेद पन्नों को
थोड़ी सी साँस लेने के लिये भी
छोड़ जाना भी सीख । 

चित्र साभार: http://www.clipartpal.com/

रविवार, 7 सितंबर 2014

लिखा हुआ पढ़ते पढ़ते नहीं लिखा पढ़ने से रह गया था

कुछ था
जरूर
उन सब
जगहों पर

जहाँ से
गुजरा
था मैं

एक नहीं
हजार बार
जमाने के
साथ साथ

और
कुछ नहीं
दिखा था
कभी भी

ना मुझे

ना ही
जमाने को

कुछ दिखा
हो किसी को

ऐसा
जैसा ही
कुछ लगा
भी नहीं था

अचानक
जैसे बहुत
सारी आँखे
उग आई थी
शरीर में

और
बहुत कुछ
दिखना शुरु
हो गया था

जैसे
कई बार
पढ़ी गई
किताब के

एक खाली
पड़े पन्ने को

कुछ नहीं
लिखे होने
के बावजूद

कोई पढ़ना
शुरु
हो गया था

आदमी
वही था

कई कई
बार पढ़ा
भी गया था

समझ में
हर बार
कुछ
आया था

और
जो आया था

उसमें
कभी कुछ
नया भी
नहीं था

फिर
अचानक

ऐसा
क्या कुछ
हो गया था

सफेद पन्ना
छूटा हुआ
एक पुरानी
किताब का

बहुत कुछ
कह गया था

एक
जमाने से

जमाना भी
लगा था
पढ़ने
पढ़ा‌ने में

लिखा
किताब का

और
एक खाली
सफेद पन्ना

किसी का
सफेद
साफ चेहरा
हो गया था

‘उलूक’
आँख
ठीक होने
से ही
खुश था

पता ही
नहीं चला
उसको

कि
सोच में
ही एक
मोतियाबिंद
हो गया था ।

चित्र साभार: http://www.presentermedia.com/

मंगलवार, 27 मई 2014

बस थोड़ी सी मुट्ठी भर स्पेस अपने लिये


बचने के लिये
इधर उधर रोज देख लेना
और कुछ कह देना कुछ पर
आसान है

अचानक सामने टपक पड़े
खुद पर उठे सवाल का
जवाब देना आसान नहीं है

जरूरी भी नहीं है प्रश्न कहीं हो 
उसका उत्तर कहीं ना कहीं होना ही हो

एक नहीं ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न
जिनका सामना नहीं किया जाता है

नहीं झेला जाता है
किनारे को कर दिया जाता है
कूड़ा कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है

कूड़ेदान के ढक्कन को फिर
कौन उठा कर उसमें झाँकना दुबारा चाहता है

जितनी जल्दी हो सके
कहीं किसी खाली जगह में फेंक देना ही
बेहतर विकल्प 
समझा जाता है

सड़ांध से बचने का एकमात्र तरीका
कहाँ फेंका जाये

निर्भर करता है
किस खाली जगह का उपयोग
ऐसे में 
कर लिया जाये

बस यही खाली जगह या स्पेस
ही होता है एक बहुत मुश्किल प्रश्न

खुद के लिये जानबूझ कर अनदेखा किया हुआ

पर हमेशा नहीं होता है
उधड़ ही जाती है जिंदगी रास्ते में कभी यूँ ही
और खड़ा हो जाता है यही प्रश्न बन कर

एक बहुत बड़ी मुश्किल बहुत बड़ी मुसीबत
कहीं कुछ खाली जगह अपने आप के लिये

सोच लेना शुरु किया नहीं कि
दिखना शुरु हो जाती हैं कंटीली झाड़ियाँ

कूढ़े के ढेरों पर लटके हुऐ बेतरतीब
कंकरीट के जंगल जैसे
मकानों की फोटो प्रतिलिपियों से भरी हुई जगहें
हर तरफ चारों ओर
मकानों से झाँकती हुई कई जोड़ी आँखे

नंगा करने पर तुली हुई
जैसे खोज रही हों सब कुछ
कुछ संतुष्टी कुछ तृप्ति पाने के लिये

पता नहीं पर शायद होती होगी
किसी के पास कुछ
उसकी अपनी खाली जगह
उसके ही लिये

बस बिना सवालों के
काँटो की तार बाड़ से घिरी बंधन रहित

जहाँ से बिना किसी बहस के
उठा सके कोई
अपने लिये अपने ही समय को
मुट्टी में
जी भर के देखने के लिये
अपना प्रतिबिम्ब

पर मन को भी नंगा कर
उसके 
आरपार देख कर मजा लेने वाले
लोगों से भरी इस दुनियाँ में
नहीं है 
सँभव होना
ऐसी कोई जगह जहाँ अतिक्रमण ना हो

यहाँ तक
जहाँ अपनी ही खाली जगह को
खुद ही घेर कर हमारी सोच
घुसी रहती है

दूसरों की खाली जगहों के पर्दे
उतार फेंकने के पूर जुगाड़ में
जोर शोर से ।

चित्र सभार: https://nl.pinterest.com/

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

हर खाली कुर्सी में बैठा नहीं जाता है

आँख में बहुत मोटा
चश्मा लगाता है
ज्यादा दूर तक
देख नहीं पाता है
लोगों से ही
सुनाई देता है
चाँद देखने के लिये
ही आता जाता है
वैसे किसी ने नहीं
बताया कभी आसमान
की तरफ ताकता हुआ
भी कहीं पाया जाता है
कोई क्यों परेशान
फिर हुआ जाता है
अपने आने जाने
की बात अपनी
घरवाली से कभी
नहीं छुपाता है
अपने अपने ढंग से
हर कोई
जीना चाहता है
कहाँ लिखा है
किसी किताब में
काम करने
की जगह पर
इबादत करने को
मना किया जाता है
छोटी छोटी बातों के
मजे लेना सीख
क्यों जान बूझ कर
मिर्ची लगा सू सू करने
की आदत बनाता है
क्या हुआ अगर कोई
अपनी कुर्सी लेकर ही
कहीं को चला जाता है
अपनी अपनी किस्मत है
जिस जगह बैठता है
वही हो जाता है
तुझे ना तो किसी
चाँद को देखना है
ना चाँद तेरे जैसे को
कभी देखना चाहता है
रात को बैठ लिया कर
घर की छत में
आसमान वाला चाँद
देखने के लिये कोई
कहीं टिकट
नहीं लगाता है
धूनी रमा लिया कर
कुर्सी में बैठना
सबके बस की
बात नहीं होती है
और फिर हर
किसी को कुर्सी पर
बैठने का तमीज
भी कहाँ आ पाता है ।

शनिवार, 22 जून 2013

कुछ नहीं कुछ बहुत कुछ


कुछ लोग 
बहुत थोडे़ शब्दों में 
बहुत कुछ 
कह ले जाते हैं 

उनके शब्द 
उनकी तरह सुन्दर होते हैं 

उनके बारे में 
कुछ
कहाँ 
बता जाते हैं ?

शब्द
मेरे 
पास भी नहीं होते हैं 
ना ही
मेरी 
सोच में ही आ पाते हैं 

किसे बताउँ 
क्या बताउँ 
कैसे कैसे लोग 
क्या क्या कर ले जाते हैं 

कुछ लोग
बस 
खाली बैठे बैठे 
शर्माते हैं 

सीख क्यों नहीं 
लेते
कुछ शब्द 
ऎसे
जो सब 
लोग कह ले जाते हैं 
सब लोग समझ जाते हैं 

सबके आस पास 
सब कुछ हो रहा होता है 
हर कोई किसीचीज पर
कुछ 
ना कुछ कह रहा होता है 

कुछ लोग
वो 
सब कुछ
क्यों 
नहीं देख ले जाते हैं 

जिस पर 
लिखने से 
लोग शोहरत पा ले जाते हैं 

समान समान में 
विलय हो जाता है 
सिद्धान्त पढ़ते पढ़ाते भी कुछ लोग
नहीं 
समझ पाते हैं 

कुछ लोग ही तो 
होते हैं
जो कुछ 
लोगों का कहे को ही
कहा है 
कहे जाते हैं 

लोग लोग होते हैं 
इधर होते हैं या उधर हो जाते है 
कुछ लोग ही जानते हैं
जाने वाले 
किधर किधर जाते हैं 

बहुत से शब्द 
बहुत से लोगों के पास हो जाने से 
कुछ भी नहीं कहीं होता है 

कुछ लोगों के 
कुछ शब्द ही 
कुछ कहा गया है की श्रेणी में आ पाते हैं 

मेरे तेरे और 
उसके जैसे लोग तो
आते हैं और 
चले जाते हैं 

कुछ लोगों के 
लिये ही होती हैं 
वही कुछ चीजें 
उन का लुफ्त कुछ लोग ही उठा पाते हैं 

कहीं से शुरु कर 
कहीं पर खतम कर के देख ले 

आज कल हो 
या परसों 
कुछ लोग ही दुनियाँ को चलाते हैं 

बहुत से लोग 
मर भी जायें 
कुछ लोगों के लिये
से
कुछ 
नहीं होता है 

शहीद
कुछ 
लोगों में से ही गिने जाते हैं 

कुछ बातें 
कुछ लोगों की 
कुछ लोग ही समझ पाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

भूख

भूख तब लगती है
जब पेट खाली होता है
सुना ही है बस कि
भूख बना सकती है
एक इंसान को हैवान
भूख से मरते भी हैं
कहीं कुछ लोग कभी
यहाँ तो बिना चश्मा
लगाये भी साफ साफ
दिखाई दे रहा है
गले गले तक
भरे हुवे पेट
कैसे तड़फ रहे हैं
निगल रहे हैं
कुछ भी कभी भी
यहाँ तक भूख
को भी निगल
लेते हैं ये ही लोग
बिना आवाज किये
उनकी भूख देखी
ही नहीं जाती है
और मर जाती है भूख।