सुबह से कुछ
याद जैसा
आ रहा है
नवम्बर
का महीना
चौदहवाँ दिन
धीरे धीरे
रोज की तरह
खिसकता
जा रहा है
याद करते
करते भी
जैसे कुछ भूला
जा रहा है
गूगल
का डूडल
एक सौ
इकतीसवीं
साल गिरह
कागज में छेद
करने वाले
उपकरण की
मना रहा है
सब कुछ
छूटता
चला गया
हो जैसे
बचपन अब
बच्चों में भी
जब नजर
नहीं आ
रहा है
अखबार
समाचार
टी वी
पत्रकार
कहीं भी
कोई जल्सा
मनाने की
खबर का
पुतला
जलाता हुआ
नजर नहीं
आ रहा है
‘उलूक’
की समझ में
बड़ी देर से
घुस रही है हवा
धुऐं कोहरे धूल
से तैयार की गयी
अँधेरा दिन में
करने का पूरा तंत्र
मंत्र जाप कर
साँस लेने का
सरकारी आदेश
ध्वनिमत से पास
करवाने का प्रपंच
करवा रहा है
इतना लम्बा
खींच कर
समझाने की
जरूरत वैसे
नहीं होनी चाहिये
सीधे साधे
शब्दों में
जिन्दा ताऊ को
मरे चाचा के
चौदह नवम्बर
के बहाने ताबूत
से जिन्दा निकल
आने का डर
सता रहा है
ट्रम्प का पत्ता
ताश के पत्ते के
डब्बे से बाहर
झाँक कर
जीभ निकाल कर
अपनी ही नाक को
छूने का करतब
दिखा रहा है ।
चित्र साभार: RF clipart
किसी दिन तो
सब सच्चा
सोचना छोड़
दिया कर
कभी किसी
एक दिन
कुछ अच्छा
भी सोच
लिया कर
रोज की बात
कुछ अलग
बात होती है
मान लेते हैं
छुट्टी के
दिन ही सही
एक दिन
का तो
पुण्य कर
लिया कर
बिना पढ़े
बस देखे देखे
रोज लिख देना
ठीक नहीं
कभी किसी दिन
थोड़ा सा
लिखने के लिये
कुछ पढ़ भी
लिया कर
सभी
लिख रहे हैं
सफेद पर
काले से काला
किसी दिन
कुछ अलग
करने के लिये
अलग सा
कुछ कर
लिया कर
लिखा पढ़ने में
आ जाये बहुत है
समझ में नहीं
आने का जुगाड़
भी साथ में
कर लिया कर
काले को
काले के लिये
छोड़ दिया कर
किसी दिन
सफेद को
सफेद पर ही
लिख लिया कर
‘उलूक’
बकवास
करने
के नियम
जब तक
बना कर
नहीं थोप
देता है
सरदार
सब कुछ
थोपने वाला
तब तक
ही सही
बिना सर पैर
की ही सही
कभी अच्छी भी
कुछ बकवास
कर लिया कर ।
चित्र साभार: BrianSense - WordPress.com
सौ में से
निनानवे
शरीफ
होते हैं
उनको
होना ही
होता है
होता वही है
जो वो चाहते हैं
बचा हुआ बस
एक ही होता है
जो नंगा होता है
उसे नंगा
होना ही
होता है
उसके
बारे में
निनानवे ने
सबको
बताया
होता है
समझाया
होता है
बस वो ही
होता है
जो उनका
जैसा नहीं
होता है
निनानवे
सब कुछ
सम्भाल
रहे होते हैं
सब कुछ
सारा कुछ
उन के
हिसाब से
हो रहा
होता है
शराफत
के साथ
नंगा
देख रहा
होता है
सब कुछ
कोशिश कर
रहा होता है
समझने की
मन्द बुद्धि
होना पाप
नहीं होता है
नहीं समझ
पाता है
होते हुऐ
सब कुछ को
जिसे सौ में
से निनानवे
कर रहे होते हैं
कुछ
कर पाना
नंगे के
बस में
नहीं हो
रहा होता है
नंगा हम्माम
में ही होता है
नहा भी
रहा होता है
निनानवे
को कोई
फर्क नहीं
पड़ रहा
होता है
अगर
एक कहानी
बना कर
उनकी अपने
साथ कहीं
कोई चिपका
रहा होता है
नंगे
‘उलूक’
ने सीखी
होती हैं
बहुत सारी
नंगई
लिखने
लिखाने
को
नंगई पर
एक भी
निनानवे
में से
कहीं भी
नहीं आ
रहा होता है
निनानवे का
‘राम’ भी
कुछ नहीं
कर सक
रहा होता है
उस
“बेवकूफ” का
जो जनता
को छोड़ कर
अपनी
बेवकूफी
के साथ
खुद को
नीरो
मान कर
समझ कर
रोम का
अपने
जलते घर में
बाँसुरी बजा
रहा होता है।
चित्र साभार: Wikipedia
कई
दिनों तक
एक रोज
लिखने वाला
अपनी कलम
और किताब को
रोज देखता है
रोज छूता है
बस लिखता
कुछ भी नहीं है
लिखने की
सोचने तक
नींद के आगोश
में चला जाता है
सो जाता है
कब्ज होना
शुरु होता है
होता चला
जाता है
बहुत कुछ
होता है
रोज की
जिन्दगी में
बाजार
नहीं होता है
आसपास
कहीं भी
दूर दूर तलक
बेचने की
सोच कर
साथी एक
कुछ भी
बेच देने वाला
मन बना कर
चला आता है
दुकान तैयार
कर देता हैं
मिनटों में
खरीददार
बुझाये
समझाये
हुऐ कुछ
दो चार
साथ में
पहले से ही
लेकर के
आता है
बिकने को
तैयार नहीं
होने से
कुछ नहीं
होता है
कब
घेरा गया
कब
बोली लगी
कब
बिक गया
जब तक
समझता है
बेच दिया
जाता है
सामान
बना दिया
जाने के बाद
दाम अपने आप
तय हो जाता है
शातिराना
अन्दाज के
नायाब तरीके
सीखना सिखाना
जिस किसी
को आता है
भीड़ का
हर शख्स
थोड़ी देर
के लिये
कुछ ना कुछ
सीखने के लिये
आना चाहता है
किताबें
कापियाँ
कक्षाओं के
श्यामपट के
आसपास रहने
दिखने वालों
के दिन कब
का लद गये
भरे हुऐ भरे में
थोड़ा सा ही सही
और भर देने की
कारीगरी सिखाना
फिर मिल बाँट कर
भर देना गले गले तक
खींच कर गले लगाना
जिसे आता है
आज
वही तैयार
करता है फन्दे
आत्म हत्या
करने का
ख्याल
रोज आता है
‘उलूक’
उल्लू का पट्ठा
समझता सब कुछ है
रोज मरता है मगर
रोज जिन्दा भी
हो जाता है ।
चित्र साभार: Clipart Library
ठीक बात
नहीं होती है
कह देना
अपनी बात
किसी से भी
कुछ बातें
कह देने की
नहीं होती हैं
छुपायी जाती हैं
बात के
निकलने
और
दूर तक
चले जाने
की बात पर
बहुत सी
बातें कही
और
सुनी जाती हैं
सुनाई जाती हैं
कुछ लोग
अपनी बातें
करना
छोड़ कर
बातों बातों
में ही
बहुत सारी
बात
कर लेते हैं
बातों बातों में
किसी की बातें
बाहर
निकलवाकर
उसी से
कर लेने
की निपुणता
यूँ ही हर
किसी को
नहीं आयी
होती है
एक
दो चार दिन के
खेल खेल में
सीख लेना
नहीं होता है
बातों को
लपेट लेना
सामने वालों की
उसकी
अलग से
कई साल
सालों साल
बातों बातों में
बातों के स्कूलों में
पढ़ाई लिखाई होती है
‘उलूक’
नतमस्तक
होता है
बातों के ऐसे
शहनशाहों के
चरणों में
ठंड रख कर
खुद हिमालयी
बर्फ की
हमेशा अपनी
बातों में जिसने
दूसरे की
दिल की
बातों की
नरम आग
सुलगा
सुलगा कर
पानी में
भी आग
लगाई
होती है ।
चित्र साभार: ClipartFest