एक भीड़ से
दूसरी भीड़
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़
भीड़ से भीड़ में
खिसकता चलता है
मतलब को जेब में
रुमाल की तरह
डाल कर जो
वो हर भीड़ में
जरूर दिखाई
दे जाता है
भीड़ कभी
मुद्दा नहीं
होती है
मुद्दा कभी
मतलबी
नहीं होता है
मतलबी
भीड़ भी
नहीं होती है
भीड़ बनाने वाला
भीड़ नचाने वाला
कहीं किसी भीड़ में
नजर नहीं आता है
जानता है
पहली
भीड़ के हाथ
दूसरी भीड़
में पहुँच कर
भीड़ के पाँव
हो जाते हैं
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़ में
पहुँचते ही पाँव
पेट होकर
गले के रास्ते
चलकर
भीड़ की
आवाज
हो जाते हैं
ये शाश्वत सत्य है
भीड़ की जातियाँ
बदल जाती हैंं
धर्म बदल जाता है
अपने मतलब के
हिसाब से समय
घड़ी की दीवार से
बाहर आ जाता है
आइंस्टाईन
का सापेक्षता
का सिद्धांत
निरपेक्ष भाव से
आसमान में
उड़ते हुऐ
चील कव्वे
गिनने के
काम का भी
नहीं रह जाता है
आती जाती
भीड़ से
निकलकर
एक मोड़ से
दूसरे मोड़ तक
पहुँचने से पहले
ही फिसलकर
एक नयी
भीड़ बनाकर
एक नया
झंडा उठाता है
बस वही एक
सत्यम शिवम सुंदरम
कहलाता है
समझदार
आँख मूँद
कर भीड़ के
सम्मोहन में
खुद फंसता है
दूसरों को
फ़ंसाता है
फिर खुद
भीड़ में से
निकलकर
भीड़ में
बदलकर
भीड़ भीड़
खेलना
सीख जाता है
बेवकूफ
‘उलूक’
इस भीड़ से
उस भीड़
जगह जगह
भीड़ें गिनकर
भीड़ की बातों को
निगल कर
उगल कर
जुगाली करने में
ही रह जाता है।
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खोला तो
रोज ही
जाता है
लिखना भी
शुरु किया
जाता है
कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक
खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है
नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है
हर कलम
गीत नहीं
लिखती है
बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है
किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर
सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है
लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी
लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है
सच लिखने की
हसरतों के बीच
कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का
अन्दाज ही
नहीं आता है
उलझता
चला जाता है
बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’
जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है
घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।
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समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर
समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है
नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की
नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है
कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये
कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में
खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन
ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है
कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है
कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से
बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में
सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस
अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा
मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर
लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा
रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर
कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें
होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब
कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को
किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की
नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये
रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये
सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में
मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही
आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही सही
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ
अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’
याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी
होता है कभी कभी ।
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काँव काँव
कर्कश होती है
कभी कह भी
दिया होता है
किसी ने तो
ऐसा भी तो
नहीं होता है
कि मुँडेर पर
आना ही
छोड़ दो
निर्मोही
मोह
होता ही है
भंग
होने के लिये
चल
लौट आ
और बैठ ले
सुबह सवेरे
पौ फटते ही
मेरे ही दरवाजे
के सामने के
पेड़ की किसी
एक डाल पर
कर लेना
जैसी मन
चाहे आवाज
एक नहीं कई
होती हैं बातें
ढल जाती हैं
कब आदतों में
पता तब चलता है
जब उड़ जाता है
कोई
तेरी तरह का
अचानक
अनजानी
दिशा को
नहीं लौटने की
कसम
रख कर जैसे
आसपास कहीं
सन्नाटा मन
मोहक होता
होगा बहुत
जैसा भ्रम
तेरे जैसे काले
बेसुरी मानी
जाने वाली
आवाज वाले के
मुँह मोड़ लेने के
बाद ही टूटता है
माया मोह
समझ में
आ जाना
बहुत बड़ी
बात है रे
तू समझ लिया
और उड़ लिया
‘उलूक’
बैठा है
अभी भी
इन्तजार में
अखबार के
समाचार के
रंग ढंग
बदलने के
मानकर
कि कुछ दिन
चुपचाप
आँख बन्द कर
बैठने के बाद
सूरज
सुबह का
नहाया धोया सा
चमकदार
दिखना
शुरु हो
जाता है ।
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