आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में
सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस
अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा
मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर
लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा
रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर
कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें
होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब
कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को
किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की
नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये
रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये
सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में
मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही
आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही सही
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ
अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’
याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी
होता है कभी कभी ।
चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में
सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस
अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा
मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर
लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा
रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर
कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें
होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब
कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को
किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की
नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये
रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये
सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में
मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही
आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही सही
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ
अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’
याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी
होता है कभी कभी ।
चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/