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सोमवार, 25 दिसंबर 2023

मतलब शे'र-ओ-सुख़न का बस यूँ ही कुछ भी नहीं है बरबाद हुए कारोबार की तरह

 



फिर एक और दिसम्बर
तैयार खडा है जाने के लिए इस बार हर बार की तरह
फिर घिसे पिटे पन्ने तुड़े मुड़े कई बेकार के
कूड़ेदान में पड़े हैं बीमार की तरह

किसे उठायें किसे पेश करें ज़रा बताइये तो हजूर
एक खरीददार की तरह
किसे आता है कह देना सटीक और बेबाक दिल खोल कर
दिलदार की तरह

उठती हैं लहरें
समुन्दर की सबके अन्दर
नदियाँ भी बहती हैं सरे बाजार की तरह
कोई समेट लेता है  रेत के टीले भी
कोई फैला देता है खबर एक अखबार की तरह

इतना आसान नहीं है हो लेना एक शायर सरे आम
किसी लबे बीमार की तरह
ईलाज है हर लाईलाज का
कोशिश जरूरी है दिल से एक पागल तीमारदार की तरह

फिर लौट के आना है दिसंबर को
गया है अभी अभी इमरोज एक जाँ-निसार की तरह
‘उलूक’ फितरत से किसे मतलब है
कौन समेट रहा है यहां कुछ एक जमादार की तरह


चित्र साभार: https://pixabay.com/photos/cleaning-sweeper-housework-2650469/


गुरुवार, 13 मई 2021

कुछ शेर हैं दूर से शायर दिख रहे हैं कुछ भीगे बिल्ले बेचारे बिल्लियाँ लिख रहे हैं

 


कुछ
प्रायश्चित कर रहे हैं

कुछ
सच में
सच लिख रहे हैं

कुछ
बकवास के पन्ने
कई दिन हो गये
कहीं नहीं दिख रहे हैं

कुछ 
नहीं लिखा
कुछ
नहीं लिखा जा रहा है

कुछ पन्ने
ठण्डी धूप में सिक रहे हैं

कुछ ने लिखा है
कुछ कुछ

कुछ
लिख दिए सब कुछ
सब्जी मण्डी में दिख रहे हैं

कुछ
कुछ से बहुत कुछ तक
पहुँच गये हैं

कुछ
कुछ में ही
कुछ टिक रहे हैं

कुछ
भर रहे हैं कुछ
कुछ
भर लिये हैं बहुत कुछ

कुछ
रास्ते में हैं लबालब
कुछ
कुछ रिस रहे हैं

कुछ
कुछ लिखने के लिये
दिख रहे हैं
कुछ
कुछ दिखने के लिये
लिख रहे हैं

कुछ
चल दिये हैं
कुछ लिखते लिखते
कुछ
रास्ते में हैं
 बस जूते घिस रहे हैं

कुछ
मुखौटे कुछ
चेहरों से उतर रहे हैं
कुछ
मुखौटे
शहर दर शहर बिक रहे हैं

कुछ बाजार
कुछ उजड़ रहे हैं

कुछ बाजार 
श्मशान में
सजते हुऐ कुछ दिख रहे हैं

कुछ
डरों से
कुछ निजात मिले

धोबी के कुछ गधे
कुछ
कोशिश कर रहे हैं

‘उलूक’
कुछ लगाम
खींच कलम की
कुछ
लिख कर कभी

सोच के घोड़े मर रहे हैं

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 28 अगस्त 2019

दिखाता नहीं है शक्ल के शीशे में कुछ मगर आईना आँखों का चमक रहा होता है



जो
लिखना
होता है

उसी को
छोड़ कर

कुछ कुछ
लिख रहा होता है 

नहीं
लिखा सारा

लिखे
लिखाये
के पीछे खड़ा
छुपा
दिख रहा होता है 

ना
सामान होता है
ना
दुकान होती है
मगर

थोड़ा रोज
बिक रहा होता है 

आदत
से मजबूर
बिकने की
बाजार में
बिना टाँगें भी
टिक रहा होता है 

नसीब
होता है
उस
पढ़ाने वाले का

अपने
पढ़ने वालों से
पिट रहा होता है 

उपद्रव मूल्य
होता है
दोनों का
जहाँ

उपद्रव
खुद ही
अपने से
निपट रहा होता है 

परम्परायें नयी
मूल्य नये
परिभाषायें नयी

नयी गीता
नयी रामायण में
सब कुछ नया
सिमट रहा होता है 

नये कृष्ण
नये राम
नये गाँधी
नये बलराम

सब
इक्ट्ठा किये
जा रहे होते हैं

एक
जगह पर
ला ला कर
फिर भी 

बेशरम
‘उलूक’

हमाम के
अन्दर
के
सनीमा में भी

कपड़ों
की
तस्वीरों
से

पता नहीं
किसलिये

चिपट
रहा होता है ?

चित्र साभार: 



मंगलवार, 20 मार्च 2018

जरूरी है सबूत होने ना होने का रद्दी निकाल कबाड़ निकाल सुनना अच्छा लगता है दिनों के बाद

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में

सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस

अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा

मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर

लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा

रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर

कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें

होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब

कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को

किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की

नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये

रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये

सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में

मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही

आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही  सही

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ

अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’

याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी 
होता है कभी कभी ।

चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

बाजार गिरा है अपने घर पर रहो उसे संभाल दो

बहुत कुछ गिरता है
पहले भी गिरता था

गिरता चला आया है
आज भी गिर रहा है 

कोई नई चीज तो
नहीं गिरी है
हल्ला किस बात का


अब जिम्मेदारी होती है
इसका मतलब
ये नहीं होता है
सब चीज की जिम्मेदारी
एक के सर पर डाल दो
अंडे की तरह छिलके
सहित कभी भी उबाल दो

घर की जिम्मेदारी
कुछ अलग होती है

स्कूल कालेज हस्पताल
सड़क हवा पानी बिजली
दीवाने और दीवानी
फिलम की कहानी

गिनाने पर आ जाये कोई
तो गिनती करने की
जिम्मेदारी भी होती है

पिछले साठ सालों में
उसने और उसके लोगों ने 
कितनी बार गिराई
जान बूझ कर गिराई
तब तो कोई नहीं चिल्लाया

छोटी छोटी बनाता था
रोज गिराता था
आवाज भी नहीं आती थी
बात भी रह जाती थी

अब इसको क्या पता था
गिर जायेगी
बड़ी बड़ी खूब लम्बी चौड़ी
अगर बना दी जायेगी

अब गिर गई तो गिर गई
बाजार ही तो है
कल फिर खड़ी हो जायेगी

अभी गिरी है
चीन या अमेरिका के
सिर पर डाल दो
खड़ी हो जायेगी

तो फिर आ कर
खड़े हो जाना
बाजार के बीचों बीच

अभी पतली गली से
खबर को पतला कर
सुईं में डालने वाले
धागे की तरह
इधर से उधर निकाल दो 


उलूक को ना बाजार
समझ में आता है
ना उसका गिरना गिराना

रोज की आदत है उसकी
बस चीखना चिल्लाना

हो सके तो उसकी कुण्डली
कहीं से निकलवा कर
उसके जैसे सारे उल्लुओं को

इसी बात पर साधने का
सरकारी कोई आदेश
कहीं से निकाल दो ।

चित्र साभार:
www.clipartpanda.com


शनिवार, 8 अगस्त 2015

हर कोई मरता है एक दिन मातम हो ये जरूरी नहीं होता है

हर बाजार में
हर चीज बिके
ये जरूरी भी
नहीं होता है
रोज बेचता है कुछ
रोज खरीदता है कुछ
उसके बाद भी कैसे
किसी को अंदाजा
नहीं होता है
किसी की मौत
कहाँ बिकेगी
कौन कब और
कहाँ पैदा होता है
कहीं सुंदर सी
आँखों की गहराई
ही बिकती है
कहीं खाली आवाज
गुंजाता हुआ
खंडहर हो चुके
एक कुऐं में भी
प्राइस टैग बहुत
उँचे दामों का
लगा होता है
कहीं बहुत भीड़
नजर आती है
और सामने से
बहुत कुछ उधड़ा
हुआ सा होता
ये जरूरी नहीं है
जिंदगी का फलसफा
हर किसी के लिये
हमेशा एक सा होता है
किसी को खून देखकर
गश आना शुरु होता है
किस को अगर नशा
होता है तो बस गिरे हुऐ
खून के लाल रंग को
देखने से ही होता है
बहुत मरते हैं रोज
कहीं ना कहीं दुनियाँ
के किसी कोने में
हर किसी के मरने
का मातम जरूरी नहीं है
हर किसी के यहाँ होता है ।

चित्र साभार: www.examiner.com

रविवार, 31 अगस्त 2014

बन रही हैं दुकाने अभी जल्दी ही बाजार सजेगा

सपने देखने
में भी सुना है
जल्दी ही एक
कर लगेगा

सपने बेचने
खरीदने का
उद्योग

इसका मतलब
कुछ ऐसा लगता है
खूब ही फलेगा
और फूलेगा

लम्बी दूरी की
मिसाइल की
तरह बहुत दूर
तक मार करेगा

आज का देखा
एक ही सपना
कई सालों तक
जिंदा भी रहेगा

कुछ ही
समय पहले
किसने सोचा था
ऐसा भी
इतनी जल्दी ही
ये होने लगेगा

कितनी
बेवकूफी
कर रहे थे
इससे पहले
के सपने
दिखाने वाले लोग

अब पछता
रहे होंगे
सोच सोच के

टिकाऊ सपने
बना के दिखाने
वाले का धंधा

इतनी जोर शोर से
थोड़े से समय में ही
चल निकलेगा

सपने आते ही
आँख बंद
करने लगा था
‘उलूक’ भी
कुछ दिनो से

लगता है
ये सब
सुन कर अब
सोने के बाद
अपनी आँखे
आधी या पूरी
खुली रखेगा ।

चित्र: गूगल से साभार ।

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

आँख में ही दिखता है पर बाजार में भी बिकता है अब दर्द

आँख में झाँक कर
दिल का दर्द
देख कर आ गया
मुझे पता है तू
अंदर भी बहुत सी
जगहों पर जा कर
बहुत कुछ देख सुन
कर वापस आ गया
कितना तुझे दिखा
कितना तूने समझा
मुझे पता नहीं चला
क्योंकि आने के बाद
तुझसे कुछ भी कहीं भी
ऐसा कुछ नहीं कहा गया
जिससे पता चलता
किसी को कि
तू गया तो
इतने अंदर तक
कैसे चला गया
और बिना डूबे ही
सही सलामत पूरा
वापस आ गया
जमाने के साथ
नहीं चलेगा तो
बहुत पछतायेगा
किसी दिन अंदर गया
वाकई में डूब जायेगा
वैसे किसी की
आँखों तक
नहीं जाना है
जैसी बात
किसी किताब
ने बताई नहीं है
कुऐं के मुडेर से
रस्सी से पानी
निकाल लेने में
कोई बुराई नहीं है
बाल्टी लेकर कुऐं
के अंदर भी जाते थे
किसी जमाने के लोग
पर अब कहीं भी
उस तरह की साफ
सफाई और
सच्चाई नहीं है
आ जाया कर
आने के लिये
किसी ने नहीं रोका है
पर दलदल में उतरने में
तेरी भी भलाई नहीं है
जो दिखता है
वो होता नहीं
जो होता नहीं
उसी को बार बार
दिखाने की रस्म
लगता है अभी तक
तुझे किसी ने भी
समझाई नहीं है
कितने जमाने
गुजर गये और
तुझे अभी तक
जरा सी भी
अक्ल आई
नहीं है ।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

विनती

खाली घूमने
आते हैं
ना आयें
कहीं और
चले जायें
टिप्पणी का
बाजार ना
ही बनायें
लिखा हुआ
पढ़े पूरा
समझ में
नहीं आये
तो लिखें
नहीं समझ पाये
हिम्मत करें
कहें कूड़ा है
जो लिखा है 

खुद कूड़ा
ना फैलायें
ना ही कोई
फैलानें पाये
इतना साहस
पैदा कर
सकते हैं
तो यहाँ आयें
जरूर आयें।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

मुआ आईना कुछ नहीं कर पा रहा था

हाथ में
आईना
उठाये हुऐ
बाजार
की तरफ
निकलते हुऐ
मैंने जब
उसे देखा
तो बस
यूं ही
पूछ बैठा

भाई
क्या बात है
कहाँ को
जा रहे हो

क्या आईने को
फ्रेम पहनाना
चाह रहे हो

थोड़ा सा
झेंपते हुऐ
उसने आईने
को पीठ की
तरफ पहुँचाया

आगे आकर
कुछ
फुसफुसाते
हुऐ ये बताया

अब क्या
करूं जनाब
समझ में नहीं
आ रहा था

मैं तो रोज
सुबह सुबह
उठ कर
साबुन से मुंह
धोता ही
जा रहा था

बीच बीच में
बाजार से
फेशियल भी
कभी कभी
करवा रहा था

आईने
को भी हमेशा
कोलिन से
चमका रहा था

आईने
की बेशर्मी
तो देखिये जरा

जैसा दिखता
था मैं सालों
साल पहले
आज भी मुझे
वैसा ही दिखाये
जा रहा था

हीरो बनने
की तमन्ना
कभी
रही नहीं
पर मैं तो
हीरो के
अर्दली का
रोल भी
नहीं पा
पा रहा था

और
जिसने
जिंदगी में
आईना नहीं
देखा कभी

साहब उस
मोहतरमा की
फिलम
बनाने के लिये
पैसे लगाने
को तैयार
नजर आ
रहा था

इसीलिये
आज मैं
इस बेकार
आईने को
बेच कर
एक नया
आईना
खरीदने
को बाजार
तक जा
रहा था ।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

भाव का चढ़ना और उतरना


भावों
का उठना 
भावों
का गिरना 

सोच में हों 
या बाजार में 
उनका बिकना 

समय
के हिसाब से
जगह
 के हिसाब से
मौके
 के हिसाब से 

हर
भाव का भाव 
एक
भाव नहीं होना

निर्भर
करता है 

किसका 
कौन सा भाव 
किसके लिये 
क्यों कब
और 
कहाँ जा 
कर उठेगा 

मुफ्त
में साझा 
कर लिया जायेगा 

या फिर
 खडे़ खडे़ ही 
खडे़ भाव के साथ 
बेच दिया जायेगा

भावों के 
बाजार के 
उतार चढ़ाव भी 
कहाँ समझ में 
आ पाते हैं 

शेयर मार्केट
जैसे 
पल में चढ़ते हैं 
पल में उतर जाते हैं 

 कब
किसका भाव 
किसके लिये
कुछ 
मुलायम हो जायेगा 

कब कौन
अपना भाव 
अचानक बढ़ा कर 
अपने बाजार मूल्य 
का ध्यान दिलायेगा 

कवि का भाव 
कविता का भाव 
किताब में लिखी हो 
तो एक भाव 
ब्लाग में लिखी हो 
तो अलग भाव 

कवि
ने लिखी हो 
तो
कुछ मीठा भाव 

कवियत्री
अगर हो 
तो
फिर तीखा भाव 

भावों
की दुनियाँ में 
कोई मित्र नहीं होता

शत्रु
का भाव हमेशा 
ही रहता है बहुत ऊँचा



आध्यात्मिक
भाव 
से होती है पूजा 

भावातीत ध्यान 
भी
होता है कुछ

पता नहीं चलता


चलते चलते
योगी
कब जेल के अंदर
ही
जा पहुँचा 



पता नहीं
क्या ऎसा
कुछ भाव उठ बैठा

सभी
के
भावों पर 
भावावेश में

भाव 
पर ही कुछ
लिख ले जाऊँ का 
एक
भाव जगा बैठा 



दो
तिहाई जिंदगी 
गुजरने के बाद 
एक बात इसी भाव 
के
कारण आज 
पता नहीं कैसे 
पता लगा बैठा



कुछ भी
यहां
कर 
लिया जाता है 

आदमजात
भाव 
का कोई कुछ 
नहीं कर पाता है 



उदाहरण 
दिया जाता है 

खून
जब लाल 
होता है सबका 

फिर
आदमी बस 
आदमी ही क्यों 
नहीं होता है 

सब
इसी भाव पर 
उलझे रहे पता नहीं 
कितने बरसों तक

जबकी
खून का 
लाल होना ही 
साफ बता देता है
भाव का भाव हर 
आदमी के भाव में 
हमेशा से ही होता है 

हर
आदमी बिकने 
को
तैयार

अपने 
भाव पर जरूर होता है 

कभी
इधर वाला 
उधर वाले को 
खरीद देता है 

कभी
उधर वाला 
इधर वाले को 
बेच देता है 

कोई
किसी से 
अलग कहाँ होता है 

ऎसा
एक भाव 
सारी प्रकृति में 
कहीं भी और 
नहीं होता है 

आदमी
का भाव 
आदमी के लिये 
हमेशा एक होता है 
भाव ही धर्म होता है 
भाव ही जाति होता है 

कहने को
कोई 
कुछ और कहते रहे 

यहाँ
सब कुछ 
या तो आलू होता है 
या फिर प्याज होता है 

दिल
के अंदर 
होने से क्या होता है 
जब हर भाव का 
एक भाव होता है ।

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

सपना कर अपना पूरा कम्पनी बना

अपने
सपनों को
हकीकत
में नहीं
अगर
बदल पाओ

दिमाग
है ना
उसे 
काम
में लाओ

अपने
सपनों के
शेयर बनाओ

कुछ
अपने जैसे
सपने देखने
वालों के
सपनों के
साथ मिलाओ

कम्पनी
एक खड़ी
कर बाजार
में ले आओ

कम्पनी
के सपनों
की ये बात
किसी को
भूल कर भी
मत बताओ

ऎसा
मुद्दा एक
इसके
बाद उठाओ

जिसको
लेकर लोगों
के सपनों को
उकसा पाओ

पार्टी शार्टी
जात पात
भेद भाव
ऊँच नीच
की सोच पर
कुछ दिन
के लिये
विराम लगाओ

मनमोहन
के हो तो
आडवानी जी
वाले के साथ
कुछ दिन बिताओ

माया दीदी
से प्रेम
रखने वाले
मुलायम वाले
की साईकिल
पर बैठे
दिख जाओ

धार्मिक
आस्था भी
कुछ दिन
के लिये
भूल जाओ

एक
दूसरे में
हिल मिल
जाओ

देखने
वाले लोग
पागल हो जायें

कुछ कुछ
ऎसा माहौल
दो चार ही महीनो
के लिये बनाओ

कुछ दिन
मीटिंग सीटिंग
करते हुऎ
नजर आओ

पोस्टर
वोस्टर थोडे़
शहर में
वाओ

अखबार
में कुछ
समाचार
छपवाओ

इन सब
के बीच
काम हो गया
पता चलते ही
गोल हो जाओ

नजर
मत आओ
कम्पनी की टोपी
किसी दूसरे के
सर पर रख जाओ

सन्यासी
हो गये हैं
वो तो कब के
जैसी 
खबर
तुरंत फैलाओ 


जाओ
अब यहाँ
क्या बचा है
किसी और के
सपनो में अपना
सिर मत खपाओ ।

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

बाबा

पत्रकार मित्र
कई दिन से
पाल रहे थे
अपने मन में
एक विचार
भारत में
फलते फूलते
बाबा बाजार
को देख कर
उत्साहित
हो रहे थे
दिन में एक
नहीं कई बार
किसी एक दिन
दुकान पर बैठे
अखबारी मित्र
से कर रहे थे
मगन हो कर
इसी विषय पर
कुछ विचार

भूला भटका
पहुँच बैठा 

मैं भी उधर
पूछते पूछते
कटहल का
मीठा अचार
पहुंचते ही मेरे
मित्र के मित्र ने
मेरा किया
ऊपर से नीचे
तक मुआयना
और
पेश किया
फिर
तुरत फुरत
अपना विचार
ये कब हो
रहे हैं रिटायर
इनसे भी तो
काम चलाया
जा सकता है
एक सटीक
और मस्त बाबा
इनको भी
तो बनाया
जा सकता है

बस ये जबान
नहीं खोलेंगे
बाकी जनता
को तो हम
खुद ही धो लेंगे
मित्र ने
दिया जवाब
बहुत ही
लाजवाब
रिटायर होने
की प्रक्रिया
इन लोगों के
यहाँ धीरे धीरे
बंद ही हो
जाने वाली है
अभी ये पैंसठ
पर अढ़े हुवे हैं
उसके बार मरने
मरने तक की
जाने वाली है

अभी सरकार
से बोल रहे हैं
नहीं होंगे रिटायर
उसके बाद
भगवान की भी
बारी आने वाली है
भगवान से भी
ये कहने वाले हैं
तू हमे नहीं
उठा सकता
इस धरती से अभी
हम ऊपर नहीं
आने वाले हैं
वैसे भी बाबा
के कारोबार
और
इनकी दुकान
में मिलता है
एक तरह का
ही सामान
ये पढ़ाने लिखाने
के धंधे से
अनपढों को पैदा
करते जा रहे हैं
उधर इनकी
उगाई फसल से
बाबा लोग अपनी
फैक्ट्री चला रहे हैंं 
मेरी समझ में
भी कुछ कुछ
आने लगा था
विचार मित्र
का धीरे धीरे
पैठ मन में
बनाने लगा था

क्या नुकसान है
अगर मैं बाबा
भी बन जाता हूँ
कालेज में
वैसे भी
कक्षा में
जा कर भी
कहाँ कुछ
पढ़ा पाता हूँ
हाँ
अखबार वालोंं
बुला बुला कर
फोटो जरूर
छपवाता हूँ
बाबा बन जाउंगा
तो सारे काम
अपने आप ही
होते चले जायेंगे
मित्र लोग मेरे
मेरे लिये भीड़
को जुटवायेंगे
पत्रकार हैं तो
फोटो के लिये
भी किसी को
बुलाना
नहीं पड़ेगा
मौन रहना ही है
इशारे से 

ही काम
चलाना पड़ेगा

चल पड़ी
तो विदेश
जाने का
मौका भी
बिना कुछ
करे कराये
चुटकियों में
हासिल
हो जायेगा
वीसा पास्पोर्ट
कोई बेवकूफ
बना बनाया
लाकर बिना
पैसे का
हाथ में
दे जायेगा

ढोंगी बाबा
'उलूक'
तुम भी यहीं
हम भी यहीं
देख भी लेना
हाँका लगाने
वाला मदारी
प्रिय जमूरों
की खातिर
बाबा उद्योग
का अध्यादेश
आज नहीं तो
कल किसी दिन
ले कर आयेगा
और
पक्का आयेगा।


चित्र साभार: www.jagran.com

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

बात

सुबह से
शुरू होती
है बात

रात सोने
तक चलती
है बात

घर से
निकलते
बाजार
में चलते
आफिस
पहुंचने
तक होती
है बात

और
यहां हैं
भी तो
बात
ही बात

सबकी
अपनी बात
एक
अनोखी बात

मेरी तू
सुन बात
तेरी मैं
सुनुंगा बात

मेरे पड़ौस
में भी
आज हुवी
एक बात

बाजार में
भी सुनी
मैंने एक
रसीली बात

कालेज में
भी थी
कुछ
चटपटी बात

हाय ये
कैसी
अनोखी
अजीब सी
है बात

इन सब
बात में
एक भी
ऎसी
नहीं बात

मैं कैसे
किस
मुंह से
बताउं वो
सब बात

यहां कोई
ऎसी वैसी
नहीं करता
कभी बात

सब बनाते
हैं अपनी
अपनी
एक बात

लिखते चले
जाते हैं
आसानी से
वो बात

कोई नहीं
बताना
चाहता
सही
सही बात

ये भी क्या
हुवी बात

कह डाली
एक बात
उस बात
पर भी
सिब्बल की
करो बात
मना कर
रहा है वो

क्यों कर
रहे हो बात।