लिखना
पड़ जाता है
कभी मजबूरी में
इस डर से
कि कल शायद
देर हो जाये
भूला जाये
बात निकल कर
किसी किनारे
से सोच के
फिसल जाये
जरूरी
हो जाता है
लिखना नौटंकी को
इससे पहले
कि परदा गिर जाये
ताली पीटती हुई
जमा की गयी भीड़
जेब में हाथ डाले
अपने अपने घर
को निकल जाये
कितना
शातिर होता है
एक शातिर
शातिराना
अन्दाज ही
जिसका सारे
जमाने के लिये
शराफत का
एक पैमाना हो जाये
चल ‘उलूक’
छोड़ दे लिखना
देख कर अपने
आस पास की
नौटंकियों को
अपने घर की
सबसे
अच्छा होता है
सब कुछ पर
आँख कान
नाक बंद कर
ऊपर कहीं दूर
अंतरिक्ष में बैठ कर
वहीं से धरती के
गोल और नीले
होने के सपने को
धरती वालों को
जोर जोर से
आवाज लगा लगा
कर बेचा जाये।
चित्र साभार: www.kisspng.com
बहाने
मत बना
सही बात
साफ साफ बता
कलम
बीमार है
कागज का
पेट आज
बहुत खराब है
जैसा जुमला
अब रहने भी दे
किसी पुराने
पीतल या ताँबे के
गमले में दे सजा
कुछ भी
लिख
देने वाले
के साथ
ऐसा ही
है होता
कितने
साल हो गये
लिखते बकते
अब तो समझ ले
अभी भी
समय है
एक बार
फिर से
समझाया
जा रहा है
सुधर जा
अपने
पन्ने पर कर
जो करना है
जो देखना है
जो कहना है
किसी ने
नहीं है रोका
इधर उधर
इसके उसके
लिखे लिखाये को
देखने पढ़ने
के लिये तो
भूल कर
भी मत जा
कपड़े उतार
सड़क पर
लेट जा
अखबार के
चौथे पन्ने
यानी
बस कस्बे
की खबर
हो जा
छ्प जा
तर जा
बिना कोई
गुल छिपाये
गुल खिलाये
घर के अन्दर
मुख्य पृष्ठ में
छपने का
भूल जा
सोचना
सच में
होता है
बहुत ही बुरा
किसलिये
खाये जाता है
अपना ही दिमाग
इसमें कुछ
दिमाग लगा
लोग लिख रहे हैं
लिखते रहेंगे
दीवाने गालिब
की सोच कर
दीवाने होते रहेंगे
काहे
पागल लोगों के
लिखे लिखाये
के पीछू जाता है
अपने
पागलपन की
खुद कोई
पगलाई हुई सी
एक पागल
मोहर बना
बुराई
नहीं है
सच में
सलीकेदार
समझे बुझाये
पागलों की
भीड़ में
सच्चा एक
पागल हो जा
‘उलूक’
दुनियाँ को
समझने के लिये
किताबें मत पढ़
दुनियाँ
पागल बनाती है
समझ ले पहले से
पागल हो जा
फावड़ा उठा
अपनी
ही कब्र खोद
कब्र का पेटेंट
2019 के चुनावों
के होने से पहले
तुरन्त करा ।
चित्र साभार: www.shutterstock.com
जिन्दगी
शुरु होती है
और
गिनतियाँ
शुरु हो जाती है
शून्य कहीं भी
किसी को नहीं
सिखाया जाता है
एक से शुरु
की जाती हैं
गिनतियाँ
सारा सब कुछ
पैदा होते ही
एक
हिसाब किताब
हो जाता है
बताया ही
नहीं जाता है
समझाया भी
नहीं जाता है
फिर भी
गिनतियाँ
खुद उसी तरफ
उसी रास्ते पर
अँगुली पकड़ कर
खींच ले जाती हैं
जिस तरह
हिसाब किताब
चलता चला जाता है
हर किसी को
आता है गिनना
मौका मिलते ही
गिनना शुरु
हो जाता है
सामने वाले के
हिसाब किताब को
अँगुलियों में
कर ले जाता है
कोई पूछ बैठे
उससे उसके
हिसाब किताब
के बारे में
गिनतियाँ करना
भूल बैठा है
किसी जमाने से
बताने में
जरा सा भी
नहीं शर्माता है
बहुत
आसान होता है
गिनना अपने
सामने वाले
की उम्र को
उसके
चेहरे पर
हर चेहरा
कुछ नहीं
कहने के
बावजूद
बहुत कुछ
बताता है
आसान होता है
गिनना सामने
खड़े पेड़
की उम्र भी
अलग बात है
यहाँ गोल गहरी
पड़ी रेखाओं से
समय का हिसाब
लगाया जाता है
लाखों गिनता है
करोड़ों गिनता है
अरब खरब तक
पहुँचने का
जुगाड़ लगाता है
सौ तक पहुँचने वाले
एक दो होते हैं
सोच में आने से
पहले ही गजल
गुनगुनाना चाहता है
आदत से मजबूर
लेकिन पाँच सौ
हजार दो हजार
दिखते ही
बत्तीस दाँत
एक साथ दिखाता है
‘उलूक’
उल्टी गिनतियाँ
चलती रहती
हैं साथ साथ
पता
कहाँ चलता है
राकेट
कब कहाँ
और क्यों
छूट जाता है ।
चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com
एक भीड़ से
दूसरी भीड़
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़
भीड़ से भीड़ में
खिसकता चलता है
मतलब को जेब में
रुमाल की तरह
डाल कर जो
वो हर भीड़ में
जरूर दिखाई
दे जाता है
भीड़ कभी
मुद्दा नहीं
होती है
मुद्दा कभी
मतलबी
नहीं होता है
मतलबी
भीड़ भी
नहीं होती है
भीड़ बनाने वाला
भीड़ नचाने वाला
कहीं किसी भीड़ में
नजर नहीं आता है
जानता है
पहली
भीड़ के हाथ
दूसरी भीड़
में पहुँच कर
भीड़ के पाँव
हो जाते हैं
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़ में
पहुँचते ही पाँव
पेट होकर
गले के रास्ते
चलकर
भीड़ की
आवाज
हो जाते हैं
ये शाश्वत सत्य है
भीड़ की जातियाँ
बदल जाती हैंं
धर्म बदल जाता है
अपने मतलब के
हिसाब से समय
घड़ी की दीवार से
बाहर आ जाता है
आइंस्टाईन
का सापेक्षता
का सिद्धांत
निरपेक्ष भाव से
आसमान में
उड़ते हुऐ
चील कव्वे
गिनने के
काम का भी
नहीं रह जाता है
आती जाती
भीड़ से
निकलकर
एक मोड़ से
दूसरे मोड़ तक
पहुँचने से पहले
ही फिसलकर
एक नयी
भीड़ बनाकर
एक नया
झंडा उठाता है
बस वही एक
सत्यम शिवम सुंदरम
कहलाता है
समझदार
आँख मूँद
कर भीड़ के
सम्मोहन में
खुद फंसता है
दूसरों को
फ़ंसाता है
फिर खुद
भीड़ में से
निकलकर
भीड़ में
बदलकर
भीड़ भीड़
खेलना
सीख जाता है
बेवकूफ
‘उलूक’
इस भीड़ से
उस भीड़
जगह जगह
भीड़ें गिनकर
भीड़ की बातों को
निगल कर
उगल कर
जुगाली करने में
ही रह जाता है।
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com
खोला तो
रोज ही
जाता है
लिखना भी
शुरु किया
जाता है
कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक
खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है
नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है
हर कलम
गीत नहीं
लिखती है
बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है
किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर
सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है
लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी
लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है
सच लिखने की
हसरतों के बीच
कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का
अन्दाज ही
नहीं आता है
उलझता
चला जाता है
बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’
जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है
घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।
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