मुँह में दबी सिगरेट से
जैसे झड़ती रही राख पूरे पूरे दिन पूरी रात
फिर एक बार
और सारा सब कुछ हवा हो गया
एक साल और सामने सामने से
मुँह छिपाकर गुजरता हुआ जैसे धुआँ हो गया
थोड़ी कुछ चिन्गारियाँ उठी कुछ लगी आग
दीवाली हुयी
आँखों की पुतलियों में तैरती बिजलियाँ सी दिखी
खेला गया चटक गाढ़ा लाल रंग
बहता दिखा गली सड़कों में
गोलियों पत्थरों से भरे गुलाल से
उमड़ता जैसे फाग
आदमी को आदमी से तोड़ता हुआ आदमी
आदमी के बीच का एक आदमी उस्ताद
पता भी नहीं चला
आदमी आदमी के सर पर चढ़ता
दबाता आदमी को जमीन में
एक आदमी आदमी का खुदा हो गया
देखते देखते सामने सामने से ही
ये गया और वो गया
सोचते सोचते
धीमे धीमे दिखाता अपनी चालें
कितनी तेजी के साथ देखो कैसे धुआँ हो गया
‘उलूक’ मौके ताड़ता
बहकने के कुछ रंगीन सपने
देखते देखते रात के अंधेरे अंधेरे
ना जाने कब खुद ही काला सफेद हो गया
पता भी नहीं चला कैसे
फिर से एक पुराना साल
नये साल के आते ना आते
बिना लगे आग बिना सुलगे ही
बस धुआँ और धुआँ हो गया ।
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