उलूक टाइम्स

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

सारा सब कुछ अभी ही लिख देगा क्या माना लिख भी लेगा तो आगे फिर लिखने के लिये कुछ भी नहीं बचेगा क्या ?


रहने भी दे
हमेशा
खुद से ही
बहस मत
कर लिया कर

कुछ औरों का
लिखना भी
कभी तो देख
भी लिया कर

अपना अपना
भी लिख रहे हैं
लिखने वाले

 तू भी कभी
कुछ अपना ही
लिख लिया कर

इधर उधर
देखना
थोड़ी देर के
लिये ही सही

कभी आँखें ही
कुछ देर
के लिये सही
बन्द भी
कर दिया कर

कभी कुछ नहीं तो

हो भी
सकने वाला
एक सपना ही
लिख दिया कर

लिखे हुऐ कुछ में
समय कितनों के
लिखे में दिखता है

ये भी कभी कुछ
देख लिया कर

हमेशा
घड़ी देखकर
ही लिखेगा क्या

कभी चाँद तारे
भी देख लिया कर

सब का लिखा
घड़ी नहीं होता है

बता पायेगा क्या
कितने बज रहे हैं
अपने लिखे हुऐ
को ही देख कर कभी

रोज का ना सही
कभी किसी जमाने
के लिखे को
देखकर ही

समय उस समय
का बता दिया कर

घड़ी पर
लिखने वाले
बहुत होते हैं
घड़ी घड़ी
लिखने वाले
घड़ी लिख लें
जरूरी नहीं

कभी
किसी दिन
किसी की
घड़ी ना सही

घड़ी की
टिक टिक
पर ही कुछ
कह दिया कर

समय
सच होता है
सच लिखने
वाले को
समय दूर
से ही सलाम
कर देता है

समय
लिखने वाले
और समय
पढ़ने वाले
होते तो हैं
मगर
थोड़े से होते हैं

कभी समय
समझने वालों
को समझकर

समय पर
मुँह अँधेरे
भी उठ
लिया कर

अपनी
नब्ज अपने
हाथ में होती है

सब नाप
रहे होते हैं
थोड़े से
कुछ होते हैं
नब्ज दूसरों
की नापने वाले

उन्हें डाक्टर कहते हैं

कभी
किसी दिन
किसी डाक्टर
का आला ही
पकड़ लिया कर

‘उलूक’ देखने
सुनने लिखने
तक ठीक है
हर समय
फेंकना
ठीक नहीं है

औरों
को भी कभी
कुछ समय
के लिये
समय ही सही
फेंकने दिया कर ।

चित्र साभार: http://www.toonvectors.com

रविवार, 10 दिसंबर 2017

जानवर पैदा कर खुद के अन्दर आदमी मारना गुनाह नहीं होता है

किस लिये
इतना
बैचेन
होता है

देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी

वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है

उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है

सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है

नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है

सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से

जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है

तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है

किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है

कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ

तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है

तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है

शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है

‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये

कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है

सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर

एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।

चित्र साभार: shutterstock.com

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

अचानक से सूरज रात को निकल लेता है फिर चाँद का सुबह सवेरे से आना जाना शुरु हो जाता है


जब भी
कभी
सैलाब आता है 

लिखना
भी 
चाहो
अगर कुछ

नहीं
लिखा जाता है 

लहरों
के ऊपर 
से
उठती हैं लहरें 
सूखी हुई सी कई

बस सोचना सारा
पानी पानी सा 
हो जाता है 

इसकी
बात से 
उठती है जरा 
सोच एक नयी 

उसकी याद 
आते ही सब  
पुराना पुराना 
सा हो जाता है 

अचानक
नींद से 
उठी दिखती है 

सालों से सोई 
हुई कहीं की
एक भीड़ 

फिर से
तमाशा 
कठपुतलियों का 

जल्दी
ही कहीं 
होने का आभास 
आना शुरू
हो जाता है 

जंक
लगता नहीं है 
धागों में
पुराने 
से पुराने
कभी भी 

उलझी हुई
गाँठों 
को सुलझाने में 
मजा लेने वालों का
मजा दिखाना 
शुरु हो जाता है  

पुरानी शराबें 
खुद ही चल देती हैं 
नयी बोतल के अन्दर 

कभी
इस तरह भी 
‘उलूक’ 

शराबों के
मजमें 
लगे हुऐ

जब कभी 
एक
लम्बा जमाना 
सा हो जाता है ।

चित्र साभार: recipevintage.blogspot.com

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

असली सब छिपा कर रोज कुछ नकली हाथ में थमा जाता है


सब कुछ लिख देने की चाह में
नकली कुछ लिख दिया जाता है

बहुत कुछ असली लिखा जाने वाला
कहीं भी नजर नहीं आता है

कहीं नहीं लिखा जाता है वो सब
जो 
लिखने के लिये 
लिखना शुरु करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है

सारा सब कुछ
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
दौड़ने लगता है उल्टे पाँँव
जैसे लिखने वाले से ही
दूर कहीं भागना चाहता है

जब तक समझने की कोशिश करता है
लिखते लिखते लिखने वाला

कलम पीछे छूट जाती है
स्याही जैसे फैल जाती है
कागज हवा में फरफराना शुरु हो जाता है
ना वो पकड़ में आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है

कितनी बार समझाया गया है
सूखने तो दिया कर स्याही पहले दिन की

दूसरे दिन गीले पर ही
फिर से लिखना शुरु हो जाता है

कितना कुछ लिखा 
कितना कुछ लिखना बाकी है
कितना कुछ बिका कितना बिकेगा
कितना और बिकना बाकी है

हिसाब लगाते लगाते
लिखने वाला 
लेखक तो नहीं बन पाता है
बस थोड़ा सा कुछ शब्दों को
तोलने वाली मशीन हाथ में लिये 
एक बनिया जरूर हो जाता है

कुछ नहीं किया जा सकता है ‘उलूक’

देखते हैं एक नये सच को
खोद कर निकाल कर
समझने के चक्कर में

रोज एक नया झूठ बुनकर
आखिर कब तक 
कोई हवा में उसकी पतंग बना कर उड़ाता है

पर सलाम है उसको
जो ये देखने के लिये हर बार

हर पन्ने में किनारे से झाँकता हुआ
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।

चित्र साभार: www.istockphoto.com