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गुरुवार, 4 जनवरी 2024

हथियार किसी के हाथ में ना कभी थे ना अभी हैं


हथियार
किसी के हाथ में
ना कभी थे ना अभी हैं
पर कुछ तो
डाल चुकें है लोग
क्या ?
बस इसी का आभास नहीं है

बहुत कुछ
उबल रहा है पर भाप नहीं है
ना कोई
हंस रहा है ना कोई रो रहा है
सबके पास
काम है कुछ महत्वपूर्ण
जो दिया गया है
उन्हें
अपने होने का ही आभास नहीं है

रास लीला के समय
सुना है कुछ ऐसा ही हुआ था
गोपियां
थी तो सही कहीं
पर उन्हें पता ही नहीं था

क्या वही समय
अपने को दोहरा रहा है ?

आँखे
देख नहीं रही है कुछ भी
कानों से
सुना नहीं जा रहा है
जिह्वा
चिपक चुकी है तालुओं के साथ

शायद कहीं
समुंदर से भी बड़ा कुछ मथा जा रहा है
उसी में से
निकला अमृत हर एक के हिस्से का
उसके गले से
जैसे नीचे की और खिसकाया जा रहा है

अब
इससे बड़ा और क्या चाहिए ?

आदमी सम्मोहन में है
आदमी ध्यान में है
आदमी समाधिस्थ है

‘उलूक’
कितना अजीब है तू
ऐसे में भी
बकवास करने से
बाज नहीं आ रहा है ?

चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

रविवार, 10 दिसंबर 2023

बेवकूफ है बस एक ‘उलूक’ होशियार सारा जहां है

 

कुछ नहीं कह रहे हैं कुछ कहने की जरूरत ही कहां है
सब कुछ तो ठीक है किसी को बताने की फुर्सत ही कहां है

कुछ उसके आदमी हैं कुछ इसके आदमी है जो जहां है वो वहां है
अभी उधर वाला इधर वाले की खाल खीचे खाल है अभी और यहाँ है

जो उधर है वो सबसे होशियार है उसको भी पता है वो कहाँ है
वो इधर वाले के कपडे उतारे किस ने देखना है कौन है कहा है

कल इधर वाला उधर होगा तब देख लेंगे किसने क्या कहा है
सजा किस को हुई है या होने वाली है मौज में हैं जो हैं जहां हैं

गाली गांधी को दे दो गाली नेहरू को दे दो वो कौन सा यहां हैं
गाली देने में कौन से पैसे खर्च होते हैं गाली देने वाले शहंशाह हैं

जो कह रहा है बस वो ही सिर्फ एक बेवकूफ है सुनने वाला मेहरबां है
होशियार ‘उलूक’ तेरे अलावा बाकी बचा है जो सारा और सारा जहां है |

चित्र साभार: https://pixabay.com/



बुधवार, 3 नवंबर 2021

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

 

मरने की बात अपनी सुनकर
बहुत डरा करता है आदमी
खुद के गुजरने की बात भूलकर भी
नहीं करा करता है आदमी

दो बाँस चार कँधे लाल सफेद कपडे‌
कहीं भी जमा नहीं करा करता है आदमी
अजीब चीजें इकट्ठा करता हुआ एक ही जीवन में
कई बार मरा करता है आदमी

देखना सुनना फिर कहना देखा सुना
अपनी फितरत से जरा करता है आदमी
कान आँख जुबाँ हर आदमी की अलग होती हैं
साबित करा करता है आदमी

रोज मरना कई बार मरना और फिर इसी मरने को अन्देखा
हमेशा करा करता है आदमी
इसके मरने को उसने देखा उसके मरने को इस ने देखा
बस खुद अपने मरने पर पर्दा करा करता है आदमी

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है
रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है
रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

किसलिये माँगते हो ‘उलूक’ से जिंदा आदमी होने का एक सबूत
इतना मरता है
मरते मरते मरा करता है
उसका मरना ही उसके जिंदा होने का है सबूत
हर समय दिया करता है आदमी
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

लिख ही लें थोड़ा सुकून इधर से लेकर उधर तक फैल चुके हों जहाँ जर्रा जर्रा बेजुबान

 

डा० कफ़ील खान

भगवान जी और अल्ला मियाँ
का तो पता नहीं 
पर सुबह अच्छी खबर मिली और अच्छा लगा

पता नहीं किसे सुनाई दी
किसे कुछ भी
अब भी पता नहीं चला 

आदमी के आदमी ने आदमी पर
लगा कर इल्जाम बता कर गुनाहगार 

बोल कर कुछ
दिखा कर कर गया जैसे कोई
शब्दों से कत्लेआम 

कर दिया गया अन्दर
बिना पूछे बिना देखे हथियार और कत्ल का सामान 

लगा दी गयी धारायें
एक आदमी पर सारी सभी भीड़ की 
मानकर उसे एक नहीं कई कई आदमी एक साथ
जैसे हो एक जगह उगाये खुद की ही हजारों जुबान 

फ़िर आदमी ने ही कर दिया इन्कार
देने से सजा झूठ की
कुछ बचा हुआ होगा वहाँ शायद इंसान 

‘उलूक’ काट लिये दिन सैकड़ों
काल कोठरी में बेगुनाह ने

सजा कौन देगा यंत्रणा देने वाले गुनहगार को
कौन सा अल्ला या कौन सा भगवान ?


चित्र साभार: https://www.gograph.com/
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Alexa Traffic Rank 130398 Traffic Rank in इंडिया 12663 01/09/2020 के दिन 9:25 पीएम 
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शनिवार, 28 दिसंबर 2019

एक साल बेमिसाल और फिर बिना जले बिना सुलगे धुआँ हो गया



मुँह 
में दबी 
सिगरेट से 

जैसे 

झड़ती 
रही राख 

पूरे 
पूरे दिन 
पूरी रात 

फिर एक बार 

और 

सारा 
सब कुछ 
हवा हो गया 

एक 
साल और 

सामने सामने से 

मुँह 
छिपाकर 
गुजरता हुआ 

जैसे 
धुआँ हो गया 

थोड़ी कुछ 
चिन्गारियाँ
उठी 

कुछ
लगी आग 

दीवाली हुयी 

आँखों
की 
पुतलियों में 

तैरती 
बिजलियाँ 
सी
दिखी 

खेला गया 
चटक गाढ़ा 
लाल रंग 

बहता दिखा 
गली सड़कों में 

गोलियों 
पत्थरों से भरे 
गुलाल से 

उमड़ता
जैसे फाग 

आदमी को 

आदमी से 

तोड़ता हुआ 
आदमी 

आदमी 
के 
बीच का 

एक 

आदमी 
उस्ताद 

पता
भी 
नहीं चला 

आदमी 
आदमी 
के
सर 
पर चढ़ता 

दबाता 
आदमी 
को
जमीन में 

एक 
आदमी 

आदमी
का 
खुदा हो गया 

देखते 
देखते 

सामने 
सामने 
से
ही 

ये गया 
और 
वो गया 

सोचते सोचते 

धीमे धीमे 

दिखाता 
अपनी
चालें 

कितनी 
तेजी के साथ 

देखो 
कैसे 

धुआँ
हो गया 

‘उलूक’ 
मौके ताड़ता 
बहकने के 

कुछ 
रंगीन सपने 
देखते देखते 

रात के 
अंधेरे अंधेरे 
ना
जाने कब 

खुद ही 
काला 
सफेद हो गया 

पता 
भी नहीं चला 

कैसे
फिर से एक 

पुराना 
साल 

नये 
साल के 
आते ना आते 

बिना 
लगे आग 

बिना सुलगे ही 

बस 
धुआँ
और 

धुआँ हो गया । 

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

खुद अपना मन्दिर बना कर खुद मूर्ती एक होना चाहता है साफ नजर आता है देखिये अपने आसपास है कोई ऐसा जो भगवान जैसा नजर आता है


"ब्लॉग उलूक पर पच्चीस  लाख कदमों  को शुक्रिया"


भगवान बस 
भगवानों से ही 

रिश्ते बनाता है 

किसी 
आदमी से 
बनाना चाह लिया 
रिश्ता कभी उसने तो 

सब से 
पहले उसे 
एक भगवान बनाता है 

एक 
आदमी 
उसे जरा 
सा दमदार 
अगर नजर 
आ भी जाता है 

उससे 
तार मिलाने 
की इच्छा को 
उभरता हुआ 
महसूस यदि 
कर ही जाता है 

सबसे पहले 
उस आदमी से 
आदमियत 
निकाल कर 
उसे भगवान 
बनाता है 

भगवानों की 
श्रँखलायें होती है 

इंसानियत 
के साये से 
बहुत दूर होती हैं 

भगवान 
इन्सान को 
पाल सकता है 

मौज में 
आ गया कभी 
तो कुत्ता भी 
बना ले जाता है 

हर 
इन्सान 
के आसपास 

कई 
भगवान होते हैं 

कौन 
कितना 
भगवान 
हो चुका है 

समय 
के साथ 
चलता हुआ 
आदमी का 
अच्छा बुरा 
समय ही 
उसे 
समझाता है 

कुछ 
आदमी 
भगवान ने 
भगवान 
बना दिये होते हैं 

भगवान 
से बहुत 
ज्यादा 
भगवान 

उनकी 
हरकतों से 
बहता हुआ 
नजर आता है 

धीरे धीरे 
हौले हौले 
हर तरफ 
हर जगह 
बस भगवान 
ही नजर आता है 

‘उलूक’ 
देखता 
चलता है 

आदमी के 
बीच से 
होते हुऐ 
भगवान 
कई सारे 

देखने 
में मजा 
भी आता है 

आदमी 
तो आदमी 
ही होता है 

भगवान 
बना भी दिया 
अगर किसी 
ने ले दे के 

औकात 
अपनी 
फिर भी 
आदमी 
की ही 
दिखाता है


 चित्र साभार: https://making-the-web.com

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पीना पिलाना बहकना बहकाना दौड़ेगा अब तो चुनावी मौसम हो गया है

आदमी
खुद में ही

जब

आदमी
कुछ कम
हो गया है

किसलिये
कहना है

रंग
इस बार
कहीं गुम
हो गया है

खुदाओं
में से

किसी
एक का

घरती
पर जनम
हो गया है

तो
कौन सा
किस पर

बड़ा
भारी
जुलम
हो गया है

मन्दिर
जरूरी नहीं

अब
वो भी

तुम
और हम
हो गया है

समझो

भगवान
तक को

इन्सान
होने का
भ्रम
हो गया है

झूठ
खरपतवार

खेतों में
सच के

सनम
हो गया है

काटना
मुश्किल
नहीं है

रक्तबीज
होने का
उसके

वहम
हो गया है

होली
के जाने का

क्यों रे
‘उलूक’

तुझे

क्या गम
हो गया है

पीना
पिलाना

बहकना
बहकाना

दौड़ेगा

अब तो

चुनावी
मौसम
हो गया है ।

चित्र साभार: https://miifotos.com

मंगलवार, 12 मार्च 2019

चिट्ठाजगत और घर की बगल की गली का शोर एक सा हुआ जाता है

अच्छा हुआ

भगवान
अल्ला ईसा

किसी ने

देखा नहीं
कभी

सोचता

आदमी
आता जाता है

आदमी
को गली का
भगवान
बना कर यहाँ

कितनी
आसानी से

सस्ते
में बेच
दिया जाता है

एक
आदमी
को
बना कर
भगवान

जमीन का

पता नहीं

उसका
आदमी
क्या करना
चाहता है

आदमी
एक आदमी
के साथ मिल कर

खून
को आज
लाल से सफेद

मगर
करना चाहता है

कहीं मिट्टी
बेच रहा है
आदमी

कहीं पत्थर

कहीं
शरीर से
निकाल कर

कुछ
बेचना चाहता हैं

पता नहीं
कैसे कहीं
बहुत दूर बैठा

एक आदमी

खून
बेचने वाले
के लिये
तमाशा
चाहता है

शरम
आती है
आनी भी
चाहिये

हमाम
के बाहर भी

नंगा हो कर

अगर
कोई नहाना
चाहता है

किसको
आती है
शरम
छोटी छोटी
बातों में

बड़ी
बातों के
जमाने में

बेशरम

मगर
फिर भी
पूछना
चाहता है

देशभक्त
और
देशभक्ति

हथियार
हो चले हैं
भयादोहन के

एक चोर

मुँह उठाये
पूछना चाहता है

घर में
बैठ कर

बताना
लोगों को

किस ने
लिखा है
क्या लिखा है

उसकी
मर्जी का

बहुत
मजा आता है

बहुत
जोर शोर से

अपना
एक झंडा लिये

दिखा
होता है
कोई
आता हुआ

लेकिन
बस फिर

चला भी
यूँ ही
जाता है

आसान
नहीं होता है
टिकना

उस
बाजार में

जहाँ

अपना
खुद का
बेचना छोड़

दूसरे की
दुकान में
आग लगाना

कोई
शुरु हो
जाता है

‘उलूक’

यहाँ भी
मरघट है

यहाँ भी
चितायें
जला
करती हैं

लाशों को
हर कोई
फूँकने
चला
आता है

घर
मोहल्ले
शहर में
जो होता है

चिट्ठाजगत
में भी होता है

पर सच

कौन है
जो देखना
चाहता है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

घोड़ा ऐनक या होर्स ब्लाइंडर किस किस को समझ आ जाता है?

कैसे
पता करे
कोई खुद

कि


वो होश में है
या बेहोश है

वहाँ जहाँ


बेहोश रहने को
होश का पैमाना
माना जाता है

आँख में
चश्में लगे हो भी
और 

नहीं भी हों

दिखायी
दे जाता है
साफ साफ

बहुत दूर से
नजर भी
आ जाता है

सोच
के चश्में
किसी की
सोच में

शायद कोई
दूर वाला
बहुत दूर से
बैठ कर भी
लगा ले जाता है

एक जैसी
लकीर को
खींचते हुऐ
एक दो नहीं

एक
बहुत
बड़ी भीड़
का स्वभाव
एक सा
हो जाता है

जहाँ

बस लकीर
खींचनी ही
नहीं होती है

खींचने के बाद
एक ही तरीके से
उसे पीटना
आना भी
बहुत जरूरी
माना जाता है

बस

इसी
तस्वीर के
अन्दर
झांंकने पर

आदमी का
घोड़ा हो जाना

और
घोड़े का
ऐनक लगाकर
सीधी
एक लकीर
पर चलते चलते

एक शतरंज
की बिसात में
खड़े वजीर के लिये
फकीर हो जाना

समझ में आना
शुरु हो जाता है

घो‌ड़े
की आँखों में
ऐनक लगाना तो

जरूरी
हो जाता है
उसे रास्ते से
भटकने से
बचाने के लिये

सामने
देखने के लिये
इसी तरह मजबूर
किया जाता है

घोड़े
वफादार भी होते हैं
ऐनक लगी रहती है
दिखायी देती है

वफादारी
देखने के लिये
चश्मा
बना बनाया
बाजार में
नहीं पाया जाता है
जरूरी भी नहीं होता है

खबर में
घोड़ों का
आदमी को काट
खाने का वाकया

छपा हुआ
नजर में नहीं
ही आता है

अजीब बात है
कब आदमी
आदमियों की
भीड़ के बीच में

आँख में
ऐनक लगे घोड़ों से
अपने को
घिरा हुआ होना
महसूस करना
शुरु हो जाता है

कौन होश में है
कौन बेहोश है

कैसे समझ में आये
किस से पूछा जाये

ऐसी बात
कोई सीधे सीधे
जो क्या बताता है

और  ‘उलूक’ भी

पता नहीं

आदमी और
घोडों के बीच
एक ऐनक
को लेकर

होश और बेहोश
के पैमाने लेकर

क्या किसलिये
और क्यों नापना
शुरु हो जाता है ?

चित्र साभार: http://lakhtakiyabol.com

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

गणित की किताब और रोज रोज का रोज पढ़ा रोज का लिखा हिसाब

यूँ ही
पूछ बैठा

गणित
समझते हो

जवाब मिला

नहीं

कभी
पढ़ नहीं पाया

हिसाब
समझते हो

जवाब मिला

वो भी नहीं

गणित में
कमजोर
रहा हमेशा

दिमाग ही
नहीं लगाया

मुझे भी
समझ में
कहाँ
आ पाया

गणित भी
और
हिसाब भी

खुद
गिनता रहा
जिन्दगी भर

बच्चों को
घर पर
सिखाता रहा

पढ़ाना
शुरु किया

वहाँ भी
पीछा नहीं
छुड़ा पाया
गणित से

गजब का
विषय है
गणित

गजब
गणित है
जीवन
का भी

दोनो
गणित हैं
दोनों में
समीकरण हैं

फिर भी
अलग हैं
दोनों

हर तरफ
गणित है

चलने में गणित
भागने में गणित
सोने में गणित
और
जागने में गणित

पर
मजे की बात है
किताब का गणित
बस किताब तक है

हिसाब
का गणित
दिमाग में है

मजबूत गणित

लिखा
नहीं है
कहीं भी
किसी
किताब में

कापी
कलम की
जरूरत ही
नहीं पड़ती है
जरा भी

पर
दिख जाता है

साफ साफ
हर जगह का
हर रंग का

नशे का गणित
बेहोशी का गणित
होश का गणित

पढ़ने का गणित
पढ़ाने का गणित
पढ़वाने का गणित
लिखने का गणित
लिखवाने का गणित

आने का
और
जाने का गणित

बताने का
सिखाने का
समझाने
का गणित

कितना
कितना गणित
कर लेता है आदमी

हर कदम पर
गणित
आगे जाने पर
गणित
पीछे आने का
गणित

इतना गणित
कि पागल
हो जाये किताबें
और
फेल हो जायें
सारे हिसाब

फिर भी
विषय नहीं
लिया होता है
आदमी ने

पढ़ी नहीं
होती है किताब

बस यूँ ही
कर ले जाता है
कितना सारा
बिना
समीकरणों के
समीकरण से
जोड़ता घटाता
समीकरण

फिर भी
जवाब मिलता है

नहीं
कभी पढ़
नहीं पाया
गणित में
कमजोर
रहा हमेशा

‘उलूक’
सुधर जा
अपने
खाली दिमाग
की हवा को
इस तरह
मत हिला

गरम हो
जायेगी तो

फट पड़ेगा

हर कोई
कहने लगेगा

गणित
पढ़ने लगा था

समझने लगा हूँ
समझने लगा था

हट के फितरत से
अपनी किया था

इसलिये फट गया था ।


चित्र साभार: https://drawception.com

रविवार, 23 सितंबर 2018

श्रद्धांजलि डाo शमशेर सिंह बिष्ट

1947- 22/09/2018

शब्द
नहीं होते हैं

सब कुछ
बताने के लिये
किसी के बारे में

थोड़ा
कम पड़ जाते हैं

थोड़े से
कुछ लोग

भीड़ में
होते हुऐ भी
भीड़
नहीं हो जाते हैं

समुन्दर के
पानी में
मिल चुकी

बूँद
होने के
बावजूद भी

दूर से
पहचाने जाते हैं

जिंदगी भर
जन सरोकारों
के लिये

संघर्ष करने
वालों के चेहरे ही

कुछ
अलग हो जाते हैं

अपने
मतलब के लिये
भीड़ खरीद/
बेच/ जुटा कर

कहीं से कहीं
पहुँच जाने वाले
नहीं पा सकते हैं

वो मुकाम

जो

कुछ लोग
अपनी सोच
अपने सत्कर्मों से
अपनी बीनाई
से पा जाते हैं

एक
शख्सियत

यूँ ही नहीं
खींचती है
किसी को
किसी
की तरफ

थोड़े से
लोग ही
होते हैं
कुछ अलग

बस
अपने लिये

नहीं जीने
वाले
ऐसे ही लोग

जब
महफिल से
अचानक

उठ कर
चले जाते हैं

सरकारी
अखबार
वालों को भी

कुछ
लिखने लिखाने
की याद
दिला कर जाते हैं

बहुत कमी
खलेगी आपकी

'डा0 शमशेर सिंह बिष्ट' 

कुछ
सरोकार
रखने वालों
को हमेशा

अल्विदा नमन
विनम्र श्रद्धांजलि

‘उलूक’
कुछ लोग
बना ही
जाते हैं
कुछ रास्ते
अलग से

जिसपर
सोचने वाले
सरोकारी

हमेशा ही

आने वाले
समय में

आते हैं
और जाते हैं । 


बुधवार, 25 जुलाई 2018

दिमाग बन्द करते हैं अपने चल पढ़ाने वाले से पढ़ कर के आते हैं

बहुत
लिख लिया
एक ही
मुद्दे पर
पूरे महीने भर

इस
सब से
ध्यान हटाते हैं


शेरो शायरी
कविता कहानी
लिखना लिखाना
सीखने सिखाने
की किसी दुकान
तक हो कर
के आते हैं

कई साल
हो गये
बकवास
करते करते
एक ही
तरीके की

कुछ नया
आभासी
सकारात्मक
बनाने
दिखाने
के बाद
फैलाने का भी
जुगाड़ अब
लगाते हैं

घर में
लगने देते हैं आग
घुआँ सिगरेट का
समझ कर पी जाते हैं

बची मिलती है
राख कुछ अगर
इस सब के बाद भी

शरीर
में पोत कर खुद ही
शिव हो जाते हैं

उसके
घर की तरफ
इशारे करते हैं

जाम
इल्जाम के बनाते हैं

नशा हो झूमे शहर
बने एक भीड़ पागल
इस सब के पहले

अपने घर के पैमाने
बोतलों के साथ
किसी मन्दिर की
मूरत के पीछे
ले जाकर छिपाते हैं

बरसात
का मौसम है
बादलों में चल रहे
इश्क मोहब्बत की
खबर एक जलाते हैं

कहीं से भी
निकल कर आये
कोई नोचने बादलों को

पतली गली
से निकल कर कहीं
किनारे
पर बैठ नदी के
चाय पीते हैं
और पकौड़े खाते हैं

ये कारवाँ
वो नहीं रहा ‘उलूक’
जिसे रास्ते खुद
सजदे के लिये ले जाते हैं

मन्दिर मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च की
बातें पुरानी हो गयी हैं

चल किसी
आदमी के पैरों में
सबके सर झुकवाते हैं ।

चित्र साभार: www.thecareermuse.co.in

रविवार, 10 दिसंबर 2017

जानवर पैदा कर खुद के अन्दर आदमी मारना गुनाह नहीं होता है

किस लिये
इतना
बैचेन
होता है

देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी

वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है

उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है

सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है

नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है

सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से

जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है

तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है

किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है

कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ

तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है

तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है

शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है

‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये

कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है

सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर

एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।

चित्र साभार: shutterstock.com

बुधवार, 1 नवंबर 2017

आदमी खोदता है आदमी में एक आदमी बोने के लिये एक आदमी

ऊपर
वाला भी
भेज देता
है नीचे

सोच कर
भेज दिया है
उसने
एक आदमी

नीचे
का आदमी
चढ़ लेता है
उस आदमी के
ऊपर से उतरते ही

उसकी
सोच पर
सोचकर
समझकर
समझाकर
सुलझाकर
बनाकर उसको
अपना आदमी

आदमी
समझा लेता है
आदमी को आदमी

खुद
समझ कर
पहले

ये तेरा आदमी
ये मेरा आदमी

बुराई नहीं है
किसी आदमी के
किसी का भी
आदमी हो जाने में

आदमी
बता तो दे
आदमी को
वो बता रहा है
बिना बताये
हर किसी
आदमी को

ये है मेरा आदमी
ये है तेरा आदमी

‘उलूक’

हिलाता है
खाली खोपड़ी
में भरी हवा
को अपनी
हमेशा की तरह

देखता
रहता है

आदमी
खोजता
रहता है
हर समय
हर तरफ
आदमी
खोजता आदमी

बेअक्ल
उलझता
रहता है
उलझाता
रहता है
उलझनों को

अनबूझ
पहेलियों
की तरह
सामने
सामने ही
क्यों नहीं
खेलता है
आदमी का
आदमी
आदमी आदमी

बेखबर
बेवकूफ

अखबार
समझने
के लिये नहीं

पढ़ने
के लिये
चला जाता है

पता ही नहीं
कर पाता है
ऊपर वाला
खुद ही ढूँढता
रह जाता है

आदमी आदमी
खेलते आदमियों में
अपना खुद का
भेजा हुआ आदमी ।

चित्र साभार: Fotosearch

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

बोलते ही उठ खड़े होते हैं मिलाने आवाज से आवाज गजब हैं बेतार के तार याद आते हैं बहुत ही सियार

बड़े दिनों के
बाद आज
अचानक फिर
याद आ पड़े
सियार

कि बहुत
अच्छे
उदाहरण
के रूप में
प्रयोग किये
जा सकते हैं
समझाने
के लिये
बेतार के तार

रात के
किसी भी प्रहर
शहर के शहर
हर जगह मिलते
हैं मिलाते हुऐ
सुर में सुर
एक दूसरे के
जैसे हों बहुत
हिले मिले हुऐ
एक दूसरे में
यारों के हो यार

और
आदमी इस
सब की रख
रहा है खबर

हो रहा है
याँत्रिक
यंत्रों के जखीरे
से दबा हुआ
ढूँढता
फिर रहा है
बिना बताये
सब कुछ छुपाये

तारों में
बिजली के
संकेतों में
दौड़ता हुआ
अपने खुद के
लिये प्रेम प्यार
और मनुहार

सियार दिख
नहीं रहे हैं
कई दिन
हो गये हैं
सुनाई नहीं
दे रही हैं आवाजें

नजर नहीं
आ रहे हैं
कहीं भी
सुर में सुर
मिलाते हुऐ

सियारों के सियार
सारे लंगोटिया यार

जरूरत
नहीं है
जरा सा भी
मायूस होने
की सरकार

बन्द कर
रहे हैं लोग
दिमाग
अपने अपने
दिख रहा है
भेजते हुऐ संदेश
बैठा कोई
बहुत दूर
कहीं उस पार

खड़ी हो रही
हैं गर्दने
पंक्तिबद्ध
होकर
उठाये मुँह
आकाश की ओर
मिलाते हुऐ
आवाज से आवाज

याद आ रहा
है एक शहर
भरे हुऐ हर तरफ
सियार ही सियार
जुड़े हुऐ सियार से

और
बेतार का एक तार
बहुत लम्बा मजबूत
जैसे गा रहे हों
हर तरफ
हूँकते हुऐ सियारों
के साथ
मिल कर सियार।

चित्र साभार: http://www.poptechjam.com

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

कलाबाजी कलाकारी लफ्फाजों की लफ्फाजी जय जय बेवकूफों की उछलकूद और मारामारी

कब किस को
देख कर क्या
और
कैसी पल्टी
खाना शुरु कर दे
दिमाग के अन्दर
भरा हुआ भूसा

भरे दिमाग वालों
से पूछने की हिम्मत
ही नहीं पड़ी कभी
बस
इसलिये पूछना
चाह कर भी
नहीं पूछा

उलझता रहा
उलटते पलटते
आक्टोपस से
यूँ ही खयालों में
बेखयाली से

यहाँ से वहाँ
इधर से उधर
कहीं भी
किधर भी
घुसे हुऐ को
देखकर

फिर कुछ भी
कहने लिखने
के लिये नहीं सूझा

बेवकूफ
आक्टोपस
आठ हाथ पैरों
को लेकर तैरता
रहा जिंदगी
भर अपनी

क्या फायदा
जब बिना
कुछ लपेटे
इधर से उधर
और
उधर से इधर
कूदता रहा

कौन पूछे
कहाँ कूदा
किसलिये
और
क्यों कूदा

गधे से लेकर
स्वान तक
कबूतर से
लेकर
कौए तक

मिलाता चल
आदमी की
कलाबाजियों
को देखकर
‘उलूक’
आठ जगह
एक साथ
घुस लेने की
कारीगरी
छोड़ कर
हर जगह
एक हाथ
या एक पैर
छोड़ कर
आना सीख

और
कुछ मत कर
कहीं भी

कहीं और
बैठ कर
कर बस
मौज कर

आक्टोपस बन
मगर मत चल
आठों लेकर
एक साथ हाथ

बस रख
आया कर
हर जगह कुछ
बताने के लिये
अपने आने
का निशान

किस ने
देखना है
कौन
कह रहा है
आ बता
अपनी
पहचान

आक्टोपस
होते हैं
कोई बात
है क्या
आक्टोपस
हो जाना
सीख ना
आदमी से।

चित्र साभार: cz.depositphotos.com

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

आदमी एकम आदमी हो और आदमी दूना भगवान हो

गीत हों
गजल हों
कविताएं हों
चाँद हो
तारे हों
संगीत हो
प्यार हो
मनुहार हो
इश्क हो
मुहब्बत हो
अच्छा है

अच्छी हो
ज्यादा
ना हो
एक हो
कोई
सूरत हो
खूबसूरत हो
फेस बुक
में हो
तस्वीर हो
बहुत ही
अच्छा है

दो हों
लिखे हों
शब्द हों
सौ हों
टिप्पणिंयां हों
कहीं कुछ
नहीं हो
उस पर
कुछ नहीं
होना हो
बहुत
अच्छा है

तर्क हों
कुतर्क हों
काले हों
सफेद हों
सबूत हों
गवाह हों
अच्छी सुबह
अच्छा दिन
और
अच्छी रात हो
अच्छा है

भीड़ हो
तालियाँ हो
नाम हो
ईनाम हो
फोटो हो
फूल हों
मालाऐं हों
अखबार हो
समाचार हो
और भी
अच्छा है

झूठ हों
बीज हों
बोने वाले हों
गिरोह हो
हवा हो
पेड़ हों
पर्यावरण हो
गीत हों
गाने वाली
भेड़ हों
हाँका हो
झबरीले
शेर हों
अच्छा है

फर्क नहीं
पड़ना हो
दिखना
कोई
और हो
दिखाना
कोई
और हो
करना
कहीं
और हो
भरना
कहीं
और हो
बोलने वाला
भगवान हो
चुप रहने
वाला
शैतान हो
सबसे
अच्छा है

‘उलूक’ हो
पहाड़ा हो
याद हो
आदमी
एकम
आदमी हो
और
आदमी
दूना
भगवान हो
बाकी
सारा
हो तो
राम हो
नहीं तो
हनुमान हो
कितना
अच्छा है।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com/

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

आदमी बना रहा है एक आदमी को मिसाइल अपने ही किसी आदमी को करने के लिये नेस्तनाबूत

कलाम तू
आदमी से
पहले एक
मुसलमान था

तूने ही सुना है
मिसाइल बनाई
तू ही तो बस
इन्सानो के बीच
एक इन्सान था

तेरी मिसाइल
को भी ये
पता था
या नहीं था
किसे पता था

मिसाइल थी
नहीं जानती थी
आदमी को

ना हीं
पहचानती थी
आदमी और
मिसाइल
का अन्तर

पर तू मिसाइल
मैन हो गया
इतिहास बना कर
मिसाइल का
इस देश के लिये
खुद भी एक
इतिहास हो गया

देख बहुत
 अच्छा है
आज का
हर आदमी
एक मिसाइल
मैन है
और उसकी
मिसाइल भी
एक मैन है

आदमी
बना रहा है
एक आदमी
को मिसाइल
एक आदमी
को बरबाद
करने के लिये

ऐसी एक
मिसाइल
जिसका
ईंधन
धर्म है
क्षेत्र है
जाति है

शहर के
गली मोहल्ले
बाजार में
इफरात से
घूम रहें हैं
आज के सारे
मिसाईल मैन
और
बड़ी बात है
कि सारे
मिसाईल मैन
पढ़े लिखे हैं
सौ में से
निन्यानबें
पीएच डी
कर चुके हैं

मिसाईलें भी
बहुत ज्यादा
पढ़ चुकी हैं
दिमाग को
अपने खाली
कर चुकी हैं

वो आदमी
नहीं बस
एक जाति
क्षेत्र या धर्म
हो चुकी हैं

चल रही हैं
किसी के
बटन
दबाने से

सारी
मिसाईलें
आज
समाज
हो
चुकी हैं

किस की
मौत हो
रही है
इन
मिसाइलों से
बस ये
ही खबर
किसी को
नहीं हो
रही है

रुकिये
तो सही
कुछ दिन
जनाब
'उलूक'

आप को
किसलिये
इतनी
जल्दी
किसी के
मरने की
खबर
पाने
की हो
रही है

जब
मिसाइलें
ही अपनी
मिसाइलों
को
उनके ही
खून से
धो रही हैं ।

 चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

फलसफा
जिंदगी का
सीखने की
जरा सी भी
कोशिश

कभी
थोड़ी सी भी
किया होता

आधी सदी
बीत गई
तुझे आये
हुऐ यहाँ
इस जमीन
इस जगह पर

कभी
किसी दिन
एक दिन के
लिये ही सही
एक अदद
आदमी
कुछ देर के
लिये ही सही
हो तो गया होता

जानवर
ही जानवर
लिखने
लिखाने में
कूद कर
नहीं आते
तेरे इस
तरह हमेशा

आदमी
लिखने का
इतना तो
हौसला
हो ही
गया होता

सपेरे
नचा रहे हैं
अपने अपने साँप
अपने अपने
हिसाब से

साँप नहीं
भी हो पाता
नाचना तो
थोड़ा बहुत
सीख ही
लिया होता

कपड़े
उतारने से बहुत
आसान होने
लगी है जिंदगी

दिखता है
हर तरफ
धुँधला नहीं
बहुत ही
साफ साफ
कुँआरे
शीशे की तरह

बहुत सारे
नंगों के बीच में
खड़ा कपड़े
पहने हुऐ
इस तरह शरमा
तो नहीं रहा होता

क्या
क्या कहेगा
कितना कहेगा
कब तक कहेगा
किस से कहेगा
‘उलूक’

हर कोई
कह रहा
है अपनी
कौन
सुन रहा
है किसकी

फैसला
जिसकी भी
अदालत में होता
तेरे सोचने के जैसा
कभी भी नहीं होता

रोज
उखाड़ा कर
रोज
बो लिया कर

कुछ
शब्द यहाँ पर

शब्दों
के होते
हुए कबाड़ से

खाली
दिमाग के
शब्दों को

इतना नंगा
कर के भी
हर समय
खरोचने
की आदत
से कहीं
भी कुछ
नहीं होता।

चित्र साभार: www.shutterstock.com