भीड़ देखना भीड़ सोचना
भीड़ में से गुजरते हुऎ भी भीड़ नहीं होना
बहुत दिन तक नहीं हो पाता है
हर किसी के सामने
कभी ना कभी कहीं ना कहीं
भीड़ होने का मौका जरूर आता है
कमजोर दिल
भीड़ को देख कर अलग हो जाता है
भीड़ को दूर से देखता जाता है
मजबूत दिल
भीड़ से नहीं डरता है कभी
भीड़ देखते ही भीड़ हो जाता है
भीड़ कभी चीटियों की कतार नहीं होती
भीड़ कभी बीमार नहीं होती
भीड़ में से गुजरते हुऎ
भीड़ में समा जाना
ऎसे ही नहीं आ पाता है
भीड़ का भी एक गुरु होता है
भीड़ बनाना भीड़ में समाना
बस वो ही सिखाता है
भीड़ेंं तो बनती चली जाती हैं
भीडे़ंं सोचती भी नहीं हैं कभी
गुरु लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है
भीड़ फिर कहीं भीड़ बनाती है
गुरू कब भीड़ से अलग हो गया
भीड़ की भेड़ को कहाँ समझ में आ पाता है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शनिवार (08-06-2013) को मैं .... एक खोज या मैं नाजुक हरसिंगार.....यूँ ना मुझे झडने दो में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया है भाई जी-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-