कहाँ हो गुरु
दिखाई नहीं
देते हो
आजकल
कहाँ रहते हो
क्या करते हो
कुछ पता
ही नहीं
चल पाता है
बस दिखता है
सामने से कुछ
होता हुआ जब
तब तुम्हारे और
तुम्हारे गुरुभक्त
चेलों के आस पास
होने का अहसास
बहुत ही जल्दी
और
बहुत आसानी
से हो जाता है
एक जमाना था गुरु
जब तुम्हारे लगाये
हुऐ पेड़ सामने से
लगे नजर आते थे
फल नहीं
होते थे कहीं
फूल भी नहीं
तुम किसी को
दिखाते थे
कहीं दूर
बहुत दूर
क्षितिज में
निकलते हुऐ
सूरज का आभास
उसके बिना
निकले हुऐ ही
हो जाता था
आज पता नहीं
समय तेज
चल रहा है
या
तुम्हारा शिष्य ही
कुछ धीमा
हो गया है
दिन ही होता है
और रात का
तारा निकल
बगल में
खड़ा हो कर
जैसे मुस्कुराता है
और
मुँह चिढ़ाता है
गुरु
क्या गुरु मंत्र दिये
तुमने उस समय
लगा था
जग जीत
ही लिया जायेगा
पर आज
जो सब
दिख रहा है
आस पास
उस सब में तो
गुरु से कुछ
भी ढेला भर
नहीं किया जायेगा
तुमने जो
भी सिखाया
जिस की
समझ में आया
उसकी पाँचों
अँगुलियाँ
घी में हैं
जो दिख रहा है
उसका सिर
भी कढ़ाही
में है या नहीं है
ये पता नहीं है
अपना सिर
पकड़ कर
बैठे हुऐ
एक शिष्य को
आगे उससे
कुछ भी नहीं
अब दिख रहा है
जो है सो है
गुरु
गुरु तुम भी रहे
कुछ को
गुरु बनने
तक पहुँचा ही गये
लेकिन लगता है
दिन गुरुओं के
लद गये गुरु
गुरु घंटालों के
बहुत जोर शोर के
साथ जरूर आ गये
जय तो होनी
ही चाहिये गुरु
गुरु की
गुरु गुरु
ही होता है
पर गुरु
अब बिना
घंटाल बने
गुरु से भी
कुछ
नहीं होता है ।
चित्र साभार: blogs.articulate.com
दिखाई नहीं
देते हो
आजकल
कहाँ रहते हो
क्या करते हो
कुछ पता
ही नहीं
चल पाता है
बस दिखता है
सामने से कुछ
होता हुआ जब
तब तुम्हारे और
तुम्हारे गुरुभक्त
चेलों के आस पास
होने का अहसास
बहुत ही जल्दी
और
बहुत आसानी
से हो जाता है
एक जमाना था गुरु
जब तुम्हारे लगाये
हुऐ पेड़ सामने से
लगे नजर आते थे
फल नहीं
होते थे कहीं
फूल भी नहीं
तुम किसी को
दिखाते थे
कहीं दूर
बहुत दूर
क्षितिज में
निकलते हुऐ
सूरज का आभास
उसके बिना
निकले हुऐ ही
हो जाता था
आज पता नहीं
समय तेज
चल रहा है
या
तुम्हारा शिष्य ही
कुछ धीमा
हो गया है
दिन ही होता है
और रात का
तारा निकल
बगल में
खड़ा हो कर
जैसे मुस्कुराता है
और
मुँह चिढ़ाता है
गुरु
क्या गुरु मंत्र दिये
तुमने उस समय
लगा था
जग जीत
ही लिया जायेगा
पर आज
जो सब
दिख रहा है
आस पास
उस सब में तो
गुरु से कुछ
भी ढेला भर
नहीं किया जायेगा
तुमने जो
भी सिखाया
जिस की
समझ में आया
उसकी पाँचों
अँगुलियाँ
घी में हैं
जो दिख रहा है
उसका सिर
भी कढ़ाही
में है या नहीं है
ये पता नहीं है
अपना सिर
पकड़ कर
बैठे हुऐ
एक शिष्य को
आगे उससे
कुछ भी नहीं
अब दिख रहा है
जो है सो है
गुरु
गुरु तुम भी रहे
कुछ को
गुरु बनने
तक पहुँचा ही गये
लेकिन लगता है
दिन गुरुओं के
लद गये गुरु
गुरु घंटालों के
बहुत जोर शोर के
साथ जरूर आ गये
जय तो होनी
ही चाहिये गुरु
गुरु की
गुरु गुरु
ही होता है
पर गुरु
अब बिना
घंटाल बने
गुरु से भी
कुछ
नहीं होता है ।
चित्र साभार: blogs.articulate.com
बहुत खूब...आजकल गुरु कम, गुरु घंटाल ज्यादा नज़र आते हैं...
जवाब देंहटाएंआभार हिमकर जी ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-08-2015) को "आशाएँ विश्वास जगाती" {चर्चा अंक-2055} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय ।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, एक के बदले दो - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआभार ब्लाग बुलेटिन ।
हटाएं