मत नाप
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से
नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ
बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं
ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का
इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना
बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं
बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं
कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं
लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं
बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है
बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है
कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था
उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था
रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है
कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है
जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।
चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से
नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ
बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं
ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का
इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना
बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं
बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं
कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं
लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं
बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है
बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है
कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था
उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था
रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है
कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है
जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।
चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in
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