लिखे
हुऐ को
सात बार
पढ़ कर
जनाब
पूछ्ते हैं
ओये
तू कहना
क्या चाहता है
साफ साफ
असली
बात को
दो चार
सीधे साधे
शब्दों में ही
बता कर
क्यों नहीं
जाता है
बात को
लपेट कर
घुमा कर
फालतू की
जलेबी
बना कर
किसलिये
लिखने को
रोज का रोज
यहाँ पर
आ जाता है
सुनिये जनाब
जिसकी जितनी
समझ होती है
वो उतना ही तो
समझ पाता है
बाकि बचे का
क्या करे कोई
कूड़ेदान में ही
तो जा कर के
फेंका जाता है
ये भी सच है
कूड़ेदान पर
झाँकने के लिये
आज बस वो
ही आता है
जिसकी
समझ में
गाँधी की फोटो
के साथ लगा हुआ
एक झाड़ू से
सजा पोस्टर
और
उसको बनवाने
वाले की मंशा का
पूरा का पूरा खाँचा
आराम से घुस कर
साफ सफाई का
धंधा फैलाने के
मन्सूबे धीरे धीरे
पैर उठा कर
सपने के ऊपर
सपने को चढ़ाता है
कबाड़ी
कबाड़ देखता है
कबाड़ी
कबाड़ छाँटता है
कबाड़ी
कबाड़ खरीदता है
कबाड़ी
कबाड़ बेचता है
कबाड़ी
के हाथों से
होकर उसके
बोरे में पहुँचकर
चाहे धर्म ग्रंथ हो
चाहे माया मोह हो
सारा सब कुछ
कबाड़ ही हो जाता है
कबाड़ी
उसी सब से
अपनी रोजी चलाता है
भूख को जगाता है
रोटी के सपने को
धीमी आँच में
भूनता चला जाता है
इसी तरह का
कुछ ऐसा कबाड़
जो ना कहीं
खरीदा जाता है
ना कहीं
बेचा जाता है
ना किसी को
नजर आते हुऐ
ही नजर आता है
एक कोई
सरफिरा
उसपर
लिखना ही
शुरु हो जाता है
‘उलूक’
क्या करे
हजूरे आला
अगर कबाड़ पर
लिखे हुऐ उस
बेखुश्बूए
अन्दाज को
कोई खुश्बू
मान कर
सूँघने के लिये
भी चला आता है ।
चित्र साभार: http://www.maplegrovecob.org
हुऐ को
सात बार
पढ़ कर
जनाब
पूछ्ते हैं
ओये
तू कहना
क्या चाहता है
साफ साफ
असली
बात को
दो चार
सीधे साधे
शब्दों में ही
बता कर
क्यों नहीं
जाता है
बात को
लपेट कर
घुमा कर
फालतू की
जलेबी
बना कर
किसलिये
लिखने को
रोज का रोज
यहाँ पर
आ जाता है
सुनिये जनाब
जिसकी जितनी
समझ होती है
वो उतना ही तो
समझ पाता है
बाकि बचे का
क्या करे कोई
कूड़ेदान में ही
तो जा कर के
फेंका जाता है
ये भी सच है
कूड़ेदान पर
झाँकने के लिये
आज बस वो
ही आता है
जिसकी
समझ में
गाँधी की फोटो
के साथ लगा हुआ
एक झाड़ू से
सजा पोस्टर
और
उसको बनवाने
वाले की मंशा का
पूरा का पूरा खाँचा
आराम से घुस कर
साफ सफाई का
धंधा फैलाने के
मन्सूबे धीरे धीरे
पैर उठा कर
सपने के ऊपर
सपने को चढ़ाता है
कबाड़ी
कबाड़ देखता है
कबाड़ी
कबाड़ छाँटता है
कबाड़ी
कबाड़ खरीदता है
कबाड़ी
कबाड़ बेचता है
कबाड़ी
के हाथों से
होकर उसके
बोरे में पहुँचकर
चाहे धर्म ग्रंथ हो
चाहे माया मोह हो
सारा सब कुछ
कबाड़ ही हो जाता है
कबाड़ी
उसी सब से
अपनी रोजी चलाता है
भूख को जगाता है
रोटी के सपने को
धीमी आँच में
भूनता चला जाता है
इसी तरह का
कुछ ऐसा कबाड़
जो ना कहीं
खरीदा जाता है
ना कहीं
बेचा जाता है
ना किसी को
नजर आते हुऐ
ही नजर आता है
एक कोई
सरफिरा
उसपर
लिखना ही
शुरु हो जाता है
‘उलूक’
क्या करे
हजूरे आला
अगर कबाड़ पर
लिखे हुऐ उस
बेखुश्बूए
अन्दाज को
कोई खुश्बू
मान कर
सूँघने के लिये
भी चला आता है ।
चित्र साभार: http://www.maplegrovecob.org